अभिजीत बनर्जी, डुफ्लो एश्तर और माइकल क्रेमर गरीबी से जंग लड़ रहे अर्थ-शास्त्रियों को नोबेल पुरस्कार

इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार उन तीन नौजवान अर्थशास्त्रियों को संयुक्त रूप से दिया गया है,जो दुनिया में गरीबी कम करने के लिए विभिन्न किस्म के प्रायोगिक प्रयासों में लगे हुए हैं। ये तीन अर्थशास्त्री हैं-मैसाचुसेट्स इंस्टीच्यूट ऑफ  टैक्नोलॉजी (एमआईटी) में पढ़ाने वाले भारतीय मूल के अमरीकी अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी और उनकी फ्रें च अमरीकन पत्नी एश्तर डुफ्लो तथा हार्वर्ड में विकासशील अर्थशास्त्र के प्रोफैसर माइकल क्रेमर। इन तीनों लोगों ने दुनिया के करीब 70 करोड़ गरीब लोगों की ज़िंदगी को बेहतर बनाने के लिए सैकड़ों तरह के प्रायोगिक मॉडल विकसित किये हैं,जिनमें से दर्जनों मॉडल दुनिया के अलग-अलग देशों में इस्तेमाल हो रहे हैं। अभिजीत बनर्जी के एक मॉडल का स्कूली शिक्षा में इस्तेमाल करने से भारत में 50 लाख से ज्यादा गरीब दिव्यांग बच्चों को सीधा लाभ हुआ है। इससे  दिव्यांग बच्चों की स्कूली शिक्षा की व्यवस्था को बेहतर बनाया जा सका है। इन तीनों अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र को देखने और समझने का तरीका बदल दिया है। इन्होंने इकोनॉमिक्स को केवल थ्योरी के तौर पर किताबों और बड़ी बड़ी बातो में नहीं रखकर गरीबों तक ले गए हैं। खुद इसे
एक जन अभियान भी बनाया। नोबेल कमेटी के मुताबिक इन्हीं तीनों अर्थशास्त्रियों द्वारा स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए विकसित भारी मात्रा वाले सब्सिडी मॉडल को कई देशों में लागू किये जाने से इन देशों के स्वास्थ्य क्षेत्र में व्यापक सुधार देखा गया है। अपने प्रयोगमूलक शोध की बदौलत माइकल क्रेमर और उनके सहयोगियों ने अफ्रीकी देश केन्या में साबित किया है कि स्कूल का परिणाम सुधारने में प्रयोगमूलक शोध कितना कारगर हो सकता है। इसके तहत फील्ड में शोध के दौरान इस बात का परीक्षण किया गया कि चीज़ों के लागू करने का कितना असर पड़ता है। अपने इन प्रयोगों के लिए अभिजीत बनर्जी ने वर्ष 2003 में डुफ्लो और सेंडिल मुल्लाइनाथन के साथ मिलकर ‘अब्दुल लतीफ जमील पावर्टी एक्शन लैब’ फाऊंडेशन की स्थापना की। गरीबी उन्मूलन की दिशा में कार्यरत इस फाऊंडेशन के वह निदेशकों में से एक हैं। उनके इस फाऊंडेशन ने पूरी दुनिया को गरीबी उन्मूलन का वैज्ञानिक रास्ता क्या हो सकता है, यह बताने और दिखाने की कोशिश की है। 
अभिजीत और डुफ्लो का कोलकाता स्थित बंधन बैंक से भी रिश्ता रहा है। ये दोनों इस बैंक से साल 2011 में तब जुड़े थे, जब यह स्माल माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशन था। पिछले 10 सालों में भारत में करीब 28 करोड़ लोग गरीबी के दायरे से बाहर आए हैं। इन लोगों को गरीबी से बाहर निकालने वाले विभिन्न प्रयासों में अभिजीत और डुफ्लो के तमाम अध्ययनों और मॉडलों का योगदान रहा है। भारत गरीबी के वैश्विक सूचकांक (एमपीआई) में अगर तेजी से नीचे आया है तो उसमें इन दोनों के विभिन्न अध्ययन मॉडलों की भी भूमिका रही है। हालांकि यह विषयांतर लगेगा लेकिन भारत में नोबेल पुरस्कार विजेताओं और उनमें से ज्यादातर का बंगाल कनैक्शन एक ऐसा विमर्श खड़ा करता है, जिसे लेकर हमारे अपने देश में वैचारिक खेमेबाजी है। गौरतलब है कि अमर्त्य सेन को उनके आर्थिक विकास में मानव विकास की प्रमुखता की थ्यौरी पर नोबेल मिला पर जगदीश भगवती ने उन पर इस थ्यौरी के जरिये बाजार उपेक्षा का आरोप लगाया। हकीकत ये है नोबेल पुरस्कार अब थ्यौरी पर नहीं बल्कि संस्थाओं द्वारा जनहित में किये गए काम पर ज्यादा निर्भर हो रहे हैं। बांगलादेश के अर्थशास्त्री और ग्रामीण बैंक के संस्थापक मोहम्मद यूनुस जिन्होंने वित्तीय समावेशीकरण का बांगलादेश में महती कार्य किया, उन्हें भी नोबेल पुरस्कार दिया गया। हालांकि अभिजीत की अकादमिक पृष्ठभूमि का सारा श्रेय पश्चिम बंगाल को देना गलत होगा क्योंकि उनका अकादमिक सफ र विश्वव्यापी है। महाराष्ट्रीयन मां और बंगाली पिता के पुत्र अभिजीत मुंबई में स्कूली शिक्षा, कोलकाता के आइकन कालेज प्रेसीडेंसी
से स्नातक, जेएनयू से एमए तथा हार्वड से पीएचडी और प्रिंसटन अमरीका में तीन साल का अध्यापन का कार्य के साथ-साथ हार्वड में एक साल का अध्यापन और फि र 1993 से फोर्ड फाऊंडेशन द्वारा संचालित एमआईटी में लगातार अध्यापन कार्य कर रहे हैं। लेकिन उनके इस सफ र में सबसे महत्वपूर्ण साल 2003 है जब उन्होंने अपनी पत्नी डुफ्लो तथा एक और भारतीय शिकागो विश्वविद्यालय के सेंडिल मुल्लाइनाथन के साथ मिलकर अब्दुल लतीफ  जमील पोवर्टी एक्शन लैब की स्थापना की। यह संस्था दुनिया के करीब अस्सी देशों में स्थानीय स्तर पर निर्धनता निवारण के कार्यक्रमों के कई खुलासे कर चुकी है। ये ऐसे खुलासे रहे हैं जो किसी भी आर्थिक विचारधारा विशेष के खाटी समर्थकों में से किसी को भी वैचारिक तरीके से नहीं लुभाती। इन्होंने ऐसी वस्तु स्थिति सामने प्रकट की है जो सरकारों और उनकी स्थानीय मशीनरी की कमजोरी तो इंगित करती ही हैं साथ-साथ ये कई स्थापित मिथकों को भी तोड़ती हैं। मिसाल के तौर पर उन्होंने साबित किया है कि अंतर्राष्ट्रीय मदद ज़रूरी नहीं की वह अविकसित देशों के निवासियों को वास्तव में उनके उत्थान का वाहक बने। उनके सर्वेक्षणों से ऐसा जाहिर नहीं हुआ। अभिजीत बनर्जी और डुफ्लो जो निर्धनता निवारण विषय की ही प्राध्यापिका हैं, उन्होंने भारत में स्वास्थ्य, शिक्षा, माइक्रो फायनेंस तथा कृषि के क्षेत्र में अपने कई स्थानीय सर्वेक्षण के जरिये चौंकाने वाले परिणाम दिये हैं।  इन्होंने अपने एक शोध अध्ययन में पाया कि धुएं रहित चूल्हों का ओडिशा राज्य में जो वितरण हुआ महिलाओं ने बाद में उसका उपयोग करना बंद कर दिया। इसी तरह उन्होंने पाया कि गुजरात के बड़ौदा के प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों को स्कूली क्लास के अलावा जब निजी ट्यूशन दिया गया तभी उनके सीखने का
स्तर उन्नत हो पाया। इसी तरह इन्होंने राजस्थान में पाया कि टीकाकरण अभियान तभी सफ ल हुआ जब इसके कैंप सतत अंतराल में आयोजित किये गए और उन्हें इसके लिए प्रोत्साहन भी प्रदान किये गए।