ज़रूरी है महिला के प्रति मानवीय चेतना

इसी साल के सितम्बर अंत के करीब (सितम्बर 2019) की एक घटना ने झिंझोड़ कर रख दिया। घटना पंजाब के बठिंडा ज़िले की है। एक घर में दो बच्चियों को जन्म देने के सात घंटे बाद ही बच्चियों के नानी और मामा ने अस्पताल से ले जाकर नहर में फेंक कर मार डाला। कारण वही भ्रूण हत्या जैसा। बच्चियों को जन्म देने वाली महिला के यहां पहले ही दो बेटियां जन्म ले चुकी थीं। इसी वजह से मामा और नानी ने मिलकर बच्चियों की हत्या कर डाली। पुलिस ने दोनों आरोपी मां-बेटे को गिरफ्तार कर लिया है। दोनों के खिलाफ अस्पताल के डाक्टर के बयान पर केस दर्ज कर लिया गया है। जबकि बच्चियों की मां से झूठ बोल कर ही कार्रवाई की गई।
लगभग एक महीना पहले उत्तर प्रदेश के ब़ागपत की एक ़खबर के अनुसार वहां रहने वाली 17 वर्षीय लड़की की एक ट्रक ड्राइवर से शादी हुई थी। विवाह के एक महीने बाद उसे अपने भाइयों की पत्नी बनने को कहा गया। वे सभी मर्द बारी-बारी से उस लड़की के पति बनते थे। लड़की को यह सब स्वीकार नहीं था। इन्कार करने पर उसके साथ मारपीट हुई, दुष्कर्म हुआ। सोचा जाये तो इसकी वजह क्या है? यह सब इसलिए होता था, क्योंकि उस इलाके में लड़कियों की कमी थी। बागपत इस देश के उन हिस्सों में से एक बताया जाता है, जहां 2014 में संयुक्त राष्ट्र ने लैंगिक अनुपात की भयावह स्थिति के बारे में चेतावनी दी थी। 2011 की जन-संख्या आंकलन के अनुसार यहां 1000 लड़कों पर 856 लड़कियां बताई गईं। माना यह भी जा रहा है कि इन आठ सालों में यह अनुपात गिरावट की तरफ ही गया है। आठ सालों में यह अनुपात 700 यानि कि और भी खराब स्थिति में पहुंच गया है। कम  बेटियों के अनुपात का कुप्रभाव हरियाणा में भी काफी है। यहां के गांवों में मोल खरीदी पत्नियां काफी संख्या में हैं। यहां केरल की बेटियां काफी मात्रा में लाई जाती हैं। लाई गई स्त्रियों को न तो भाषा की जानकारी होती है न ही रिवाज़ों की। मजबूरी में किया गया उनका विवाह लड़कियों के लिए विवाह के नाम पर खानापूर्ति का साधन मात्र माना जाता है।
ध्यान रखने योग्य बात है कि इस देश में 1996 में ही पी.एन.डी.टी. एक्ट लागू हो चुका है और सरकार बालिका समृद्धि, धन लक्ष्मी और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसी योजनाएं बेटियों को सशक्त बनाने के लिए ही आरम्भ कर चुकी हैं। जबकि ज्यादा कुछ बदल नहीं रहा। बेटी को आज भी घर में पराया धन समझा जाता है। बेटी के जन्म पर लोहड़ी मनाना एक खबर बन जाता है जबकि ज़रूरत भेद खत्म करने की है। खबर का बनना इसलिए होता है कि वह एक असामान्य-सी बात समझी जा रही है। 
दिन-ब-दिन महिलाओं का जीवन संकटमयी हुआ है। घरेलू हिंसा, दुष्कर्म, यौन शोषण और अन्य कई प्रकार के उत्पीड़न का ज़हर उन्हें पीना पड़ता है। क्रूरता इतनी कि कई बार उन्हें सामूहिक दुष्कर्म का शिकार भी होना पड़ता है। सरकारें महिलाओं के लिए निडर, बेखौफ घूम सकने का दावा तो कर सकती है, परन्तु वस्तु स्थिति ऐसा वातावरण उपलब्ध करवाने में ज्यादा मदद नहीं कर पा रही। उनके लिए शिक्षा और नौकरियों के दरवाजे ज़रूर खुले हैं। अनेक महिलाओं ने इस सुविधा का लाभ भी उठाया है, जिससे उनके भीतर आत्म-विश्वास और सजगता का संचार हुआ है परन्तु उनका कार्य स्थल भी दूषित हवा से मुक्त नहीं है। प्रशासन और राजनीतिक दल स्त्री जाति के समर्थन में बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करते हैं, परन्तु व्यवहार में ऐसा समर्पण नहीं जो भेद-भाव को दूर कर सके। आरक्षण की बात बार-बार उठती है, परन्तु आरक्षण से भी अधिक ज़रूरी है। वह माहौल जिसमें उन्हें रहना-जीना पड़ता है। सांस्कृतिक चेतना सबसे ज़रूरी है जो बचपन से लेकर अंत तक काम आती है। उससे किसी भी प्राणी के साथ गलत व्यवहार नहीं करने की प्रेरणा मिलती रहती है। घरों में यदि आप बहनों-बेटियों के साथ सही व्यवहार करते हैं तो बाहर भी ज़रूरी है।