त्यौहारी खरीद से कम होगा मंदी का असर

श की मंद पड़ी अर्थ-व्यवस्था में घरेलू और विदेशी दोनों तरह के निवेश लुभाने की कोशिश इन दिनों काफी ज़ोरदार तरीके से हो रही है। पिछले एक महीने के दौरान वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश की गई तीन बड़ी घोषणाओं में से आखिरी घोषणा तो देशी-विदेशी निवेशकों के लिए एक बड़ा लाल कालीन बिछाने की ही तरह थी, जिसमें कर रियायतों, प्रोत्साहनों, पुरानी अनियमितताओं से मुक्ति और उनके मुनाफा बढ़ाने की अनेकानेक सौगातें प्रदान की गईं। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हाल की अपनी बहुचर्चित अमरीकी यात्रा में अनिवासी भारतीयों की चाहे ह्यूस्टन में आयोजित हाउदी मोदी कार्यक्रम के दौरान हो या उसके उपरांत न्यूयार्क में वैश्विक निवेशकों के साथ उनकी बैठक  हो, विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए उन्होंने जोरदार उपसर्गों के साथ जबरदस्त तकरीर की।मोदी ने वैश्विक निवेशकों के साथ अपनी बैठक में डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी, डिमांड और डिसीवनेस जैसे शब्दों के साथ टैक्स और ट्रांसजेक्शन को सरल बनाये जाने का जो उदघोष किया है, वह बड़ा ही महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही मोदी ने भारतीय राष्ट्रवाद को एक अंतर्राष्ट्रीयकृत रूप देकर अनिवासी भारतीयों में वही जज्बा लाने का प्रयास किया है, जो जज्बा कभी अनिवासी चीनियों के मार्फत चीन में आया और  वहां की साम्यवादी अर्थ-व्यवस्था रातो-रात उदारीकृत, भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था में तब्दील हो गई । अभी अपनी अमरीका यात्रा में मोदी ने विदेशी निवेशकों के समक्ष भारत को सबसे ज्यादा आर्थिक व व्यावसायिक संभावनापूर्ण केन्द्र बताने की हर संभव कोशिशें की।जाहिर है मोदी सरकार पिछली दो तिमाही से देश की मंद पड़ी अर्थ-व्यवस्था के सभी बुनियादी कारकों में व्याप्त शिथिलताओं जिसमें निवेश, उत्पादन, उपभोग, आय, रोजगार और मांग सभी मोर्चे प्रभावित हुए हैं, उनमें नया जीवनदान देने के लिए हर संभव कवायद कर रही है। इन नयी कवायदों को देखकर यही लगता है मोदी सरकार ने अर्थ-व्यव्यवस्था की मौजूदा स्थिति में दिख रहे भावी खतरों को अब भांप लिया है और इसे सुधारने के लिए देशी व विदेशी निवेशकों को हर हाल में भारत में निवेश करने के लिए हर तरह के भरोसे, संभावनाएं और वादे प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री दोनों द्वारा दिये जा रहे हैं। परंतु सवाल ये है कि अर्थ-व्यवस्था की मौजूदा परिस्थिति में सुधार क्या देश में केवल नये निवेश करने के नये उद्घोष से हासिल हो जाएगा? जब देश में प्रभावी मांग की स्थिति बिल्कुल नदारद हो गई है।  वास्तव में जिस मुद्रास्फीति के अभी नियंत्रण में होने की बात कही जा रही है, वह मांग संकुचन की वजह से ज्यादा है ना कि मांग और आपूर्ति के संतुलन की वजह से। बायर्स मार्केट के बजाए अभी देश में सप्लायर्स मार्केट की स्थिति बनी हुई है, ऐसे में देश में इन्ड्यूस्ड इन्वेस्टमेंट को प्रोत्साहन सिर्फ  रियायतों से नहीं मिलने वाला। मोदी सरकार ने अभी तक जो भी घोषणाएं की हैं, उसमें देश में लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाने की कवायद तो नदारद है । सरकार को कम से कम अभी अपने निवेश व राशि स्थानांतरण की प्रक्रिया को टाप गियर में ले जाने की जरूरत थी। इसके तहत देश भर में सरकार को मांग, उपभोग, रोजगार, आय व निवेश के फ्रंट पर एक साथ बहुस्तरीय पहल की दरकार थी । इसके तहत सरकार को रोज़गार सृजन के मामलों में बेहद उदारता बरतनी चाहिए थी जिसकी पहल अब तक बिल्कुल भी नहीं दिखी है।विदेशी निवेश लुभाने की बात करें तो मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल के दौरान प्रस्तुत मेक इन इंडिया कार्यक्रम का यहां ज़िक्र करना बेहद जरूरी है। दरअसल यह मेक इन इंडिया कार्यक्रम भारत में निवेश प्रोत्साहन का ही कार्यक्रम था। परंतु सैद्धांतिक व भावनात्मक रूप से यह एक सच्चा अभियान आखिर अपने पांच साल बीतने के बावजूद भी देश में मैन्युफैक्चरिंग क्रांति लाने या देश में आयातों के स्थानापन्न उद्योगों को मजबूत बनाने के मामले में देश को अभी भी तरसा रहा है, हमारे लिए यह अभी भी सपना सरीखा है। कहना ना होगा मेक इन इंडिया अभियान देश की नौकरशाही की नकारात्मकतावादी प्रवृति व भ्रष्टाचारपोषक व्यवस्था की शिकार हुई जिसकी वजह से इसे इच्छित परिणाम नहीं हासिल हुआ। चीन आज समूची दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब बनकर उभरा है, तो दूसरी तरफ  उसी के समकक्ष भारत में अभी आयात- निर्यात का असंतुलन और डालर के मुकाबले रुपये की निरंतर कमजोरी खत्म लेने का नाम ही नहीं ले रही है। बची-खुची गत नोटबंदी बना गई जिससे भारतीय अर्थ-व्यवस्था के मूल स्वरूप की स्वाभाविक  गतिशीलता एकदम से चारों खाने चित्त हो गई, जिससे भारतीय अर्थ-व्यवस्था का उबरना तो दूर उसके नुकसान का सिलसिला दीर्घकालीन स्वरूप ले चुका है। इसके उपरांत देश में लायी गई जीएसटी की नयी कर रिजीम की अपूर्ण संरचना ने भारतीय व्यवसाय प्रणाली को आगे बढ़ाने बजाए पीछे की ओर धकेल दिया है। फिलहाल नये निवेश प्रोत्साहनों से संभव है देश में नये निवेश का आगमन हो जाए, परंतु अर्थ-व्यवस्था पर इसका असर फौरी तरीके से नहीं पड़ने जा रहा है। नये निवेश के बाद नयी प्रोडक्शन असेंबली तैयार होने में न्यूनतम एक साल का समय लगेगा। यह सबको मालूम है नये निवेश करार हो जाते हैं परंतु उन्हें जमीन पर आने में बरसों लग जाते हैं। आंकड़े बतातें हैं कि निवेश के वास्तविक प्रवाह की मात्रा करार की रकम के मुकाबले साठ फीसदी से ज्यादा नहीं होती है। मोदी ने अमरीका में विदेशी निवेशकों के सामने अपने उदबोधन में कहा कि पिछले पांच साल में देश में 286 अरब डालर का विदेशी निवेश आया जो पिछले बीस साल के विदेशी निवेश के बराबर है।  परंतु उनका ये आंकड़ा महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि देश में आने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के जरिये देश में  ऑटोमोबाइल के अलावा कोई दूसरा सफल माडयूल नहीं बन पाया और ऑटोमोबाइल का  वह फल माडयूल भी अभी घोर मंदी की चपेट में है। कुल मिलाकर देश की अर्थ-व्यवस्था की आस अब इस माह से शुरू होने वाले त्योहारी सीजन पर टिकी है। शारदीय  नवरात्रि से शुरू होने वाले देश में त्योहारी सीजन जिसमें देश के विभिन्न इलाकों में दशहरा, दिवाली तथा तमाम अन्य देश-व्यापी स्थानीय त्योहारों के कुल डेढ़ महीने के दौरान जिसमें देश में भारी खरीददारी होती है, उस पर टिकी है।  बहुत लोग मानते हैं कि सप्लायर्स मार्केट में चीजें व सेवाएं सस्ती होने की वजह से वह कब बायर्स मार्केट का रूप ले ले, कहा नहीं जा सकता। यह बात हर जिंस पर  लागू होती  है। उम्मीद है कि त्योहारी सीजन में देश के मंद पड़े कारोबार व उद्योग एक नया टानिक पा ले और अर्थ-व्यवस्था की पूरी संरचना एक नयी गति पा ले । इसके अलावा अभी सबकी निगाहें रियल इस्टेट पर भी  हैं, जिसमे देशी व विदेशी निवेशक दोनों मौजूद हैं । इसमें जो नियमन का कदम लाया गया, वह बेहद जरूरी था परंतु अभी इसमें उद्योग व उपभोक्ता दोनो पक्षों की शिकायतें नियमित रूप से निपटायी जाएं तो यह सेक्टर पुन: गति पकड़ सकता है और एक साथ करीब तीन सौ उद्योगों को प्रभावित करने वाला यह उद्योग देश की इकोनामी का पुन: एक्सीलेटर बन सकता है।

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