ग्रामीण आर्थिकता की मज़बूती के बिना नहीं थमेगी आर्थिक मंदी

आर्थिक मंदी को बहुत गम्भीर और गत 70 वर्षों में सबसे बुरी बताते हुए नीति आयोग के चेयरमैन राजीव कुमार ने अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाने के लिए कुछ विशेष कदम उठाने का आह्वान किया है, परन्तु मैंने यह महसूस किया है कि नीति आयोग ने यह जानने के बाद भी कोई चिंता इस संबंधी जाहिर नहीं की कि भारतीय किसानों ने वर्ष 2000 से लेकर 2017 तक के 17 वर्षों में कमरतोड़ 45 लाख करोड़ के घाटे का सामना कैसे किया है? कृषि का गम्भीर संकट जोकि 70 वर्षों में सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है, की ओर किसी भी अर्थशास्त्री या नीति निर्माता का ध्यान नहीं गया। ओ.ई.सी.डी.-आई.सी.आर.आई.ई.आर. का अध्ययन जिसने यह स्पष्ट किया है कि किसानों को बुनियादी आमदनी नहीं मिलती, जिससे किसानों को 45 लाख करोड़ का घाटा पड़ा है। इससे पहले लीक हुई राष्ट्रीय सर्वेक्षण नमूना कार्यालय (एन.एस.एस.ओ.) की ‘पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे’ 2017-18 की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 3.4 करोड़ कच्चे मजदूर जिनमें से 3 करोड़ खेत मज़दूर हैं। 2011-12 तथा 2017-18 के दौरान अपने कार्य से खाली हुए हैं। गांवों और ग्रामीण क्षेत्र में अर्थव्यवस्था की बुरी हालत थी, परन्तु नीति निर्माताओं ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। इसको इस तरह समझा गया कि इससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ेगा और ऐसा समझा जाता है कि अर्थव्यवस्था में गड़बड़ तब होगी जब उद्योग घाटे में जायेगा। इसको इस तरह समझा गया कि जैसे ग्रामीण भारत का अस्तित्व ही नहीं है या भारत का ग्रामीण क्षेत्र सहारा रेगिस्तान में बसता हो, जिसकी चिंता किए जाने की कोई ज़रूरत नहीं। परन्तु यदि नीति आयोग समय रहते ही इस गम्भीर समस्या के प्रति जागा होता तो अब इतना परेशान होने की ज़रूरत नहीं थी। यह मंदी घरेलू मांग कम होने का परिणाम है, जोकि कृषि आमदनी में मंदी के कारण पैदा हुई है। गत दो वर्षों में कृषि में लगभग ‘शून्य वृद्धि दर’ और 2011-12 तथा 2016-17 के दौरान आधी फीसदी से भी कम वृद्धि दर होने के कारण यह स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रहा था कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था गम्भीर मंदी की ओर जा रही है। कृषि आमदनी गत 14 वर्षों से बहुत कम है। दुख की एक और बात यह भी है कि भारतीय रिज़र्व बैंक ने यह भी दिखाया था कि कृषि में पब्लिक सैक्टर का निवेश भी बहुत कम (2011-12 और 2016-17 के बीच जी.डी.पी. के 0.3 से 0.4 प्रतिशत तक) इससे स्पष्ट होता है कि ऐसा क्षेत्र जो सबसे ज्यादा रोज़गार मुहैया करवाता है, को किस तरह उपरोक्त वर्षों में नज़रअंदाज़ किया गया। इस समय सबसे अधिक ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जीवित करने के लिए प्रयास करने की है, परन्तु कृषि संकट में है और इसके विपरीत तो उद्योग अपनी शोकमयी कहानियां सुना रहे हैं कि कैसे ऑटो बिक्री नीचे की ओर जा रही है और पारले बिस्कुट के 10,000 मजदूरों पर नौकरी छिन्न जाने की तलवार लटक रही है, क्योंकि पांच रुपए वाले बिस्कुटों की बिक्री बहुत कम हो गई है। एक लाख करोड़ के सहायता पैकेज की इच्छुक औद्योगिक लॉबी को मीडिया के बड़े हिस्से का साथ मिल रहा है। इनके द्वारा फैलाये जा रहे शोर-शराबे में किसानों और ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों को एक बार फिर भुला दिया गया है।  गिरावट में जा रही अर्थव्यवस्था को सहारा देने की कोशिशों में अमीरों को टैक्सों में रियायत और आर्थिक सहायता दी गई और इस तरह समाज के धनाढ्य लोगों को और धन मुहैया करवाया गया। परन्तु मैं इस बात से हैरान हूं कि यह सहायता मांग को और कैसे बढ़ा सकती है? इस सहायता से गरीब लोगों के पास पैसा कैसे आयेगा? जब सभी इस बात से सहमत हैं कि ग्रामीण मांग के बहुत ज्यादा कम हो जाने के कारण ही मंदी आई है, तो मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि उन लोगों को आर्थिक सहायता मुहैया करवाने का क्या अर्थ है, जो स्वयं इस मंदी के लिए ज़िम्मेदार हैं। यह बिल्कुल ऐसा ही है, जैसे भारत के आर्थिक सलाहकार के.सुब्रामणियम ने कहा था कि भारत के इनकार्पोरेटों की प्रवृत्ति ‘मुनाफों को निजी बनाने और घाटों को सामाजिक बनाने की है’। 
इसके अलावा गत 12 वर्षों में लगभग 8.5 लाख करोड़ के ऋण पर लकीर लगाई गई है और बैंक 17 लाख करोड़ के और फंसे हुए ऋणों की ओर देख रहे हैं, जिनके बारे में कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इनमें से सिर्फ 12 लाख करोड़ के ही लौटने की उम्मीद है। इन बातों पर ध्यान देने के बाद पता चला है कि यह पब्लिक सैक्टर ही है, जो इतनी बड़ी धन राशि डकार गया है। वर्ष 2009 में जब विश्व स्तर पर आर्थिक मंदी थी तो भारतीय उद्योग प्रति वर्ष 1.8 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की आर्थिक सहायता प्राप्त कर रहा था। दूसरे शब्दों में इसने गत 10 वर्षों में 18 लाख करोड़ रुपए प्राप्त किए हैं। यह सब कुछ जी.डी.पी. की 5 प्रतिशत तक की टैक्स छूट से अलग है। मुख्य आर्थिक सलाहकार बिल्कुल सही थे, जब उन्होंने कहा था कि उद्योग को अपना प्रबंध स्वयं करना चाहिए और हर बार मंदी के समय सरकार की तरफ नहीं भागना चाहिए।जब सभी की नज़रें रिज़र्व बैंक द्वारा सरकार को दिए गए 1.76 लाख करोड़ रुपए पर हैं, तो आर्थिक वृद्धि को ऊपर उठाने के लिए सबसे बढ़िया रास्ता यह है कि ग्रामीण गरीबों तक अधिक से अधिक पैसा पहुंचाया जाए। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि देश के 17 राज्यों या ऐसे कह लें कि लगभग आधे देश के किसान परिवारों की वार्षिक आमदनी सिर्फ 20000 रुपए है, तो रिज़र्व बैंक द्वारा मुहैया करवाए पैसे को प्रधानमंत्री किसान योजना के अधीन किसानों की आमदनी को दुगुना करने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। मौजूदा समय में भूमि वाले किसानों को 6 हज़ार रुपए की सरकारी सहायता दी जाती है, जो बढ़ाकर 12,000 की जानी चाहिए, जिसका तात्पर्य यह है कि उनको मिलती सहायता में 1,000 रुपए मासिक वृद्धि हो जायेगी। इसके साथ ही समय की मांग है कि भूमि रहित किसानों को भी प्रधानमंत्री किसान योजना के अधीन लाया जाए। इसके साथ ही कृषि में पब्लिक सैक्टर के निवेश को भी बढ़ाया जाना चाहिए। इसकी शुरुआत 20,000 गांवों की ग्रामीण मंडियों को आधुनिक मंडियों में तबदील करने के वायदे पर अमल करने से की जानी चाहिए।