अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला  

करीब 164 साल पुराने राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद ज़मीन विवाद में अंतत: भारत की सर्वोच्च अदालत ने एक ऐतिहासिक और संभावित संदर्भों में सबसे सकारात्मक फैसला सुना दिया है।  सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों वाली संविधान पीठ की अगुवाई करते हुए चीफ  जस्टिस ऑफ इंडिया रंजन गोगोई  ने 9 नवम्बर 2019 को पूर्व घोषणा के मुताबिक ठीक 10.30 बजे अपने सभी सहयोगियों के साथ फैसला सुनाना शुरू किया। सबसे पहले पाँचों न्यायाधीशों ने फैसले की कॉपी पर हस्ताक्षर किये। जिसका मतलब यह भी था कि फैसला सर्वसम्मति से सुनाया जा रहा है। इसके बाद पीठ की अगुवाई करते हुए चीफ  जस्टिस ने फैसला पढ़ना शुरू किया। न्यायाधीश गोगोई ने इस ऐतिहासिक फैसले के सार पाठ को लगभग 45 मिनट तक पढ़ा। उन्होंने अपने इस महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि 2. 77 एकड़ की विवादित जमीन राम लला विराजमान को दी जाय तथा मुस्लिम पक्ष को मस्जिद निर्माण के लिए अयोध्या में ही किसी उचित और महत्वपूर्ण जगह में 5 एकड़ की  वैकल्पिक जमीन आवंटित की जाए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया कि मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाया जाए और इसकी योजना 3 महीने में तैयार की जाए। इसमें यह भी कहा गया कि यह सरकार पर है कि वह इस ट्रस्ट में निर्मोही अखाड़े को रखे या न रखे। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और उत्तर प्रदेश की सरकारों  को मुस्लिम पक्ष के लिए 5 एकड़ की जमीन उपलब्ध कराने की भी समय सीमा 3 महीने ही निर्धारित की है।  8 नवम्बर 2019 को जब सुप्रीम कोर्ट ने यह घोषणा की थी कि 9 नवम्बर 2019 को यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया जाएगा, उस घड़ी से ही पूरे देश में सुरक्षा संबंधी रेड अलर्ट लागू हो गया था। हालांकि शनिवार का दिन होने के कारण तमाम स्कूल और कॉलेज यूं तो पहले से ही  बंद थे, फिर भी एहतियातन सभी स्कूलों और कालेजों में छुट्टी कर दी गयी थी। उत्तर प्रदेश सहित देश के कई संवेदनशील इलाकों में इंटरनेट सेवाएँ भी ठप्प कर दी गयी थीं।    मुख्य न्यायाधीश ने इस ऐतिहासिक फैसले को पढ़ते हुए कहा कि हम सर्व-सम्मति से फैसला सुना रहे हैं। इस अदालत को धर्म और श्रद्धालुओं की आस्था को स्वीकार करते हुए संतुलन बनाए रखना चाहिए। चीफ  जस्टिस के मुताबिक अदालत के लिए धर्म-शास्त्र में प्रवेश करना उचित नहीं होगा। लेकिन ढहाए गए ढांचे के नीचे एक मंदिर था, इस तथ्य की पुष्टि आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ  इंडिया (एएसआई) कर चुका है और उनके मुताबिक पुरातात्विक प्रमाणों को महज एक ओपिनियन करार दे देना एएसआई का अपमान होगा। हालांकि मुख्य न्यायाधीश ने यह भी माना कि एएसआई यह तथ्य स्थापित नहीं कर सका है कि मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाई गई। फैसले के मुताबिक विवादित जमीन रेवेन्यू रिकॉर्ड में सरकारी जमीन के तौर पर चिह्नित थी। इस ऐतिहासिक फैसले में यह भी कहा गया कि राम जन्मभूमि स्थान न्यायिक व्यक्ति नहीं है। लेकिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने भगवान राम के सम्बन्ध में कहा कि राम लला न्यायिक व्यक्ति हो सकते हैं। 
 फैसले की अपनी इस सार इबारत में न्यायाधीशों का यह ऑब्जरवेशन भी रहा कि विवादित ढांचा इस्लामिक मूल का ढांचा नहीं था। साथ ही यह भी कि बाबरी मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनाई गई थी। इस राय के पीछे भी एएसआई के सबूत थे, जिनसे पता चला था कि मस्जिद के नीचे जो ढांचा था, वह इस्लामिक ढांचा नहीं था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया कि हिंदू इस स्थान को भगवान राम का जन्मस्थान मानते हैं। साथ ही मुस्लिम भी इससे इन्कार नहीं करते। विवादित जगह के बारे में यह धारणा निर्विवाद है। मुख्य न्यायाधीश ने  सुनाये गए अपने फैसले के मुख्य अंशों में कहा कि प्राचीनकाल में विदेश से भारत आये यात्रियों ने भी इस बात का उल्लेख किया है कि अयोध्या राम जन्म भूमि मानी जाती है। विदेशी यात्रियों की लिखी किताबों और ग्रंथों को भी कोर्ट ने अपने इस फैसले तक पहुँचने का महत्वपूर्ण साधन माना है।  सर्वोच्च अदालत ने इनके लिखे हुए दस्तावेज़ों को एक महत्वपूर्ण साक्ष्य के तौरपर पेश किया है। फैसले के मुख्य पाठ में कहा गया है कि विदेशी यात्रियों के संस्मरण इस बात को दर्शाते हैं कि अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि रही है। इसी तरह ऐतिहासिक उदाहरणों से भी संकेत मिलते हैं कि हिंदुओं की आस्था में अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि रही है। हालांकि कोर्ट ने फिर इस बात को उद्धृत किया कि आस्था से मालिकाना हक तय नहीं किया जा सकता।  लेकिन कोर्ट ने इस बात का भी संज्ञान लिया कि ढहाया गया ढांचा ही भगवान राम का जन्मस्थान है, हिंदुओं की इस संबंध में आस्था निर्विवादित है।  इस तरह पौने दो-दो सदी से लंबित इस मामले को एक निर्र्णय तक पहुँचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जितना संभव था, वैज्ञानिक और ऐतिहासिक तथ्यों का सहारा लिया। उसके मुताबिक यह सबूत मिले हैं कि राम चबूतरा और सीता रसोई पर हिंदू अंग्रेजों के जमाने से पहले भी पूजा करते रहे हैं। रिकार्ड में दर्ज साक्ष्य बताते हैं कि विवादित जमीन का बाहरी हिस्सा हिंदुओं के अधीन था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले की बुनियाद में एएसआई और ऐतिहासिक साक्ष्यों के सामने धार्मिक संतानों के दावों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। इसलिए उसने 1946 के फैजाबाद कोर्ट के आदेश को चुनौती देती शिया वक्फ  बोर्ड की विशेष अनुमति याचिका को खारिज कर दिया। गौरतलब है कि शिया वक्फ  बोर्ड का दावा विवादित ढांचे पर था। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने निर्मोही अखाड़े का दावा भी खारिज किया। निर्मोही अखाड़े ने जन्मभूमि के प्रबंधन का अधिकार मांगा था। मालूम हो कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2010 में विवादित जमीन को 3 हिस्सों में बांटने के लिए कहा था। उसके फैसले के मुताबिक 2.77 एकड़ का क्षेत्र तीन हिस्सों में समान रूप से बांट दिया जाए और एक हिस्सा सुन्नी वक्फ  बोर्ड, दूसरा निर्मोही अखाड़ा तथा तीसरा राम लला विराजमान को मिले। लेकिन हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ  सुप्रीम कोर्ट में 14 याचिकाएं दाखिल की गई थीं। इसलिए यह फैसला उन 14 याचिकाओं को संबोधित था। बहरहाल इस ऐतिहासिक फैसले और इसी दिन करतारपुर गलियारे के उदघाटन के मद्देनजर यह कहा जा जा सकता है कि 9 नवंबर 2019 इतिहास की कुछ उन गिनी-चुनी तारीखों में से एक हो गया है, जिन्हें इतिहास में सबसे महान तारीखों के रूप में याद रखा जाता है ।


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