ऐसा हो पश्चाताप

पश्चाताप भी कई तरह के होते हैं। उनमें से एक पश्चाताप स्वामी विवेकानंद जी ने ऐसे किया। जब स्वामी विवेकानंद जी ने संन्यास लिया तो वो भिन्न भिन्न स्थानों पर अधिकतर पैदल जाया करते थे। ऐसे ही एक बार पैदल यात्रा कर रहे थे कि रास्ते में एक आदमी को कुंए से पानी निकालते देखा और दूसरे आदमी को जल पीते देखा। उन्हें भी प्यास लगी थी। सोचा वो भी कुंए के पास जाकर जल पी लें। कुंए पर पहुंचकर विवेकानन्द जी ने पानी भरने वाले को कहा, ‘मुझे भी प्यास लगी है। थोड़ा जल मुझे भी पिला दो।’ कुंए से जल भरने वाले मनुष्य ने स्वामी जी की ओर देखा और हैरान हुआ कि इतने पवित्र साधु मुझ से जल मांग रहे हैं पर मैं उन्हें कैसे जल पिलाऊं, कुछ क्षण सोचता रहा। फिर अपने को संभालते हुए मधुर स्वर में बोला, ‘स्वामी, मैं छोटी जाति का हूं। मैं कैसे आपको जल पिला सकता हूं।’स्वामी जी भी छोटी जाति शब्द सुनकर ठुनक गये और बिना कुछ कहे वहां से चल पड़े। कुछ आगे पहुंचने पर उन्हें ध्यान आया कि यह जाति पाति क्या है। मैंने तो संन्यास लेते समय इन सब बातों का त्याग कर दिया था। फिर मेरी बुद्धि क्यों भ्रष्ट हो गई। उनकी सोई हुई बुद्धि जाग गई और उन्हें बहुत दु:ख हुआ कि मैंने इतना घिनौना काम कैसे कर लिया। उन्हें पश्चाताप करना था। उनके मन में आया कि वे वापिस उसी कुएं पर जायें और पानी भरने वाले से माफी मांग कर प्रार्थना करें कि मुझे वो पानी पिला दे। यह सोच कर वापिस कुएं की ओर चल दिये। वहां वही आदमी अभी पानी भर रहा था। उसे विनम्र प्रार्थना कर स्वामीजी ने कहा, ‘मुझे पानी पिला दो बहुत प्यास लगी है।’ उस आदमी ने उत्सुकतापूर्वक देखा और दोनों हाथ जोड़कर कहा, ‘स्वामी जी, मैं कैसे पानी पिलाऊं। मैं छोटी जाति का हूं।’ स्वामी जी ने कहा, ‘मुझे माफ कर दो। मुझसे गलती हुई। आप और मैं ईश्वर के पुत्र हैं, फिर छोटी बड़ी जाति क्या होती है? मैं उस समय भूल गया था, मैं मूर्ख था। मैंने आपकी बात पर विचार नहीं किया था। अब पहले मुझे जल पिलाओ’, ऐसा कहते हुए स्वामी जी की आंखें भर आईं। जल पीने के बाद स्वामी जी ने उसे गले से कई बार लगाया। इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने अपराध का पश्चाताप किया। 

-नीतू गुप्ता