सपनों में जान, देश का मान बेटियां

विचित्रताओं भरे अपने देश में बेटियां सबसे ज़्यादा विचित्र व्यवहार की पात्र बनती हैं।  एक ओर उन्हें पूज्या व देवी कहा जाता है तो दूसरी तरफ उनके लिए जीने का हक लेना भी बड़ा दुष्कर काम हो गया है। एक तरफ बेटी पढ़ाओ ‘बेटी बचाओ ’ का नारा है तो दूसरी तरफ एक मां अपने ही जिग़र के टुकड़े को महज़ इस लिए मार देती है कि उसके परिवार को केवल और केवल बेटा चाहिए था। बेटी एक तरफ साक्षी मलिक या पी. वी. सिंधु के रूप में  देश का मान बढ़ाती है, देश की पहली महिला सैनिक बनकर सीमा पर देश की रक्षा के लिए अपनी जान दे देती है, पैरा ओलंपिक में बावजूद शरीर का नीचे का हिस्सा पूर्णतया अपंग होने के बाद भी देश की चांदी कर देती है और दूसरी तरफ बावज़ूद कितने ही कानूनों व नियमों के वह बंद दरवाजे के पीछे ही नहीं खुले आम और बीच सड़क पर भी अपमान का घूंट पीने को विवश होती रहती हैं। मगर बेटी या लड़की नाम की यह जीवट की धनी प्राणी डरती है न मरती है अपितु सारे बंधनों, बंदिशों व प्रतिबंधों तथा हतोत्साहित कर देने वाले माहौल से अपनी उड़ान को ऊंचा और ऊंचा ही नहीं करती अपितु बादलों के पार जाने के हसीन ख्वाब पालती है और पालती ही नहीं अपितु उन्हें यथार्थ में तब्दील भी करती है ज़रा सा अवसर पाते ही। सच है कि हमारी वज़ह से नहीं बल्कि  अपनी ताकत व योग्यता के चलते लड़कियों ने आसमान छुए हैं। हालांकि सरकार ने काफी कुछ किया भी है पर वह आंकड़ों में ज्यादा और धरातल पर अपेक्षाकृत कम है। काफी पहले एक नारा बड़े जोर शोर से आया था - ‘एक पिता की दो संतान, लड़का लड़की एक समान ‘फिर कई नारे आए और गए भी, अभी भी ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़़ाओ’  का नारा हवा में है।  नारे बदलते गए पर  बेटी की हालत नहीं बदली  बल्कि हालात दिन प्रतिदिन जटिल से जटिलतर होते जा रहे हैं। पुरातन पंथी लोग तो आज भी लड़की के साथ खाने पीने, पहनने ओढ़ने, खेलने कूदने सबमें पक्षापात करते हैं और खुल्लम खुल्ला करते हैं मगर कानून तब आंखों पर पट्टी बांधे खड़े रहने को ही प्रश्रय देता है। स्कूल गांव में हैं तो ठीक वरना एक अज्ञात भय के चलते बेटी को दूर पढ़ने भेजने में आज भी हिचकिचाहट है। भले ही लड़की ने नए से नए क्षितिज पाएं हों पर कई्र मायनों व क्षेत्रों में वह आज भी बहुत पीछे है। सच है कि, पढ़ी लिखी लड़कियों ने बहुत कुछ पाया है पर ऐसा बहुत कुछ से भी ज्यादा गंवाया भी है जो शायद उसके लिये कहीं ज्यादा जरुरी  है। अपने अधिकारों की तरफ  कदम रखने की कीमत लड़कियों को अपना सहज कोमल भाव गंवा कर चुकानी पड़ी हैं। आज दहेज हत्या, असुरक्षा, बदनामी का डर, बेटी की सुरक्षा का, मान सम्मान का भय ही बेटी के मां बाप बनने से रोक देता है ।पर इतना सब होने पर भी शिक्षा में लड़कों से लड़की  मीलों आगे है, गुणवत्ता में सदा ही भारी, आज्ञाकारिता में सोने पर सुहागा, मां बाप के प्रति समर्पण में अतुलनीय, कर्तव्य पालन में सदा  सजग व तैयार, परम्परा व संस्कारों में उसका जवाब नहीं, कमाने पर आए तो अकेली परिवार पाल  दे, बच्चे के पालन पोषण  में महारथी, भाई को पढ़ा दे, बहन को हौसला दे  यानी जितना कहें कम है।  कभी लक्ष्मी रुपा तो जरुरत पड़ने पर दुर्गा बनने से भी गुरेज़ नहीं। और क्या चाहिये भला एक नन्ही सी जान से ?  वक्त रहते सोचने व सही सोच विकसित करने के साथ उस पर अमल करने की जरुरत है।  यदि हम पुरातन पंथी सोच से निकल पाएं तो आज की लड़की देश घर व समाज को कहीं से कहीं ले जा सकती है। अब हमें लड़की को दोयम मानने, उसे कमजोर समझने, उससे भेदभाव करने, बेटे पर जान लुटाने व बेटी की जान ले लेने की रुग्ण मानसिकता हर हाल में छोड़नी होगी  और  लड़की को  खुले आसमान में उड़ान भरने, अपनी मर्जी से जीने व काम करने का हक देना होगा।

 -घनश्याम बादल