अपने आधार की चिंता करें विपक्षी पार्टियां

गत दिनों भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार ने अपने दूसरे शासनकाल के 100 दिन पूरे करने पर अपनी उपलब्धियों का बड़े स्तर पर गुणगान किया था। इन उपलब्धियों में मुस्लिम समाज में प्रचलित तीन तलाक व्यवस्था को खत्म करना, जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को खत्म करके उस राज्य को दो केन्द्र शासित क्षेत्रों में बांटना, गैर-कानूनी सक्रियता संबंधी और आतंकवाद रोकने संबंधी कानूनों को और कड़ा करना, छोटे किसानों और व्यापारियों के लिए पैंशन योजना लागू करने सहित कई अन्य समाज कल्याण की योजनाओं पर चर्चा की गई। भाजपा ने अपनी सरकार की कारगुज़ारी की देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रचार करने की भी योजना बनाई है। दूसरी तरफ अगर इस समय के दौरान विपक्षी पार्टियों की कारगुज़ारी को देखें तो भी निराशा हाथ लगती है। विगत लोकसभा चुनावों में देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी कांग्रेस को  निराशाजनक हार का सामना करना पड़ा था। 2014 के लोकसभा चुनावों में इसको 44 सीटें मिलीं थीं, परन्तु 2019 के लोकसभा चुनावों में यह पार्टी केवल 52 सीटों तक ही पहुंच सकी है। इन चुनावों के बाद इस पार्टी की हालत इस तरह की हो गई कि इसके अस्तित्व पर ही प्रश्न उठने लगे थे। चुनावों के परिणाम आने के बाद पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी पार्टी को अपना कोई विकल्प न देकर इस्तीफा देकर अलग हो गए और लम्बे समय तक पार्टी अपना नया अध्यक्ष ही नहीं चुन सकी और अंत में सोनिया गांधी को ही पुन: कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया। राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद सोनिया गांधी को पुन: कार्यकारी अध्यक्ष बनाने के अंतराल में अलग-अलग राज्यों में पार्टी के अधिकतर नेता और चुने हुए विधायक पार्टी छोड़ कर भाजपा या अन्य राजनीतिक पार्टियों में शामिल हो गए। लोकसभा चुनावों में बड़ी सफलता मिलने के बाद उत्साहित हुई भाजपा ने कांग्रेस की राजस्थान और मध्य प्रदेश में बनी सरकारों को तोड़ने के लिए भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से अनेक प्रयास किये। कनार्टक में कांग्रेस की सहायता से बनी जनता दल (स) की सरकार को तोड़ने में तो भाजपा को सफलता भी मिल गई। इसके अलावा भाजपा द्वारा केन्द्रीय एजेंसियों सी.बी.आई., इन्कम टैक्स और ई.डी. आदि द्वारा कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के नेताओं को झूठे-सच्चे केसों में फंसा कर परेशान करने के अमल को भी तेज कर दिया गया। इस तरह के सभी हमलों को रोकने में कांग्रेस लीडरशिप बुरी तरह नाकाम रही। संसदीय सत्र में भी कांग्रेस की लीडरशिप सम-विचारक विपक्षी पार्टियों का कोई संयुक्त ग्रुप बना कर भारतीय जनता पार्टी को विपक्षी गुट द्वारा कोई प्रभावशाली चुनौती नहीं दे सकी। कांग्रेस के बाद राष्ट्रीय स्तर पर इस अंतराल के दौरान वामपंथी पार्टियों की भूमिका भी कोई ज्यादा उत्साहजनक नहीं रही। 2009 के लोकसभा चुनावों में वामपंथी पार्टियों के लोकसभा में 60 से लगभग सदस्य थे। परन्तु 2014 के चुनावों में इन पार्टियों के सदस्यों की संख्या 10 के लगभग रह गई थी। 2019 के लोकसभा चुनावों में इन पार्टियों के सिर्फ 5 सदस्य ही लोकसभा में पहुंच सके। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा आदि राज्यों में इन पार्टियों का विशेष आधार रहा है। परन्तु 2019 के लोकसभा चुनावों में इन राज्यों में सिर्फ केरल में ही एक लोकसभा सीट सी.पी.एम. को प्राप्त हुई है। शेष 4 सीटों पर सी.पी.आई. और सी.पी.एम. को तमिलनाडू में डी.एम.के. के साथ किये गये चुनावी समझौते से ही हासिल हुई हैं। इतनी बड़ी हार के बाद भी वामपंथी पार्टियां अपने कमज़ोर  हुए सैद्धांतिक और सार्वजनिक आधार को मज़बूत करने के लिए खुले मन से कोई पड़ताल करने, पड़ताल के परिणाम लोगों के समक्ष लेकर आने तथा निचले स्तर पर अपने संगठनों को पुन: मज़बूत करने के लिए कोई संजीदा प्रयास करती हुई नज़र नहीं आईं। अगर बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों की बात करें तो लोकसभा चुनावों में उनकी कारगुज़ारी भी कोई ज्यादा बेहतर नहीं रही। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बसपा के गठबंधन को बड़ी हार का सामना करना पड़ा और इसके बाद बसपा ने यह गठबंधन ही समाप्त कर दिया। दूसरी तरफ बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाला गठबंधन भी भाजपा और जनता दल (यू) के गठबंधन से बुरी तरह हार गया। आंध्र प्रदेश में चंद्र बाबू नायडू के नेतृत्व वाली तेलगू देशम पार्टी को भी बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के आधार को भी कम करने में भाजपा काफी सीमा तक सफल रही। तमिलनाडू में डी.एम.के. ज़रूर अपनी स्थिति को बरकरार रखने में सफल हुई। उडीशा में लोकसभा चुनावों के साथ-साथ विधानसभा के चुनावों में बीजू जनता दल ने भी अपनी ज़मीन काफी सीमा तक बचाये रखने में सफलता प्राप्त की। आंध्र प्रदेश में वाई.एस. कांग्रेस और तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति की कारगुज़ारी बेहतर रही। परन्तु यह क्षेत्रीय पार्टियां भारतीय जनता पार्टी के प्रति नरम रवैया ही रखती हैं। देश की राजधानी दिल्ली में केजरीवाल भी लोकसभा चुनावों में अपना आधार बचा कर न रख सके। पंजाब में भाजपा की भागीदार पार्टी अकाली दल भी 10 में से सिर्फ 2 सीटें ही जीत सकी। क्षेत्रीय पार्टियों की लोकसभा चुनावों में हुई उपरोक्त बड़ी हार के बाद भी क्षेत्रीय पार्टियों ने अपनी स्थिति पुन: मज़बूत करने के लिए बड़े स्तर पर कोई प्रयास नहीं किये। इस समय अगर देश में भारतीय जनता पार्टी की तूती बोल रही है तो इसके दो बड़े कारण हैं। एक तो यह कि गैर-भाजपा राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियां अलग-अलग समय के दौरान जब भी सत्ता में रही हैं वह परिवारवाद और भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो सकीं और लोगों के साथ किये वायदे बड़े स्तर पर पूरे नहीं कर सकीं। दूसरी बात यह है कि ़गैर-भाजपा राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने-अपने कार्यकाल में देश में धर्म-निरपेक्षता, लोकतांत्रिक और संघवाद को मज़बूत बनाने के लिए विशेष तौर पर कोई ठोस प्रयास नहीं किये। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी और इसको पर्दे के पीछे रह कर चलाने वाले बड़े संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपनी विचारधारा (चाहे हम इससे सहमत न भी हों) लोगों तक पहुंचाने हेतु पिछले कई दशकों से निरन्तर प्रयास किए हैं। इस कारण आज देश में भारतीय जनता पार्टी और संघ की विचारधारा, जोकि धर्म-निरपक्ष लोकतांत्रिक भारत को हिन्दू राष्ट्र में बदलने के लिए केन्द्रित है, की लगातार पकड़ मज़बूत हो रही है। लोगों का एक बड़ा हिस्सा उसके प्रभाव में आता जा रहा है। चाहे पिछले 5 वर्षों के कार्यकाल में श्री नरेन्द्र की पिछली सरकार ने नोटबंदी करके और त्रुटिपूर्ण जी.एस.टी. कर प्रणाली लागू करके देश की अर्थ-व्यवस्था को बड़ी चोट पहुंचाई थी, इसके बावजूद भाजपा अंध-राष्ट्रवाद भड़का कर लोकसभा चुनावों में बड़ी सफलता प्राप्त करने में सफल रही। इस समय भी देश की आर्थिकता बेहद मंदी की स्थिति में से गुज़र रही है। कृषि में पिछले कई दशकों से चला आ रहा गम्भीर संकट प्रत्येक वर्ग के लोगों की खरीद शक्ति कम होने के कारण औद्योगिक और व्यापारिक संकट में भी बदल चुका है। बड़े स्तर पर लोगों की नौकरियां जा रही हैं। देश में भीड़ हिंसा की घटनाओं में बढ़ौतरी हुई। जम्मू-कश्मीर में भी 5 अगस्त को धारा 370 हटाने के बाद लाखों लोगों को घरों के भीतर नज़रबंद रखा गया है। प्रैस और अन्य सभी शहरी स्वतंत्रताओं से लोगों को वंचित रखा हुआ है। फिर भी विपक्षी पार्टियां न तो इन मुद्दों पर एक मंच पर आ सकी हैं और न ही देश में बड़े स्तर पर अपना विरोध प्रकट कर सकी हैं। दूसरी तरफ न्यायपालिका भी भाजपा सरकार के दबाव में विचरती नज़र आ रही है। वह भी जम्मू-कश्मीर के लोगों को उनके खोये हुए शहरी अधिकार दिलाने में अभी तक सफल नहीं हुई, बल्कि उसकी ओर से इस संबंधी आने वाली शिकायतों को अलग-अलग ढंग से ठंडे बस्ते में डाले रखने का ही प्रयास किया गया है। देश में धर्म-निरपक्षता, लोकतंत्र और संघवाद (फैडरलिज़्म) में विश्वास रखने वाले बुद्धिजीवी और आम लोग गम्भीर चिंता में पड़े नज़र आ रहे हैं। उधर, महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनावों की भी घोषणा हो गई है, परन्तु विपक्षी पार्टियां इन चुनावों में भी भाजपा को कोई टक्कर देने की स्थिति में नहीं है। देश की ऐसी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों में अगर मज़बूती के साथ विपक्षी पार्टियां आगे नहीं आतीं, तो इस देश में बहु-पार्टी लोकतंत्र को बचा कर रखना बेहद मुश्किल हो जाएगा।