देवताओं के वास्तु शिल्पी विश्वकर्मा

भगवान विश्वकर्मा को वास्तुशास्त्र और तकनीकी ज्ञान का जनक माना जाता है। पौराणिक साक्ष्यों के मुताबिक, स्वर्गलोक की इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, असुरराज रावण की स्वर्ण नगरी लंका, भगवान श्रीकृष्ण की समुद्र नगरी द्वारिका और पांडवों की राजधानी हस्तिनापुर के निर्माण का श्रेय भी विश्वकर्मा को ही जाता है। पौराणिक कथाओं में इन उत्कृष्ट नगरियों के निर्माण के रोचक विवरण मिलते हैं। उड़ीसा का विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर तो विश्वकर्मा के शिल्प कौशल का अप्रतिम उदाहरण माना जाता है। विष्णु पुराण में उल्लेख है कि जगन्नाथ मंदिर की अनुपम शिल्प रचना से खुश होकर श्री हरि विष्णु ने उन्हें शिल्पावतार के रूप में सम्मानित किया।इस तरह स्कंद पुराण में उन्हें देवयानों का सृष्टा कहा गया है। स्कंद पुराण में ही एक अन्य स्थल पर उल्लेख है कि वह शिल्प शास्त्र के इतने बड़े मर्मज्ञ थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊं बनाने की सामर्थ्य रखते थे। माना जाता है कि प्राचीन काल में जितने भी सुप्रसिद्ध नगर और राजधानियां थीं, उनके वास्तु शिल्प का सृजन भी विश्वकर्मा ने ही किया था। विश्वकर्मा जयंती हर वर्ष 17 सितम्बर को मनायी जाती है। सतयुग का स्वर्ग लोक, त्रेता युग की लंका, द्वापर की द्वारिका और कलियुग के हस्तिनापुर आदि के रचयिता विश्वकर्मा जी की पूजा अत्यन्त शुभकारी है। सृष्टि के प्रथम सूत्रधार, शिल्पकार और विश्व के पहले तकनीकी ग्रन्थ के रचयिता भगवान विश्वकर्मा जी ने देवताओं की रक्षा के लिये अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण किया। विष्णु को चक्र, शिव को त्रिशूल, इंद्र को वज्र, हनुमान को गदा और कुबेर को पुष्पक विमान विश्वकर्मा जी ने ही प्रदान किये थे। सीता स्वयंवर में जिस धनुष को श्री राम ने तोड़ा था, वह भी विश्वकर्मा जी के हाथों बना था। जिस रथ पर निर्भर रह कर श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन संसार को भस्म कर देने की शक्ति रखते थे, उसके निर्माता विश्वकर्मा जी ही थे। पार्वती के विवाह के लिए जो मण्डप और वेदी बनाई गई थी, वह भी विश्वकर्मा जी ने ही तैयार की थी। विश्वकर्मा जी शिल्प शास्त्र के आविष्कारक और सर्वश्रेठ ज्ञाता माने जाते हैं जिन्होंने देवताओं के सम्पूर्ण विमानों की रचना की और जिनके द्वारा आविष्कार कर शिल्प विद्याओं के आश्रय से सहस्रों शिल्पी मनुष्य अपना जीवन निर्वाह करते हैं।
यही नहीं, विश्व के प्राचीनतम तकनीकी ग्रंथों का रचयिता भी विश्वकर्मा को ही माना गया है। इन ग्रंथों में न केवल भवन वास्तु विद्या, रथादि वाहनों के निर्माण बल्कि विभिन्न रत्नों के प्रभाव व उपयोग आदि का भी विवरण है। देव शिल्पी के विश्वकर्मा प्रकाश को वास्तु तंत्र का अपूर्व ग्रंथ माना जाता है। इसमें अनुपम वास्तु विद्या को गणितीय सूत्रों के आधार पर प्रमाणित किया गया है। ऐसा माना जाता है कि सभी पौराणिक संरचनाएं भगवान विश्वकर्मा द्वारा निर्मित हैं। भगवान विश्वकर्मा के जन्म को देवताओं और राक्षसों के बीच हुए समुद्र मंथन से माना जाता है। पौराणिक युग के अस्त्र और शस्त्र, भगवान विश्वकर्मा द्वारा ही निर्मित हैं। वज्र का निर्माण भी उन्होंने ही किया था। विश्वकर्मा पूजन, भगवान विश्वकर्मा को समर्पित एक दिन है। इस दिन का औद्योगिक जगत और भारतीय कलाकारों, मजदूरों, इंजीनियर्स आदि के लिए खास महत्त्व है। भारत के कई हिस्सों में इस दिन काम बंद रखा जाता है। धर्मग्रंथों में विश्वकर्मा को सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का वंशज माना गया है। ब्रह्मा के पुत्र धर्म तथा धर्म के पुत्र वास्तुदेव थे जिन्हें शिल्प शास्त्र का आदि पुरुष माना जाता है। इन्हीं वास्तुदेव की अंगिरसी नामक पत्नी से विश्वकर्मा का जन्म हुआ। अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए विश्वकर्मा भी वास्तुकला के महान आचार्य बने। मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञ इनके पुत्र हैं। इन पांचों पुत्रों को वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में विशेषज्ञ माना जाता है। ब्रह्म पुराण में इनके पांच स्वरूपों ंिवराटवंशी, धर्मवंशी, अंगिरावंशी, सुधन्वावंशी और भृगुवंशी विश्वकर्मा का उल्लेख मिलता है। इनके आधार पर शिल्प शास्त्र के प्रणेता विश्वकर्मा ऋषि को सभी प्रकार के वास्तु शिल्पों का भंडार माना जाता है जिन्होंने पदार्थों के आधार पर शिल्प विज्ञान को पांच प्रमुख धाराओं में विभाजित कर मानव समुदाय को इनके ज्ञान से लाभान्वित किया। विश्वकर्मा ऋषि के पांच शिल्पाचार्य पुत्र-भनु, सनातन, अहभून, प्रयत्न और दैवज्ञ क्रमश: लौह, काष्ठ, ताम्र, शिला (पत्थर) व हिरण्य (स्वर्ण) शिल्प के अधिष्ठाता माने जाते हैं। विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में सर्वमान्य हैं। इनको गृहस्थ आश्रम के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक भी कहा गया है। अपने विशिष्ट ज्ञान-विज्ञान के कारण देव शिल्पी विश्वकर्मा मानव समुदाय ही नहीं, वरन देवगणों द्वारा भी पूजित-वंदित हैं। देवता, नर, असुर, यक्ष और गंधर्व सभी में उनके प्रति सम्मान का भाव है। इनकी गणना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देवों में होती है। मान्यता है कि भगवान विश्वकर्मा का पूजन-अर्चन किये बिना कोई भी तकनीकी कार्य शुभ नहीं माना जाता। इसी कारण विभिन्न कार्यों में प्रयुक्त होने वाले औजारों, कल-कारखानों और विभिन्न उद्योगों में लगी मशीनों का पूजन विश्वकर्मा जयंती पर किया जाता है।  विश्वकर्मा के यथाविधि पूजन और उनके बताये वास्तुशास्त्र के नियमों का अनुपालन कर बनवाये गये मकान और दुकान शुभ फल देने वाले माने जाते हैं। इनमें कोई वास्तु दोष नहीं माना जाता। मान्यता है कि ऐसे भवनों में रहने वाला सुखी और सम्पन्न रहता है और ऐसी दुकानों में कारोबार फलता-फूलता है। इसी कारण बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक और दिल्ली आदि क्षेत्रों में प्रतिवर्ष भगवान विश्वकर्मा की जयन्ती पर धूमधाम से इनकी पूजा-अर्चना की जाती है। इस मौके पर विश्वकर्मा समाज के लोग इनकी शोभायात्र भी निकालते हैं।विश्वकर्मा की कृपा से पुन: धन-धान्य और सुख-समृद्धि अर्जित करने वाले एक रथकार की कथा काफी प्रसिद्ध है। कथा के अनुसार, काशी में एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था। धार्मिक कार्यों में बराबर रुचि रहने के बावजूद उन्हें पुत्र और धन का अभाव बराबर खलता रहता था। बहुत पूजा-पाठ और संतों के दर्शन के बावजूद उनके कष्ट दूर नहीं हुए। देवयोग से उनके एक ब्राह्मण पड़ोसी से उनका यह दुख देखा नहीं गया। उसने रथकार दंपति को सुझाव दिया कि तुम अमावस्या तिथि को भगवान विश्वकर्मा की पूजा और व्रत रखो। वह ही तुम्हारे कष्टों को दूर करेंगे। दंपति ने ऐसा ही किया और भगवान विश्वकर्मा की कृपा से उनके कष्ट दूर हुए। वे सन्तानवान और धनवान हुए। तभी से विश्वकर्मा पूजन की परम्परा शुरू हो गयी।

(युवराज)
-रमेश सर्राफ धमोरा