खय्याम जो अपनी धुनों से महाकाव्य रचते थे

कतरा कतरा पिघलता रहा आस्मां
रूह की वादियों में न जाने कहां
इक नदी दिलरुबा गीत गाती रही
आप यूं फासलों से गुजरते रहे...
कामयाबी के आईने में सन 1977 में आयी फिल्म ‘शंकर हुसैन’ शायद ही कहीं देखने को मिले। लेकिन इस फिल्म में खय्याम ने ऐसा जादुई संगीत दिया है कि जब तक फिल्में रहेंगी, जब तक फिल्म संगीत रहेगा, तब तक शायद ही फिल्म शंकर हुसैन के गानों को गीत-संगीत का कोई कद्रदान भुला सके। खय्याम के संगीत की यही खासियत है। हद तो यह है कि उन्होंने अपने 40 साल से भी ज्यादा लंबे फिल्मी सफर में ऐसी दर्जनों फिल्मों में संगीत दिया है, जो बिल्कुल नहीं चलीं, लेकिन उनका संगीत अमर है। आज भी इन फिल्मों के सदाबहार गाने, गीत-संगीत के कद्रदानों के दिलों में धड़कते हैं। लेकिन इन छोटी और गैर कामयाब फिल्मों में जादुई संगीत देने की खय्याम की यह खूबी एक जमाने में उनके लिए खामी बन चुकी थी। जी, हां! यह कोई मजाक नहीं है। 92 साल की उम्र में 19 अगस्त 2019 को हमसे विदा हो गये खय्याम ने यह बात एक बार खुद अपने इंटरव्यू में बतायी थी। उनके मुताबिक एक बार उनसे मशहूर फिल्मकार एस चोपड़ा ने कहा, ‘खय्याम साहब मैं चाहता हूं आप मेरी एक फिल्म में संगीत दें, लेकिन मैं डरता भी हूं क्योंकि कई लोग मुझसे यह कहते हैं कि जिस फिल्म में खय्याम संगीत देते हैं, उस फिल्म का संगीत तो सुपरहिट हो जाता है, लेकिन फिल्म कामयाब नहीं होती।’ खय्याम यह सुनकर मुस्कुराये और कहा, ‘एक बार करके देख लेते हैं।’ ऐसा ही हुआ। एस चोपड़ा ने फिल्म कभी-कभी में पहली बार मोहम्मद जहूर खय्याम को संगीत का जिम्मा सौंपा और फिल्म की संगीत ने कुछ इस तरह से धूम मचायी कि करीब एक करोड़ रुपये की लागत में बनने वाली इस फिल्म ने तब न केवल लगातार डबल सिल्वर जुबली मनाई बल्कि करीब 8 करोड़ रुपये की कमायी की जो आज के हिसाब से करीब 200 करोड़ रुपये थे। इस फिल्म का एक गाना ‘कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है...’ इतना सुपरहिट हुआ है कि आज भी यह सदाबहार गीत की तरह हर पीढ़ी का पसंदीदा गीत है। इसके बाद तो एस चोपड़ा और खय्याम के हमेशा ही शानदार रिश्ते रहे भले उन्होंने साथ फिल्में कम की हों। कभी कभी के बाद खय्याम और एस चोपड़ा के बीच इतनी अच्छी ट्यूनिंग बन गई कि एस चोपड़ा ने उन्हें ‘त्रिशूल’ जैसी विशुद्ध कमर्शियल और एंग्री यंग मैन थीम वाली फिल्म में भी खय्याम से संगीत दिलवाया और मजे की बात यह रही कि इस फिल्म में भी अमिताभ के जादू के बावजूद खय्याम का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोला। यह वह दौर था जब माना जाता था कि जिस फिल्म में अमिताभ हों, उस फिल्म में किसी और चीज की जरूरत नहीं होती। न किसी और कलाकार की और न किसी कंटेंट की। लेकिन फिल्म त्रिशूल के कई गीतों ने इस धारणा को तोड़ दिया, विशेषकर ‘मोहब्बत बड़े काम की चीज है...’ और ‘जाने मन तुम कमाल करती हो’ व लता मंगेशकर तथा के जे यशुदास की आवाज में ‘आपकी महकी हुई जुल्फों को..’ जैसे गानों ने। शरीर के रूप में भले खय्याम हमसे विदा हो गये हों लेकिन उनका जादुई हुनर हमेशा हमारे इर्दगिर्द मौजूद रहेगा, जो हमें कभी तनहाइयों से उबारेगा, कभी निराशाओं से बचायेगा तो कभी हमारे अंदर जोश और जुनून भरेगा। लोग कहते हैं कि नयी पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी का हुनर, पुरानी पीढ़ी के ख्याल, पुरानी पीढ़ी की सोच कुछ भी पसंद नहीं आता। लेकिन आप एक दर्जन संगीत प्रेमी नौजवानों के बीच एक सर्वे करके देखिए इनमें से आधे से ज्यादा आपको पुराने गीत सुनते मिलेंगे। खय्याम के धुनों से सजी फिल्मों के गीतों को आज भी न सिर्फ उस दौर में जवान हुई पीढ़ी बहुत पसंद करती है, जो तब जवान हो रही थी, जब ये गाने बने थे बल्कि आज के नौजवानों को भी यह बहुत पसंद है।  18 फरवरी 1927 में पंजाब में जन्में खय्याम बहुत कम उम्र से ही गीत-संगीत के दीवाने हो गये थे। पढ़ाई में उनको जरा भी मन नहीं लगता था। इसलिए किशोर उम्र में ही घर से भाग गये। घर से भागकर लाहौर पहुंचे। वहां मशहूर गुलाम अहमद चिश्ती से संगीत सीखा। इसके बाद उन्होंने पंडित अमरनाथ के सानिद्ध में भी संगीत सीखा। लेकिन संगीत की दुनिया में कुछ जौहर दिखाते इसके पहले ही द्वितीय विश्व युद्ध में फौज में जाना पड़ा, वहां भी उन्होंने अपना जौहर दिखाया। लेकिन युद्ध खत्म होने के बाद अपनी पुरानी धुन  में लौट आये और 1948 में इन तमाम भटकनों से उबरकर बॉलीवुड जा पहुंचे, जहां हीर-रांझा में बतौर म्यूजिक कंपोजर पहली बार अपने हुनर को साबित किया। कहते हैं दुनिया के हर कामयाब शख्स की जिंदगी में एक समय ऐसा आता है, जब वह मिट्टी को भी छू ले तो वह सोना बन जाता है। यह वह दौर होता है जब उसकी कामयाबी की लहर चल रही होती है। सन 1976 से लेकर सन 1986 तक ऐसी ही लहर खय्याम साहब की कामयाबी की बही बल्कि अगर कहा जाए सन 1981, 1982 और 1983 उनकी जिंदगी का वह सुनहरा दौर है जब वह लगातार कामयाबी के सिंहासन पर काबिज रहे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। सन 1981 में ‘उमराव जान’, 1982 में ‘बाजार’ और 1983 में ‘रजिया सुल्तान’। ये तीन ऐसी फिल्में हैं जो फिल्में नहीं हैं धुनों का महाकाव्य हैं। अगर समूचे बॉलीवुड के फिल्म संगीत से इन तीन फिल्मों के संगीत को निकाल दिया जाए, तो फिल्म संगीत की कहानी अधूरी रह जायेगी। अगर इनमें से कोई एक फिल्म भी किसी भी संगीतकार के खाते में हो तो वह बॉलीवुड का कालजयी संगीतकार माना जायेगा। खय्याम इन तीन-तीन कालजयी धरोहरों के मालिक हैं। इसलिए जब तक हममें लय की जरा भी गुंजाइश है, वो हमसे कभी जुदा नहीं होंगे।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर