सहज साख नीति मंदी से उभरने का एकमात्र उपाय क्यों ?

मोदी की चुनावी शासन पारी में पहले सौ दिन में विकास के सभी प्रतिमान नकारात्मक होते दिखायी दे रहे हैं। इस वर्ष की तीन तिमाहियों से आर्थिक विकास दर पांच प्रतिशत के गिर्द सिमट गई लगती है, जबकि पिछले वर्ष की पहली तिमाही में इसने आठ प्रतिशत के आंकड़े को छू लिया था। अपनी इस पारी में मोदी जी ने देश की सकल घरेलू आय को बढ़ा पांच बरस में वर्ष 2024 तक 5000 अरब डॉलर की अर्थ-व्यवस्था बना देने का सपना दिखाया है, और वर्ष 2030 तक दस हज़ार अरब डॉलर तक पहुंचने का लक्ष्य रखा है। इस समय देश की अर्थ-व्यवस्था की आय 2785 अरब डॉलर है। इसके साथ ही यह घोषणा भी की गई है कि अगले पांच बरस में किसानों की आय दुगनी कर दी जाएगी। अर्थ-शास्त्री बताते हैं कि इस लक्ष्य को पाने के लिए कम से कम बारह प्रतिशत अर्थ-व्यवस्था विकास दर चाहिए। एक विकसित और स्वत: स्फूर्त अर्थ-व्यवस्था प्राप्त करने के लिए देश को दस प्रतिशत विकास दर चाहिए। अगर देश को समावेशी विकास का लक्ष्य प्राप्त करना है, तो देश के हर हाथ को काम, हर सिर को छत और हर पेट को रोटी चाहिये, इसके लिए वर्ष 2022 तक देश कम से कम आठ प्रतिशत विकास दर अवश्य प्राप्त कर ले। आंकड़ा शास्त्रियों के अनुसार इस वर्ष की तीन तिमाहियों की उन्नति से पहले देश औसत सात प्रतिशत विकास दर प्राप्त कर रहा था, लेकिन इस वर्ष की पहली तीन तिमाहियों में यह विकास दर गिर कर पांच प्रतिशत के आस-पास सिमट गई। इससे पहले ऐसी अवस्था डा. मनमोहन सिंह काल के  वर्ष 2010 में हुई थी, लेकिन उस समय कारण अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारत के भुगतान शेष का अत्यंत प्रतिकूल हो जाना था, लेकिन इस बार यह आर्थिक दुरावस्था स्वदेशी मंडियों में मांग की कमी के कारण पैदा हुई है।
कारण यह है कि देश अपेक्षा के अनुसार नौकरी मांगते हुए नौजवानों के लिए रोज़गार पैदा नहीं कर पा रहा। इस समय देश में 11 करोड़ की खड़ी बेरोज़गारी है, जिसमें प्रति वर्ष लगभग सवा या डेढ़ करोड़ और लोग रोज़गार मांगने के लिए शामिल हो जाते हैं। इस समय देश की बेरोज़गारी की दर 6.1 प्रतिशत है, जो पिछले पैंतालिस वर्षों में सर्वाधिक है। देश के पांच बड़े क्षेत्रों में से चार गिरावट दिखा रहे हैं। देश के बुनियादी उद्योगों में उम्मीद से कहीं कम विकास दर, बुनियादी ढांचे का दावों के बावजूद नदारद रहना किसी प्रकार का पूंजी निर्माण नहीं होने देता। औद्योगिक क्रांति तो कभी इस देश में आई नहीं, केवल उसका सपना देखा गया। उत्तर भारत में पांच फसलों में छ: दशक में कृषि की हरित क्रांति आई थी, जो केवल बड़े किसानों को लाभ देकर दो दशक में दम तोड़ गई। तब पूर्वोत्तर राज्यों से दूसरी हरित क्रांति करने का सपना देखा गया। इसे सब फसलों तक और पूरे राष्ट्र तक बढ़ाना था। क्रांति शुरू ही नहीं हुई, लाभ क्या मिलता? यहां औद्योगिक विकास की गति एक तिहाई रह कर चार प्रतिशत कर सिमट गई, वहां कृषि का विकास लक्ष्य भी पांच प्रतिशत से पिछड़ कर तीन प्रतिशत तक रह गया। आम जन की हालत कैसे सुधरती? आर्थिक विकास की गति द्रुत करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का बोलोराम करके और मिश्रित अर्थ-व्यवस्था का मर्सिमा पढ़ कर 1990 से उदार व्यवस्था के नाम पर पूंजीवाद को विनिवेश के पिछले दरवाज़े से प्रोत्साहन दिया गया। विकास गति बढ़ाने के लिए गहन लघु और कुटीर लोगों का पतन होने दिया गया।  इसके बदले बड़े व्यावसायिक घरानों के पूंजी गहन निवेश को बढ़ावा मिलने लगा। आज सरकारी-निजी भागीदारी के नाम पर कार्पोरेट सैक्टर को खूब बढ़ावा दिया जा रहा है। यहां तक कि भारतीय रेलवे जैसे लाभप्रद सार्वजनिक उद्योग में निजी क्षेत्र से पहली तेजस गाड़ी शुरू कर दी गई, जिसका रेल कर्मचारियों द्वारा जगह-जगह विरोध हो रहा है। उधर देश में मंदी का जलवा है। ऑटो सैक्टर, निर्माण क्षेत्र से लेकर बिस्कुट उद्योग तक, आर्थिक बूस्टर के नाम पर एक लाख 46 हज़ार करोड़ रुपए की कर राहत मिलने के बावजूद, पटरी पर नहीं आ रहे। पहली बार रिज़र्व बैंक के सरप्लस में से सरकार ने एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ समय निकलवा लिया और उसका अधिकांश कर छूट के रूप में कार्पोरेट सैक्टर को बांट दिया। हालत फिर भी नहीं सुधरी तो सरकार और रिज़र्व बैंक ने अपनी इस नई मौद्रिक नीति की घोषणा में इस साल ऋण ब्याज दर को पांचवी बार घटा दिया। रैपो रेट में 025 प्वाइंट्स की कमी कर दी गई गई है, अब यह दर 5.19 प्रतिशत हो गई, रिवर्स रैपो रेट 4.9 प्रतिशत पर ठिठक गया। इस प्रकार इस एक साल में मौद्रिक नीति की घोषणाओं में ब्याज दर में 1.35 प्रतिशत की कमी कर दी गई है। पहले देखा गया कि रैपो रेट और ब्याज दर कम होने के बावजूद संबंधित बैंक रिज़र्व बैंक की नीति का पालन नहीं करते थे। अब रैपो रेट का परिवर्तन बैंकों की ऋण ब्याज दर से सीधा जड़ गया।  स्वत: ऋण ब्याज सस्ता होगा। लेकिन यह नहीं देखा गया कि यह ब्याज दर की कमी बैंकों की आय को घटाती है और इसकी लागत पूरी करने के लिए बैंकों को अपनी जमा ब्याज दरें भी घटानी पड़ती हैं। ब्याज घटने से निवेशक तो तत्काल अपना निवेश नहीं बढ़ाते,  क्योंकि उन्हें पूंजी की सीमान्त उत्पादकता एवं लाभ दर को भी देखना होता है, जो बढ़ नहीं रही। उधर जमा ब्याज देश के कम होने से बंधी आय पर जीने वाली जनता की आय और मांग कम हो जाती है, इस प्रकार निवेशक वातावरण यथा स्थितिवाद का शिकार हो जाता है। यही कारण है कि बार-बार ब्याज दर घटाने के बावजूद निवेश नहीं बढ़ता और देश मंदी की स्थिति से बाहर नहीं आता।