नोटबंदी के 3 वर्ष बाद कहां खड़ा है भारत का आर्थिक ढांचा ?

बिना व्यापक चर्चा के परिणामों पर पहुंचने का अमल किसी भी देश के बौद्धिक विकास के लिए ़खतरा हो सकता है। इस समय ज़रूरत चर्चा जारी रखने की है। तीन वर्ष पूर्व नोटबंदी के समय लिखे लेख में हमने चर्चा जारी रखने की बात की थी। परन्तु कहते हैं कि समय सबसे बड़ा मरहम होता है। उस मरहम के सदका नोटबंदी के प्रभावों को उभारते स्वर मद्धम होते-होते जैसे कहीं बंद हो गए थे। सरकार ने इसके हक में दिये जाने वाले स्पष्टीकरण बंद करने के बाद समय-समय पर अपने भाषणों में इस कदम को जायज़ ठहराने की कोशिश भी पूरी तरह से बंद कर दी है। परन्तु कई बार कुछ विशेष दिन न केवल जबरन अतीत में ले जाते हैं, बल्कि यह सोचने पर भी मज़बूर कर देते हैं कि, क्या उस समय लिया गया फैसला, सोचे गये ‘मापदंडों’ पर सही उतरता है या नहीं? 8 नवम्बर, 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रात को दिये अपने भाषण में अस्थाई समस्याओं को अनदेखा करके अखंडता और साख के जश्न में शामिल होते हुए, भ्रष्टाचार और काले धन की लड़ाई में शामिल होने का निमंत्रण दिया था। इस निमंत्रण के अचानक ऐलान द्वारा 500 और 1000 रुपए के नोटों पर पाबंदी लगा दी गई थी।
500 और 1000 रुपये के नोट जो उस समय चलने में करंसी का 86 प्रतिशत हिस्सा थे, को बंद करने के लिए दी गई दलीलों में इसको मुख्य तौर पर काले धन को खत्म करने के लिए उठाये कदम के रूप में पेश किया गया था। इसके अलावा जाली करंसी को खत्म करने और आतंकवादी कार्रवाईयों पर काबू पाने के लिए भी इसको लाभदायक करार दिया गया था। बाद में लगभग 6 माह तक दिये अलग-अलग स्पष्टीकरणों में इस आर्थिक ढांचे को पारदर्शी बनाने और नकदी रहित समाज बनाने की दिशा में की कवायद भी करार दिया गया था।
आज जब नोटबंदी के फैसले को 3 वर्ष बीत चुके हैं, एक बार अतीत पर नज़र दौड़ाते हैं कि, क्या वह फैसला, जिसने लगभग पूरा देश कतारों में खड़ा कर दिया था और लोगों को आर्थिक समस्याओं के जाल में फंसा दिया था, अपने निर्धारित मापदंडों पर ़खरा उतरा है?
काले धन पर लगाम
केन्द्र ने नोटबंदी को काले धन पर लगाम लगाने में उठाया कदम करार दिया था। आर्थिक ढांचे में काले धन के व्यापक प्रसार के मद्देनज़र कदम उठाना ज़रूरी भी है। जून 2019 में राजस्व संबंधी संसदीय स्थायी कमेटी द्वारा पेश की रिपोर्ट के अनुसार देश के भीतर और बाहर औसतन देश के कुल घरेलू उत्पादन (जी.डी.पी.) का 10 प्रतिशत हिस्सा काले धन के रूप में मौजूद है।
सरकार को नोटबंदी के कारण कम से कम 3 लाख करोड़ के काले धन पर अंकुश लगने की उम्मीद थी। परन्तु नोटबंदी के एक वर्ष बाद ही भारतीय रिज़र्व बैंक (आर.बी.आई.) के आंकड़े इस दावे को गलत साबित करते नज़र आए। आर.बी.आई. के अनुसार 8 नवम्बर, 2017 तक नोटबंदी अधीन लाई गई करंसी में से लगभग 99.3 प्रतिशत करंसी पुन: चलन में आ चुकी है। सर्वोच्च बैंक की 2018 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 15.41 लाख करोड़ की रद्द की गई करंसी में सिर्फ 10,720 करोड़ रुपए बैंकों तक नहीं पहुंचे जोकि नोटबंदी करंसी का सिर्फ (0.7) प्रतिशत हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक का 500 और 1000 रुपए के पुराने नोट रद्द करने और उनके बदले नए नोट छापने पर ही 13 हज़ार करोड़ रुपए का खर्च आया है। लागत और मुनाफे की अगर तुलना करके देखें तो लागत वाला हिस्सा नुकसान में ही नज़र आएगा।
इस स्थिति की चेतावनी उस समय भी कई अर्थ-शास्त्रियों द्वारा यह कहते हुए दी गई थी कि काले धन का सिर्फ 3 से 5 प्रतिशत हिस्सा ही नकदी की सूरत में रखा जाता है। जबकि अधिकतर भाव 95 प्रतिशत से अधिक काला धन, सम्पत्ति, बेनामी खातों, स्वर्ण और बाहरी देशों में निवेश के रूप में लाया जाता है। विश्व गोल्ड कौंसिल के अनुसार भारत में कुल घरेलू उत्पाद का 40 प्रतिशत हिस्सा भाव लगभग एक ट्रिलियन अमरीकी डॉलर स्वर्ण के तौर पर लोगों के पास है। काले धन के दूसरे बड़े कारण रियल एस्टेट के प्रति भी सरकार की कोई कारगर नीति अभी तक सामने नहीं आई।
नकदी रहित आर्थिक ढांचा
केन्द्र द्वारा नोटबंदी की वकालत नकदी रहित आर्थिक-व्यवस्था बनाने की दिशा में उठाये कदम के रूप में भी की गई थी। 3 वर्षों के बाद लोगों की नकदी तीव्रता का आंकड़ा 11 प्रतिशत तक पहुंच गया है, जोकि नोटबंदी से पूर्व के 15 वर्षों के औसत के लगभग समान ही है। आंकड़ों के अनुसार नवम्बर 2016 से सितम्बर 2019 के मध्य लोगों के पास करंसी की लगभग 133 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। इसका मुख्य कारण है कि लोग बचतों की वह नकदी, जो नोटबंदी के दौरान खत्म हो गई थी, को पुन: इकट्ठा करना शुरू कर चुके हैं और 2000 रुपए के नोट के कारण उनको ऐसा करने में मदद भी मिल रही है। वर्णनीय है कि 1000 रुपए के नोट को चलन से बाहर करने के पीछे यह दलील दी गई थी कि बड़ी करंसी, नकदी को स्टाक करने में मददगार होती है। परन्तु इस पहुंच के विरुद्ध कदम उठाते हुए 2000 रुपए का नोट शुरू करना सरकार के उद्देश्य पर प्रश्न-चिन्ह लगाता है।
आर.बी.आई. के आंकड़ों के अनुसार नवम्बर 2019 में जनता के पास 20.49 लाख करोड़ की नकदी थी, जोकि वर्ष 2018 के मुकाबले 13.3 प्रतिशत अधिक है। यह आंकड़ा दर्शाता है कि नकदी की ‘आर्थिक स्वतंत्रता’ को मानने वाले लोग, नकदी को स्थापित स्तरों पर पहुंचाने के इच्छुक हैं। नि:संदेह इन 3 वर्षों के दौरान डिजिटल लेन-देन में भी बढ़ोतरी हुई है। नोटबंदी के तुरंत बाद डिजिटल लेन-देन को ‘मजबूर’ हुए लोग, अब इसको अपना रहे हैं। परन्तु ़गैर-नकदी लेन-देन छोटे व्यापार तक ही सीमित हैं, जबकि बड़े लेन-देन के लिए अभी भी नकदी को ही प्राथमिकता दी जाती है।
2018 के एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2021 तक नकदी लेन-देन के मामले में भारत 2.45 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर का आंकड़ा कर लेगा जोकि 2016 में 1.5 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर से कहीं अधिक होगा। आंकड़ों के अलावा डिजिटल लेन-देन के क्षेत्र में विशेषज्ञों ने भी डिजिटलकरण को अपनाने का करार करते हुए इसकी और स्वीकृति के लिए लम्बे समय तक इंतज़ार करने की सलाह दी है।
जाली करंसी
सरकार द्वारा नोटबंदी के समर्थन में एक दलील जाली करंसी खत्म करने की गई है। परन्तु समय के साथ नए डिज़िटल की नई जाली करंसी पुन: बाज़ार में आई ही नहीं, बल्कि इसमें बढ़ोतरी हो रही है। आर.बी.आई. के अनुसार 2018-19 में नई किस्म के 500 रुपए के जाली नोटों में 121 प्रतिशत और 2000 रुपये के जाली नोटों में पिछले वर्ष के मुकाबले 21.9 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। ‘क्राइम इन इंडिया’ (2017) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार 2017 में 28.1 करोड़ रुपए की जाली भारतीय करंसी ज़ब्त की गई, जबकि पिछले वर्ष ज़ब्त की गई जाली करंसी 15.9 करोड़ रुपए की थी। नोटबंदी पर पूर्व प्रधानमंत्री और अर्थ-शास्त्री डा. मनमोहन सिंह ने इसको आर्थिक-ढांचे के लिए ़खतरनाक बताते हुए कहा था कि इससे भारत के आर्थिक विकास की दर में 2 प्रतिशत तक की कमी आएगी। ऐसी भविष्यवाणी भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और अर्थ शास्त्र में नोबल पुरस्कार विजेता भारतीय मूल के अभिजीत बैनर्जी ने भी की थी।
तीन वर्ष बाद नोटबंदी वाले दिन, 8 नवम्बर, 2019 को भारत के विकास दृष्टिकोण को एजेंसी मूडीज द्वारा  घटा कर नकारात्मक करना, चाहे इत्त़फाक हो सकता है परन्तु नोटबंदी के बाद आए आंकड़ों पर आंखें मूंद कर इसका समर्थन नहीं किया जा सकता।