हरियाणा और महाराष्ट्र में कमज़ोर स्थिति में है कांग्रेस

हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव जीत-हार की संभावनाओं के विश्लेषण के अलावा एक अलग दृष्टि से भी अहम हैं। ये चुनाव दिखा रहे हैं कि लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच का समीकरण किस किस्म का है। अगर यही समीकरण आगे भी चलता रहा, और विपक्ष ने प्रयास करके इसके संतुलन में कोई परिवर्तन नहीं किया तो राष्ट्रीय राजनीति एक अभूतपूर्व दौर में प्रवेश कर जाएगी। एक ऐसे दौर में जो कांग्रेस के प्रभुत्व वाले वर्षों में भी नहीं देखा गया था। ध्यान रहे कि आज़ादी के बाद जब कांग्रेस अपने सभी चुनाव आसानी से और ज़बरदस्त बहुमत से जीत लेती थी, विपक्ष बहुत कमज़ोर था। सांगठनिक दृष्टि से विपक्ष के पास अखिल भारतीय संरचनाएं नहीं थीं। कांग्रेस और उसके नेतृत्व की साख राष्ट्रीय स्तर पर इतनी ऊंची थी कि जनता विपक्ष की दावेदारियों को सुनती तो थी, पर न उन पर ध्यान देती थी और न ही विपक्ष को किसी भी तरह से कांग्रेस का विकल्प मानने के लिए तैयार थी। लेकिन इस स्थिति के बावजूद आम जनता और सार्वजनिक जीवन के सोचने-समझने वाले लोग अपने कांग्रेसी रुझानों के साथ-साथ विपक्षी राजनीतिक संरचनाओं के प्रति सम्मान का भाव रखते थे। बार-बार हारने के बाद भी विपक्षी नेताओं का मनोबल गिरता नहीं था। उन्हें लगता था कि वे एक ऐसे नैतिक पायदान पर खड़े हुए हैं जहां उनकी और सत्तारूढ़ कांग्रेस की हैसियत तकरीबन एक जैसी ही है। मुझे लगता है कि ऐसी स्थिति कमोबेश 1984 तक कायम रही। उस चुनाव में कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत और संसद में विपक्ष की अत्यंत मामूली संख्या होने के बावजूद विपक्षी राजनीति की नैतिक चमक फीकी नहीं पड़ी थी। आज यह स्थिति बदल चुकी है। नरेंद्र मोदी की दूसरी जीत तुलना में राजीव गांधी की जीत के मुकाबले छोटी है, लेकिन मोदी के खिलाफ खड़े हुए विपक्ष के पास न रणनीति है, न मनोबल है और न ही उसका भविष्य संभावनापूर्ण लग रहा है। सबसे ज़्यादा दुख की बात तो यह है कि सार्वजनिक जीवन में विपक्ष की साख भी गिर गई है। जनता उसे भारतीय जनता पार्टी के साथ प्रतियोगिता करने वाली ताकत के रूप में देखने को तैयार नहीं है। मैं चाहता हूं कि मेरा यह अवलोकन ठीक न निकले। महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव के नतीजे दिखा दें कि मैं गलत सोच रहा था, और विपक्ष में अभी क़ाफी दम बाकी है। लेकिन क्या ऐसा होगा? 2014 में इन दोनों राज्यों में जब चुनाव हुए थे, उस समय न तो देवेंद्र फड़नवीस की महाराष्ट्र की राजनीति में कोई हैसियत थी (वे ज़्यादा से ज़्यादा नागपुर स्तर के नेता थे, और मराठा प्रभुत्व वाली राजनीति में एक ब्राह्मण जाति के नेता के तौर पर उनकी संभावनाओं की चर्चा तक नहीं थी), और न ही हरियाणा की जाट-प्रधान राजनीति में मनोहर लाल खट्टर की कोई उल्लेखनीय भूमिका थी (उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भीतरी हल्कों में जाना जाता था, राष्ट्रीय मंच पर भाजपा के जाट नेता कैप्टन अभिमन्यु हरियाणा में पार्टी का चेहरा थे)। भाजपा ने दोनों चुनाव मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किये बिना लड़े थे। जीतने के बाद मोदी ने दोनों राज्यों की राजनीति की स्थापित धारा के विरोध में जाते हुए इन दोनों को मुख्यमंत्री पद के लिए चुना। मुद्दतों बाद महाराष्ट्र को गैर-मराठा और हरियाणा को गैर-जाट मख्यमंत्री मिला। दोनों मुख्यमंत्रियों की डगर मुश्किल थी। फड़नवीस को एक तऱफ मराठा आंदोलन का सामना करना पड़ा, और दूसरी तऱफ पिछड़ी जातियों की मांगों का। मराठाओं की राजनीतिक नुमाइंदगी का दम भरने वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और स्वयं सरकार में भाजपा की सहयोगी शिव सेना ने फड़नवीस के लिए एक के बाद एक कठिनाइयां दरपेश कीं। खट्टर के लिए तो मुश्किलों की बाढ़ आ गई। जाटों ने भीषण कोहराम मचाया और दो-दो बाबाओं के साम्राज्य की कानून से टक्कर हो गई। इन सभी घटनाओं ने खट्टर की प्रशासनिक क्षमताओं पर ज़बरदस्त सवालिया निशान लगा दिया। हरियाणा के जाटों की भाजपा से नाराज़गी तो इतनी ज़बरदस्त थी कि 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनावों में वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा-विरोधी प्रचार करने के लिए मैदान में कूद पड़े। कठिनाइयों से भरे इन पांच सालों के बाद आज स्थिति क्या है? इस बार चुनाव स्पष्ट रूप से फड़नवीस और खट्टर के नेतृत्व में हो रहे हैं। भाजपा जनता से कह रही है कि उसे अपनी सरकारों के कामकाज पर दुबारा वोट चाहिए। कुछ महीने पहले सम्पन्न हुए लोकसभा चुनावों ने दिखा दिया है कि भाजपा को मिलने वाला जन-समर्थन किसी जाति या समुदाय के दायरे में सीमित नहीं है। हरियाणा में भाजपा के ऊपर आरोप लगाया जा सकता है कि उसने प्रदेश को जाट और गैर-जाट में बांट कर अपने लिए सत्ता सुनिश्चित की है। लेकिन, पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों ने दिखाया कि शुरुआती विरोध के बाद हरियाणा के जाट समाज ने खासी संख्या में भाजपा को वोट दिये। कहने का मतलब यह नहीं है कि विधानसभा में भी ऐसा ही होगा, लेकिन इससे एक तात्पर्य तो यह निकाला ही जा सकता है कि जाट समाज में भाजपा के प्रति अब वैसा विरोध नहीं रहा। उधर महाराष्ट्र में फड़नवीस ने भी न केवल शिव सेना के साथ गठजोड़ जारी रखने में कामयाबी हासिल की, बल्कि मराठा और ओबीसी समुदायों की भी एक हद तक हमदर्दी जीतने में सफलता हासिल की है। आज के हालात में यह सुरक्षित भविष्यवाणी की जा सकती है कि हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा एक बार फिर कामयाबी की तऱफ बढ़ रही है। विपक्ष क्या कर रहा है? वह कहां है? दोनों राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी है, लेकिन उसकी शक्तियां निराश हैं, उनके भीतर फूट है, रणनीति का अभाव है और समाज के विभिन्न वर्गों से उसके संबंध कमज़ोर हो चुके हैं। हरियाणा में कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से हुड्डा परिवार के हाथ में चली गई है। नतीजतन उसकी राजनीति हुड्डा बनाम अन्य हो चुकी है। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस फूट और अनिश्चितता की शिकार है। कांग्रेस आलाकमान राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद से दिशाहीन और संकल्पहीन है। पहली नज़र में देखने से ऐसा लगता है कि कांग्रेस एक बड़ी पराजय के अंदेशे का सामना कर रही है। विधानसभा चुनाव बहुत नज़दीक हैं। विपक्ष के पास अपने हालात सुधारने का कोई मौका नहीं है। लेकिन, इन चुनावों के तुरंत बाद उसे बिना देर किये इस काम में लग जाना पड़ेगा। समय किसी का इंतज़ार नहीं करता। कांग्रेस और अन्य पार्टियां भाजपा और उसके नेतृत्व द्वारा कोई बड़ी गलती करने का इंतज़ार करते नहीं रह सकतीं। संघ, भाजपा और मोदी की तिकड़ी ने दिखाया है कि वे रास्ता बदलने में माहिर हैं, और अपनी गलतियां सुधारने का बहुत बड़ा माद्दा उनके पास है। इसलिए विपक्ष को उनकी खामियों पर नहीं, अपनी खूबियों पर भरोसा करना होगा।