हां, मैंने मुखबिरी की है!

उसने अपनी आटोमैटिक गन मुझे पकड़ा दी जबकि उसकी मैग्ज़ीन अपने पास बैग में रख ली थी। अपना वैब्ले स्कॉट रिवाल्वर भी उसने अपने पास रखा। उसने यह तो नहीं बताया कि कहां और किधर जाना है, परन्तु मकान को ताला लगाने के बाद उसने मुझे अपने पीछे आने को कहा।  एक लम्बा पहाड़ी जंगल पार करने के बाद पहली बार दूर से कुछ मकान दिखे थे... बकरवालों की बस्ती थी शायद। हम वहां पहुंचे, तो वानी को उम्मीद से कम तव्वजो मिलते देख कर मुझे हैरानी भी हुई थी। वानी से दो-तीन लोगों ने अलग होकर ग़ुफ्तगू की, तो मैं डर भी गई थी। मगर सच, कुछ तो हुआ था जो कि माहौल में कुछ धुआं-धुआं-सा था। इधर आकर मैंने जाना था, कि जब भी ऐसा गुप-चुप वाला माहौल बनता है, तो अपने आप हवाओं में कुछ धुआं-धुआं-सा महसूस होने लगता है। वानी जब मेरे पास आया, तो उसका वतीरा भी कुछ ऐसा ही था—धुआं-धुआं-सा... जैसे कहीं कुछ आग है तो सही। मुझे भी ऐसा ही लगा था—शायद अम्मी ने किसी बड़े अफसर से रसाई कर ली हो। ... शायद हिन्दुस्तानी फौज तक जा पहुंची हो बात! ...शायद फौज या नीम फौज के जवानों की आमद-ओ-रफ़्त हुई हो इस तरफ। यह तौखला भी मन के भीतर उठा कहीं से, कि  वानी को यदि शक हो गया, तो वह कहीं पर भी गोली मार कर मुझे किसी खड्ड में फैंक सकता है, नदी में बहा सकता है। किसी को पता भी नहीं चलेगा। वानी ने यह भी बताया—इधर हिन्दुस्तानी फौज की कुछ नकल-ओ-हरकत हुई है। दो-एक जीपों के क़ािफले गुज़रे हैं इधर से। अब मैं समझ गई, वानी इतना गुस्से में क्यों था। वानी ने यह भी कहा, कि रात को हम यहां नहीं रहेंगे..खतरा है। कहीं और ठिकाना करेंगे, किसी खुफिया जगह पर। वानी ने खाना भी  नहीं खाया। गोश्त उसने किसी वाक़िफकार के घर भेज दिया और अपने लिए थोड़ा सूखा गोश्त लेकर बैग में रख लिया। रात का अन्धेरा जब थोड़ा और फैलने लगा, तो हम फिर चल पड़े थे... उस तरफ जिसकी मंज़िल का मुझे पता नहीं था। हमारे आगे-आगे एक और शख़्स चल रहा था। उसके हाथ में बैटरी थी। करीब
आधा-पौन घंटा चलने के बाद जिस जगह हम पहुंचे, वह कोई बंकर जैसी जगह थी। वह आदमी पहले अन्दर गया, और लैम्प की रोशनी कर के बाहर आ गया। फिर हम दोनों अन्दर गये। भीतर काफी खुली जगह थी। एकाएक वानी ने उठ कर मेरी पीठ पर ज़ोर से लात मारी, जिससे मैं मुंह के बल नीचे जा गिरी। मेरे मुंह से एक लम्बी चीख निकल गई। वानी ने आगे बढ़ कर मेरा मुंह दबा दिया और मेरे सिर का निशाना लगा कर बंदूक तान दी—साली, मुखबिरी की है तूने! किसने ़खबर दी हिन्दुस्तानी फौज को। मार खा कर मैं और भी चुप हो गई थी। मैं उसकी आंखों में आंखें डाल कर उसे देखती रही। वह और भी गुस्से में हो गया। उसने बड़े वहशियाना तरीका से मुझे पीटना शुरू कर दिया—कभी घूंसों से, थप्पड़ों से... कभी बन्दूक के बट से, कभी रिवाल्वर के हट से। मेरे मुंह और सिर से खून निकला था। उसने फिर भी रहम नहीं किया मुझ पर। वह शराब पीता गया, और मुझ से मार-पीट करता गया। मैं मार सहती रही, परन्तु भीतर से पत्थर-दिल बनती गई। आखिर वह थक गया। उसे शायद भूख भी लगी थी। उसने थोड़ी और शराब गिलास में डाली, परन्तु पीने से पहले उसने थोड़ी शराब मेरे लबों पर  भी डाल दी जहां से ़खून बह रहा था। साथ-साथ वह खाता भी जा रहा था। अचानक उसने खींच कर मेरे कपड़े उतार दिये। फिर नंगे बदन मुझे लात-घूंसों से बड़ी देर पीटता रहा... शायद मेरी तरह उसे भी इल्हाम हो गया था, कि कुछ होने वाला है। वह मुझे मारता जाता, और साथ-साथ चीखने लगता—मुखबिरी की है तूने... मुखबिरी की सज़ा जानती हो, मौत होती है। तुझे सज़ा मिलेगी। मुझे मारते-मारते उसने अपने कपड़े भी उतारे, और फिर लगातार दो  बार थोड़ी-थोड़ी देर बाद मेरे साथ जिस्मानी ताल्लुकात भी बनाये। मैं चुपचाप पड़ी रही। मैं रोई नहीं। मैंने उसका मुकाबला भी नहीं किया। जब मैं रो-रो कर थक गई, तो फिर यकायक एक झटके के साथ मैं उठ भी गई। मैंने जल्दी-जल्दी कपड़े पहने, फिर बूट भी कस लिये। मेरी आंखें आग जैसे जलने लगी थीं। मैंने अपनी वर्दी की जीन्स पर बैल्ट बांधी और बैल्ट में रिवाल्वर ठूंस लिये.... दोनों तरफ। मैंने उसकी गन भी उठा ली थी। गन चलाना तो मैं पहले से ही सीख चुकी थी। फिर मैं नीम बेहोश वानी के पास जाकर खड़ी हो गई। एकाएक मैं अपनी दोनों टांगों को उसके जिस्म के आर-पार दोनों ओर कर के तन कर खड़ी हो गई। मैंने पहले पूरे ज़ोर से एक लात उसकी बाईं पसली पर मारी, फिर दूसरी पसली पर भी ऐसे ही वार किया, और फिर बंदूक की नली उसकी छाती पर टिका दी थी... पूरी ताकत के साथ। मेरी आंखों से अंगार फूटने लगे थे। मेरे जिस्म का ताप भी बढ़ गया था। मेरे चेहरा लाल सुर्ख हो गया महसूस होने लगा था। मैं पूरे ज़ोर से अपना दायां पांव उसके पेट पर मारते हुए चीखी थी—उठ... मसरूर वानी! ...और सुन भी ले। ...हां, मैंने मुखबिरी की है। मैंने ही दी है ़खबर फौज को... तेरे यहां होने की।  देख, मैं तेरी मौत बन कर तेरे ऊपर खड़ी हूं। उठ... मरदूद, मूए मसरूर वानी! मेरी ज़िन्दगी को दोजख की आग में जला दिया तूने। ले देख, मैं तुझे आज़ादी-ए-कश्मीर देने आई हूं... हरामज़ादे, तुझे कश्मीर नहीं... नर्क दूंगी मैं।
पेट पर पड़ी लात से थोड़ा बिलबिलाते हुए वानी ने आंखें खोली थीं, परन्तु माजरा देख कर वह भी हैरान हुआ होगा। दो-चार लम्हात तक उसने मेरी ओर लगातार देखने की कोशिश की, परन्तु इससे पहले कि वह कोई हरकत करता, या कर पाता... मैंने उसी की आटोमैटिक गन का पूरा बर्स्ट उसकी छाती में उतार दिया। खून के छींटे उसकी छाती से उछल कर मेरे चेहरे पर भी पड़े थे। ़खून की कुछ लकीरें लैम्प की रोशनी में मेरे पैरों की ओर बढ़ती दिखी थीं मुझे। मरदूद वानी हरकत भी नहीं कर सका था।  मेरे हाथों में फिर जुम्बिश हुई और मैंने अपनी कमर-बैल्ट से रिवाल्वर निकाल कर उसके पेट में सारी गोलियां उतार दीं। पता नहीं, कितनी देर मैं ऐसे ही खड़ी रही होऊंगी। मेरी टांगें जवाब देने लगी थीं। मैं थक गई थी। मैंने गन और रिवाल्वर दोनों पांव की ठोकर से एक ओर कर दिये, और स्वयं एक कोने में घुटनों को सामने की ओर, मुंह की जानिब करके बैठ गई। बैठे-बैठे शायद मेरी आंख लग गई होगी, और मेरी यह आंख तब खुली जब बंकर के बाहर मुझे कुछ नकल-ओ-हरकत महसूस हुई। फिर भी, मैं न तो हिली, न ही मैं डरी। मैं वैसे ही बैठी रही। मैंने देखा—एक जवान रेंगते हुए आगे बढ़ा था। उसके हाथ में हथियार था। मुझे देख कर वह पहले वहीं रुक गया था, मगर मेरी हालत, वहां बिखरे जमे हुए ़खून, और सामने पड़ी वानी की लाश को देख कर शायद उसे सारा माजरा समझ आ गया होगा। उसने इशारे से मुझे अपने हाथ ऊपर उठाने को कहा था, परन्तु मैं इतनी ़ख़ौफज़दा और थक चुकी थी कि मैंने हाथ ऊपर उठाने की बजाय अपने मुंह को दोनों हाथों में ले कर अपने घुटनों में दबा लिया था। 
मेरे होश-ओ-हवास खोते जा रहे थे... और फिर मैं बेहोश हो गई थी। इसके बाद क्या हुआ, अब यह सब तो आप बेहतर जानते हैं। इतना कह कर उसने एक बार फिर अपना मुंह वैसे ही, अपने दोनों हाथों में छिपा लिया था। हमने इशारे से उसकी मां को बुलाया था और उसे अपनी बेटी से हमदर्दी से पेश आने को कह कर, सभी अफसर और मुलाजिम उस हॉल कमरे से बाहर आ गये थे।