आम आदमी का खंडित स्वप्न

कहते  हैं, सतियुग की समाप्ति समय से पूर्व हो गई थी, तथा द्वापर से पूर्व ही त्रेता युग आ गया था। फिर द्वापर अभी आधा-अधूरा ही बीत पाया था, कि कलियुग ने एकाएक पदार्पण कर, अपने वर्तमान में ही तमाम पराकाष्ठाओं को लांघ, पाप-कर्मों के हिमालयी शिखरों को छू लिया। चारों ओर भ्रष्टाचार के नगाड़े बजने लगे और भ्रष्ट तूतकों के समक्ष निमानी सत्य-वादिता की चंद इधर-उधर की तूतियां इस प्रकार दबी जाने लगीं जैसे कि नव-निर्मित अट्टालिकाओं की नींवों में, प्रत्येक ईंट के साथ, एक झोंपड़ी द़फन कर दी गई हो। महलों के जयघोषों के बीच, झोंपड़-पट्टियों के ़फातिहे भी पढ़े जाने लगे, और इसी शोर-गुल में आम लोगों की रातों की नींद भी उड़ गई, और दिन का चैन भी।
पंजाबी में विरह के बेताज कवि एवं गीतकार शिव बटालवी ने पता नहीं किस बुरी सैत में लिख दिया होगा, कि ‘पीड़ां दा परागा भुन्न दे नीं भटियारने, भट्ठी वालीये, नीं तैंनू दियां ‘हंजुओं दा भाड़ा’। बस, इसके बाद से पंजाब में हंजुओं के भाड़े का ऐसा रिवाज़ चला कि हर ऐरा-़गैरा अपनी दबंगता का भाड़ा मांगने लगा...गोया छीनने लगा। इधर पंजाब में लेखक समाज की दबंगता का आलम यह हो गया कि जो जितना ज्यादा ़गलत लिखता है, वह उतना बड़ा लेखक/ साहित्यकार बन जाता है। उर्दू का अल़िफ-बे तक न जानने वाले उर्दू-दां हुए जाते हैं।
इस बीच एक दिन एक आम आदमी को एक स्वप्न आया—धरती पर फिर सतियुग आ गया है, और सभी लोग सत्य बोलने लगे हैं। शेर और बकरी एक घाट  पानी पीने लगे। यह भी हुआ कि पुलिस कर्मचारियों ने अपने उत्पीड़न केन्द्र बंद कर दिए, और वे अपने इलाके की प्रत्येक गली के प्रत्येक घर में स्वयं जा कर नुक्कड़ें बुहारने लगे, कि कहीं से कोई दुखी-पीड़ित मिल जाए। सरकारी दफ्तरों में वे बाबू लोग मुस्करा कर फाईलों पर हस्ताक्षर करने लगे जो कभी अपने वास्तविक चेहरों को फाईलों के पीछे छिपा कर, अपने ही मुखौटों से जड़े खिलौनों को, चांदी की चाबी मिलने तक, एक फाईल भी आगे नहीं सरकाते थे। हनेर साईं का! इससे उथल-पुथल तो होना ही थी। यमराज तक को भ्रम होने लगा, कि यह कौन-सा तारा टूटा है कि हर आदमी आते ही अपने पापों का बखान करने लगा है। आकाश से बिन बादल बरसात होने लगी जैसे इन्द्र ने प्रसन्न होकर अपना सम्पूर्ण प्यार धरती पर उंडेल दिया हो...और आम आदमी बौराया, अनमना-सा, आकाश की ओर टकटकी लगाए, सतियुग को बूंद-बूंद टपकते निहारने लगा। अपनी आंखों पर विश्वास करने के लिए उसने अपने दाएं हाथ की उंगलियों में पकड़ी जलती हुई सिगरेट अपनी बाईं हथेली से छुआ दी। उसके मुंह से एक आह के निकलने भर की देर थी कि तेज़ सायरन बजाती शहर की एम्बूलैंस, सिविल अस्पताल के विशेषज्ञ डाक्टरों को लेकर वहां आ खड़ी हुई। डाक्टरों ने उसके नख से लेकर शिख तक, और नस से हृदय-रस तक, बड़ी गहनता से निरीक्षण किया। यह इससे भी अजीब हुआ, कि डाक्टरों की टीम के विदा होते ही, पुलिस गाड़ियां, अर्दली से लेकर सर-दली तक, रोज़नामचे एवं रिपोर्ट पुस्तिकाएं लेकर हाज़िर हो गईं। सर-दली (बड़े अफसर) साहिब ने सिगरेट के टुकड़े को बड़ी ह़िफाज़त से चांदी के डिब्बे में सुरक्षित कर दिया—उसी के कारण ही तो यह कांड (आह तक का स़फर) हुआ था। निष्कर्ष यह, कि चारों ओर एक अजीब-सा वातावरण बन गया। राजनीतिक नेताओं ने भ्रष्टाचार को पूर्णतया तिलांजलि दे दी हो जैसे—घपलों व घोटालों के स्वत: रहस्योद्घाटन होने लगे। राजनीतिज्ञों द्वारा दबाये गये सोने एवं चांदी के घड़ों/मटकों को सार्वजनिक कर दिये जाने और विदेशी बैंकों में जमा समस्त काला धन वापिस मंगा लिए जाने से देश में स्थान-स्थान पर सोने-चांदी और करंसी नोटों के पहाड़ खड़े हो गए। बैंकों में स्थानाभाव की समस्या आ खड़ी हुई। पशुओं को पूरा चारा दिए जाने से, दूध की नदियां बह निकलीं। भारत पुन: सोने की चिड़िया बन कर फड़फड़ाने लगा। हत्या के अभियुक्त चौराहों पर खड़े होकर अपना अपराध कबूल करने लगे। एक मामले में तो जैसे हद हो गई। स्वर्ग के आगमन से पूर्व, जिस व्यक्ति को कल शाम एक हत्या के आरोप में पकड़ कर टार्चर किया गया था, उसकी स़फाई में मृतक स्वयं चल कर थाने पहुंच जाता है, ‘मेरा कत्ल तो हुआ ही नहीं जनाब!’ एक अन्य घटना इससे भी अजीब हुई, कि एक अधेड़-उम्र महिला ने अपने आप को पूर्व नर्स करार देते इकबालिया बयान दिया, कि उसके द्वारा चुराए गए झोंपड़-पट्टी महिलाओं के चारों बच्चे अमुक-अमुक मंत्री, विधायक और बड़े अफसर बने हैं जबकि धनी घरों की तीन महिलाओं के बच्चे नगरपालिका में थर्ड-डिवीज़न क्लर्क लगे हैं। पुलिस विभाग का भी काया-कल्प हो गया। सड़कों पर यातायात-नियंत्रण स्वत: होने और चोरी, लड़ाई-झगड़े आदि के नितांत खत्म हो जाने से, पुलिस थानों में कर्मचारी दिन में भी ऊंघने लगे। बन्दूकें, स्टेनगनें एवं उत्पीड़न-उपकरण बच्चों के खिलौने बन गए। आबकारी विभाग के बाहर लाइसैंस टाफियों की भांति बांटे जाने लगे। शिक्षकों ने स्कूलों को गुरुकुल बना दिया और छात्र नज़रें झुका कर स्कूल आने लगे। सरकारी अस्पतालों में दवाइयों के ढेर जमा हो गए, और अधिकतर बिस्तर नित्य नई चादरें बदल कर मरीज़ों की प्रतीक्षा में पलक-पांवड़े बिछाने लगे। आम आदमी सतियुग के लौट आने की खुशी में इस सीमा तक विभोर हो गया कि नाचने-कूदने लगा, किन्तु उसकी यह ़खुशी पलक झपते ही, उसके लिए विषाद का कारण भी बन गई। वाहनों के हार्नों के शोर से उसका स्वप्न भंग हो गया था। उसकी उछल-कूद से चौक के चारों ओर की सड़कों पर यातायात अवरुद्ध हो गया था। वह चौक जहां स्थित है, उसके पास ही एक पुलिस थाना भी है और सिविल अस्पताल भी। वहीं पास ही देसी और अंग्रेज़ी शराब के दो ठेके भी हैं। वाहनों के शोर को सुन कर पुलिस थाने के एक अदना सिपाही ने देसी शराब के ठेके से सम्बद्ध अहाते से बाहर निकल कर उस आदमी को इतनी ज़ोर से झांपड़ मारा कि डेंचर समेत उसके सभी दांत मुंह से बाहर निकल आए। उसकी आंखें जैसे पथरा गईं। कोई अज्ञात व्यक्ति उसे उठा कर हस्पताल ले गया, किन्तु  वहां जाकर पता चला कि हस्पताल के प्राय: सभी डाक्टर और नर्सें अपने एक साथी की पदोन्नति का जश्न मना रहे थे। आम आदमी हस्पताल के प्रांगण में लकड़ी के बने एक बैंच पर बैठ गया और किसी डाक्टर व नर्स की प्रतीक्षा करते-करते, वहीं पर दम तोड़ गया। उसके शव को पोस्टमार्टम कक्ष की ओर ले जाने वाले कर्मचारी ने तिरछी नज़रों से इधर-उधर देख कर जब उसकी जामा-तलाशी ली, तो उसकी पैबंद लगी पैंट की जेबों से कुल जमा राशि 32 रुपए 33 पैसे निकले—यानि दसवीं में थर्ड डिवीज़न में पास होने के लिए वांछित अंकों के बराबर।