सतगुरु नानक प्रगटिआ, मिटी धुंध जग चानण होआ

सिख धर्म के संस्थापक जगतगुरु नानक देव जी का जन्म राय भोए दी तलवंडी, वर्तमान समय में शेखुपुरा (पाकिस्तान) ननकाना साहिब के नाम से प्रसिद्घ स्थान पर कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ था। पिता मेहता कालू राय बुलार के मुख्य लेखाकार थे व माता तृप्ता जी एक धार्मिक विचारों वाली साधारण महिला थीं। जिस समय उनका अवतरण हुआ, घोर कलयुग का पहरा था। हर तरफ अधर्म का बोलबाला था; समाज अज्ञानता व अंधविश्वास में जकड़ा हुआ था; लोभ तथा पाखण्ड पांव पसारे हुए थे; अन्याय, अत्याचार व भ्रष्टाचार  अपनी चरम सीमा पर थे। रक्षक भक्षक बन बैठे थे; बाड़ ही खेत को खा रही थी। ‘बाबा देखे ध्यान धर, जलती सब पृथ्वी दिस आई’ (भाई गुरदास जी)।  गुरु नानक देव जी एक अद्भुत प्रतिभा व विलक्षण, गहन तथा तार्किक सोच के स्वामी थे। वह आडंबर व पाखण्ड के घोर विरोधी थे। 9 वर्ष  की आयु में जनेऊ धारण करवाने की रस्म अदा करवाने आए पंडित हरदयाल से उन्होंने कहा कि वह ऐसा जनेऊ धारण करना चाहते हैं जो दया, संतोष, जत-सत से निर्मित हो व जो न तो जले और न ही कभी मैला ही हो। 13 वर्ष की आयु में वे संस्कृत व फारसी भाषा के ज्ञाता हो गए थे व 16 वर्ष के होते-होते वह एक तेजस्वी विद्वान के रूप में लोकप्रिय हो चुके थे। बचपन से ही वह प्रभु-भक्ति में लीन रहते थे। सांसारिक कार्यों में उनकी रुचि जगाने हेतु पहले उन्हें भैंसें चराने का काम सौंपा गया। वह ध्यान में लीन हो जाते तो भैंसें लोगों के खेत उजाड़ देतीं और पिता कालू को उलाहनों का सामना करना पड़ता। पिता ने कृषि-कार्य करवाने की चेष्टा की किंतु उसमें भी गुरु नानक जी ने कोई रुचि नहीं दिखाई। पिता ने बीस रुपए देकर व्यापार करने हेतु बाज़ार से सामान लाने भेजा तो उन्होंने वे रुपए मार्ग में भूखे साधुओं को भोजन करवाने में व्यय कर दिए। सांसारिक दायित्वों को निभाने की अपेक्षा से पिता ने उनका विवाह बटाला के श्री मूलचंद की सुपुत्री बीबी सुलक्खणी जी से करवा दिया जिनसे उन्हें श्रीचंद व लखमीचंद, दो पुत्र प्राप्त हुए। रोजी-रोटी कमाने के लिए नानक जी को बीबी नानकी जी के पास सुल्तानपुर लोधी भेज दिया गया जहां उनके बहनोई जै राम जी ने उन्हें सुल्तानपुर लोधी के नवाब दौलत खां लोधी के मोदीखाने में नौकरी दिलवा दी। लेकिन यहां भी जब तोल तेरह पर पहुंचता तो वह ‘तेरा-तेरा’ कहते हुए सर्वशक्तिमान परमात्मा के ध्यान में लीन हो जाते। एक बार बेईं नदी में स्नान हेतु गए तो वापिस न लौटे। तीन दिन तक समाधिस्थ रहने के पश्चात जब वह सुल्तानपुर पहुंचे तो  एकता व भाईचारे का जो सशक्त स्वर उनके मुखारबिंद से निकला, वह था -‘न को हिन्दू, न को मुसलमान’।गुरु नानक जी ने ‘चार उदासियां’(यात्राएं) कीं जिनमें से प्रत्येक की अवधि इतिहासकारों द्वारा 12 वर्ष व पदयात्रा का कुल स़फर लगभग 84 हज़ार मील बताया है। इन उदासियों का उद्देश्य संसार में फैली अज्ञानता, व अंधविश्वासों से लोगों को मुक्ति दिलाकर निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान ईश्वर से जोड़ना था। जात-पात, मज़हब, वर्ण-व्यवस्था के झगड़ों से ऊपर उठाकर उन्हें मानवता की सीधी-सच्ची राह दिखाना था। इन उदासियों में रबाबी भाई मरदाना जी उनके साथी बने। उन्होंने दक्षिण में श्रीलंका तक, पूर्व में आसाम तक, उत्तर में कश्मीर तक व पश्चिम में सोमनाथ तक यात्रा की। हिन्दू तीर्थ-स्थानों की यात्रा के साथ-साथ वह मक्का-मदीना, बगदाद भी गए। उन्होंने समाज को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए ‘लंगर-व्यवस्था’ का आरम्भ किया, जहां सभी बिना किसी भेदभाव के, इकठ्ठे बैठकर कर आपसी सद्भाव से भोजन ग्रहण करें। वह जात-पात, वर्ण-व्यवस्था, धर्मान्धता, बेईमानी, अत्याचार व अनैतिकता के सर्वथा विरोधी थे। एक महान अवतार होने के साथ-साथ वह उच्च कोटि के कवि भी थे। उन्होंने 19 रागों में बाणी की रचना की। उनके  द्वारा 947 शब्दों की रचना की गई।उदासियों के पश्चात उन्होंने रावी नदी के किनारे एक शहर बसाया जिसे ‘करतारपुर’ नाम दिया। अपना अंतिम समय करतारपुर साहिब में बिताते हुए उन्होंने भाई लहना जी को गुरुगद्दी सौंपी जो कालान्तर में गुरु अंगद देव जी के नाम से प्रसिद्घ हुए।  गुरु नानक देव जी एक महान क्रांतिकारी, समाज सुधारक व राष्ट्रवादी आध्यात्मिक जगतगुरु थे। उन्होंने एक नए तरीके से सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सच्चे अकाल पुरख के प्रवचन दिए। ईश्वर निरंकार है, ईश्वर आत्मा है, रचयिता है, अविस्मरणीय है, जन्म-मृत्यु से परे है, कालविहीन है, काल निरपेक्ष है, भयरहित है एवं कर्ता पुरख है। ईश्वर सब जानने वाला, अन्तिम सत्य, दाता, निर्वैर एवं सर्वव्यापी है। वह सतनाम, कभी न ़खत्म होने वाला, सदैव सत्य है। 

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