कश्मीर में बजती रहें सौहार्द की घंटियां

कश्मीर मेें 71 दिनों से बंद पोस्ट पेड फोनों की घंटियां बज उठी हैं। लोगों में गजब का उत्साह दिख रहा है, जिस कारण करीब-करीब सभी फोनों की घंटियां लगातार बज रही हैं। काफी दिनों के बाद सुनने को मिली ये घंटियां न सिर्फ  सुकून दे रही हैं बल्कि दुआ कर रही हैं कि अमन और सौहार्द की ये घंटियां बजती रहें। हालांकि अभी तक 40 लाख से ज्यादा पोस्ट पेड फोन सेवाएं ही शुरु की गई हैं। जबकि 20 लाख से ज्यादा प्री-पेड फोन सेवाएं अभी भी ठप हैं। लेकिन 14 अक्तूबर 2019 में दोपहर 12 बजे से पोस्ट पेड फोनों की बज रही घंटियां अगर शांति से बजती रहीं यानी अगर कश्मीर के लोगों ने शांति को अपनी जिम्मेदारी समझा तो अभी तक ठप 20 लाख प्री-पेड फोन भी जल्दी ही, बज उठेंगे। बहुत संभव है इसी हफ्ते से बजने लगें। 
लेकिन अगर कश्मीर के लोगों ने शांति बहाली में खुद की भूमिका निभाने से इंकार किया, तो मुश्किल के दिन और ज्यादा तथा लंबे हो सकते हैं। सरकार ने अपनी तरफ  से शांति और सौहार्द की बहाली के लिए हर किस्म का प्रयास किया है। यहां तक कि सरकार ने लोगों से विज्ञापनों और पोस्टरों के जरिये भी कश्मीर की स्थिति पर सीधे-सीधे और ईमानदारी से संवाद करने की कोशिश की है। मसलन- सरकार का एक विज्ञापन पिछले दिन छपा जिसमें कहा गया ‘दुकानें बंद, सार्वजनिक यातायात नहीं, किसको लाभ है? क्या हम मिलीटेंट्स के आगे घुटने टेक दें? सोचो! अब 70 वर्ष से अधिक हो गये हैं कि जम्मू-कश्मीर के लोगों को गुमराह किया जा रहा है।’’ 
सरकार ने साफ  शब्दों में कह दिया है कि जो लोग विरोधी अभियान व चालक प्रोपेगंडा का शिकार हो गये हैं, वे नहीं चाह रहे कि जम्मू कश्मीर में शांति आये और वह शांति को अशांति में बदलने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। मगर सरकार ने विज्ञापन और ऑनलाइन डिस्कशन के तमाम लचीले अभियानों के साथ-साथ यह भी स्पष्ट कर दिया है कि लोकतंत्र की बहानेबाजी से देश की एकता और अखंडता से समझौता नहीं किया जायेगा। जो लोग स्थिति को बिगाड़ने की कोशिश करेंगे, सरकार उनसे सख्ती से निपटेगी चाहे वे अलगाववादी हों या कोई और। सरकार ने आम लोगों तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए हाल में श्रीलंका में उठाये गये कई ठोस शांति संदेशों को अपने यहां भी विस्तार देते हुए आम लोगों से साफ  शब्दों में कहा है कि सरकार उन्हें दहशत, हिंसा, विध्वंस व गरीबी के अनंत चक्र से बाहर निकालेगी। 
केंद्र सरकार ने कश्मीर के आम लोगों को बताया है कि किस तरह अलगाववादी शिक्षा, कार्य व आय के लिए अपने बच्चों को विदेशों में अच्छी जगहों पर भेजते हैं, लेकिन आम जन को उकसाते हैं कि वह अपने बच्चों से हिंसा, पथराव व हड़ताल कराएं। उन्होंने लोगों को बहकाने के लिए दहशतगर्दों की धमकियों, जबरदस्तियों व गलत सूचनाओं का प्रयोग किया। आज धमकी व जबरदस्ती के उसी हथकंडे को मिलीटेंट्स इस्तेमाल कर रहे हैं। क्या हम इसे बर्दाश्त करेंगे? केंद्र सरकार ने 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त किया था और शटडाउन के ठीक 69वें दिन जम्मू-कश्मीर सरकार ने उक्त विज्ञापन के जरिये जनता से अपील की कि वह शटडाउन और पब्लिक ट्रांसपोर्ट कम्पनियों के चालकों द्वारा बायकाट का हिस्सा न बनें, उसका विरोध करें। 11 अक्टूबर का यह विज्ञापन कश्मीर की स्थिति को स्वत: ही व्यक्त कर देता है, इस पर कुछ अधिक कहने की शायद आवश्यकता नहीं है।
 बहरहाल, घाटी में विरोध प्रदर्शन का अनोखा तरीका देखने को मिल रहा है। अधिकतर बाजार सुबह को सिर्फ  चंद घंटों के लिए खुलते हैं और सुबह 9 बजे ही शटर डाउन हो जाते हैं। सिर्फ श्रीनगर में लाल चौक का पटरियों पर लगने वाला एक साप्ताहिक बाजार ही भारी सुरक्षा व्यवस्था में रोजाना लग रहा है। जबकि फिलहाल पब्लिक ट्रांसपोर्ट के तौरपर पंजीकृत लगभग 50,000 वाहन गैराज में ही खड़े रहते हैं। सरकारी कर्मचारियों व शिक्षा संस्थाओं के स्टाफ  को अपने कार्यालयों में पहुंचने के लिए निजी वाहनों का प्रयोग करना पड़ रहा है। अलगाववादी नेता इस स्थिति से काफी खुश हैं, उन्हें लगता है कि लोग अंतत: उनका समर्थन करेंगे। लेकिन अव्वल तो कश्मीरी ऐसा करेंगे नहीं, लेकिन अगर किया तो अपने पैरों पर अपने हाथ से कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा।
दरअसल जम्मू-कश्मीर में अब शांतिबहाली सिर्फ  सरकार की मंशा और अलगाववादियों की ताकत और मुकाबले का नतीजा नहीं होगा बल्कि यह इस बात से भी तय होगा कि कश्मीरी आखिर अपने लिए शांति, नयी पीढ़ी का भविष्य और मुख्यधारा में शामिल होकर जिंदगी जीने के बारे में क्या सोचते हैं? भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरीके से कश्मीर के मामले में कूटनीतिक मोर्चे पर डटे रहकर भारत की दृढ़ता और लक्ष्य स्पष्ट किया है, उससे हमारी कूटनीतिक स्थिति बेहतर हो चुकी है। दूसरी तरफ  पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान इस मामले में अपनी बचकानी हरकतों के कारण अपने ही लोगों की आलोचना का शिकार हैं। इन तमाम पहलुओं के मद्देनजर कश्मीर में फिलहाल शांति की उम्मीदें और जिम्मेदारी सबसे ज्यादा कश्मीरियों पर ही है। उम्मीद की जा रही है कि वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे, जिससे दो महीने बाद बजी संपर्कों की घंटी फिर से बंद होने के लिए मजबूर हो जाए।          
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर