दुखों की अधिकता से मुक्ति

एक व्यक्ति हमेशा यही कहता रहता था कि वह संसार का सबसे दुखी व्यक्ति है। उसकी शिकायतों का कोई अंत नहीं था। एक दिन वो एक महात्मा जी से मिला और अपनी स्थिति बतलाई। महात्मा जी ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वो यही कहता रहा कि उसके दुखों की कोई सीमा नहीं। उसके दुख बाकी लोगों से अलग हैं। इतने अधिक दुखों के साथ उसका जीना ही संभव नहीं। जब बहुत समझाने पर भी उस पर कोई असर नहीं हुआ तो महात्मा जी ने उसे एक मुट्ठी नमक लाने को कहा। जब वह नमक ले आया तो महात्मा जी उस एक मुट्ठी नमक को एक गिलास साफ पानी में मिलाया और उसे नमक मिला पानी पीने को कहा। पानी का गिलास और नमक एक मुट्ठी! पानी कड़वा होना ही था। इसलिए वह व्यक्ति कोशिश करने के बावजूद एक-दो घूंट से अधिक पानी नहीं पी सका और उसे भी फौरन वापस निकाल दिया। इसके बाद महात्मा जी ने उस व्यक्ति को पास ही स्वच्छ पानी से भरपूर एक बड़ी सी विशाल झील के पास ले गए। वहां जाकर भी उन्होंने एक मुट्ठी नमक लिया और झील के पानी में डाल दिया। महात्मा जी ने उस व्यक्ति से झील का पानी पीने को कहा। उस व्यक्ति ने आसानी से भरपेट पानी पी लिया। पानी के स्वाद के बारे में पूछने पर उस व्यक्ति ने बतलाया कि पानी एकदम मीठा था और उस पर नमक का कोई असर हुआ ही नहीं। महात्मा ने समझाते हुए कहा कि हम सबके दुख और परेशानियां एक मुट्ठी नमक के समान ही होती हैं, लेकिन उनका अनुभव इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें कितने बड़े जल के पात्र में मिलाया जाता है। गिलास रूपी क्षुद्र पात्र के जल में मिलाने पर वे असहाय हो जाती हैं, लेकिन झील जैसे विस्तृत क्षेत्र की विशाल जल राशि में मिलाने पर वे अपना अस्तित्व खोकर महत्वहीन हो जाती हैं। यदि दुखों की तीव्रता के प्रभाव से मुक्त रहना है तो हमें अपने अस्तित्व बोध को विस्तृत करना होगा, उसे विराट बनाना होगा। जब हमारा अस्तित्व बोध विस्तृत हो जाता है तो हमारी उत्तरदायित्वों को वहन करने की क्षमता विकसित होकर हमारी समस्याओं को समाप्त कर देती है।

—सीताराम गुप्ता
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