रिश्तों की अहमियत को समझें

राहत इन्दौरी जी का एक शे’अर है: 
जितने अपने थे सब पराये थे,
हम हवा को गले लगाए थे।
रिश्ते सामाजिक व्यवस्था का मूल आधार होते हैं। रिश्ते हमें आपस में बांधे रखते हैं। हमारे रिश्ते जितने मज़बूत होते हैं, सामजिक ढांचा उतना ही मज़बूत बनता है। प्रेम संबंधों को सबल बनाता है। स्वस्थ संबंधों के लिए आवश्यक है कि हमारे बीच एक-दूसरे के लिए आदर तथा आपसी समझबूझ हो। एक-दूसरे के हित लिए अपने  निजी स्वार्थों का त्याग रिश्तों को दीर्घायु बनाता है। रिश्ते हमें बहुत कुछ देते हैं। आपसी प्रेम एवं सहयोग तथा एक-दूसरे के प्रति समर्पण की भावना हमें पूर्णता प्रदान करती है। एक रिश्ते को बनाये रखने का दायित्व उसमें सम्मिलित दोनों पक्षों का होता है। केवल एक पक्ष रिश्ते को नहीं बनाए रख सकता है। यदि एक व्यक्ति ही इस दिशा में प्रयास करता है तथा दूसरा उदासीन रहता है तो एक स्वस्थ रिश्ता कायम नहीं हो सकता है। ऐसा रिश्ता सामान्य नहीं होगा। उस रिश्ते में रहने वाला व्यक्ति घुटन महसूस करेगा। उदासीनता एवं उपेक्षा अक्सर सीधे तौर  पर जताई गयी घृणा से भी अधिक तकलीफ  देती है। संबंधों में माधुर्य बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि जिस प्रेम, विश्वास तथा सम्मान की हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं, वही हम दूसरों को भी दें। रिश्तों में तनाव तब आता है जब हम दूसरों से अपेक्षाएं तो रखते हैं किन्तु स्वयं दूसरों के लिए कुछ नहीं करते हैं। रिश्ते एक तरफा व्यवहार से नहीं चलते हैं। रिश्तों को बनाये रखने के लिए दोनों पक्षों का सहयोग एवं समर्पण आवश्यक है। किसी ने सच ही कहा है :
रिश्ते निभाने के लिए बुद्धि नहीं,
दिल की शुद्धि होनी चाहिए।
अहम् रिश्तों का सबसे बड़ा शत्रु  है। जब अहम् का प्रवेश हमारे संबंधों में होता है तो यह दीमक की भांति उसकी जड़ों को खोखला कर देता है। यह किसी भी रिश्ते में तनावपूर्ण स्थिति ले आता है। अहम् व्यक्ति को आत्म-केन्द्रित बनाता है। इसके कारण दूसरे के प्रति प्रेम तथा सम्मान की भावना लोप हो जाती है। व्यक्ति केवल अपने स्वार्थ के बारे में ही सोचता है। ऐसे में बात-बात पर तर्क और एक दूसरे पर दोषारोपण का दौर चलने लगता है। यह स्थिति रिश्ते में हृस का कारण बनती है। अवसाद हमारी ज़िन्दगी में बड़ी तेज़ी से अपने कदम पसार रहा है। कम से कम समय में ऊंची सफलताएं पाने का सपना, भौतिक सुख-सुविधाओं की पूर्ति और हर समय सिर्फ एक-दूसरे को पछाड़ने की होड़ हमें अपने आप से ही अकेला करती जा रही है, क्योंकि हर कोई हर समय इसी जद्दोजहद में है कि कैसे फलां मुकाम हासिल किया जाए। इस उधेड़बुन में वह कब अपनों से दूरियां बना लेता है, स्वयं उसे भी पता नहीं चलता। वर्तमान में इन्सान अपने आप से और अपने बच्चों से इतनी उम्मीदें पाल लेता है कि उन्हें पूरा न कर पाने पर वह खुद को सम्भाल भी नहीं पाता और अपने आप को सबसे अलग-थलग कर लेता है। उदास कोई नहीं होना चाहता है परन्तु परिस्थितियां हमें उदास और तन्हा कर देती हैं। दरअसल सफलता तो मिल जाती है। सफलता मिलना ही अपने आप में बड़ी बात नहीं है, इस सफलता को बरकरार रखना, संजो कर रखना ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि सफलता को बरकरार रखने का जबरदस्त दबाव प्रत्येक सफल व्यक्ति पर रहता है। यह दबाव कई बार उस व्यक्ति को बेचैन कर देता है और यही बेचैनी तनाव के रूप में आने लगती है। यूं तो पूरी दुनिया से हम तकनीकी माध्यमों से तुरन्त जुड़ जाते हैं। परन्तु अंदर से खोखले होते रिश्ते, रिश्तों से बनावटीपन और अपनों से बढ़ती दूरियां ये सब तनाव को बढ़ाने में सहायक होते हैं। ऐसा नहीं है कि संवाद नहीं हो रहा है। संवाद हो रहा है, लेकिन आपसी मेल-मिलाप कहीं गुम-सा गया है। ऐसे में मनोचिकित्सकों का योगदान अहम हो जाता है। वे भली-भांति जानते हैं कि इस बीमारी के लक्षणों को जल्दी से जल्दी समझने पर रोगी इस रोग से जल्दी बाहर आ सकता है। क्योंकि अगर समय पर इन लक्षणों को पहचान लिया जाए तो एक सामान्य ज़िंदगी जी सकती है। वरना हताशा जब आदमी को घेर लेती है तो ज़िंदगी एक बोझ लगने लगती है और ये हताशा अपने चरम पर पहुंच जाए तो आत्महत्या जैसे कदम भी उठ जाते हैं, जो कमज़ोर मानसिकता का उदाहरण है। कहने का आशय इतना भर है कि अवसाद से पार पाना इतना मुश्किल भी नहीं है। ज़रूरत है तो उस काल्पनिक, कृत्रिम और खोखली दुनिया से बाहर निकल अपने सपनों के साथ भावनाओं को महसूस कर सकारात्मक ज़िंदगी जी जाए। कुछ रिश्ते इन्सानियत के भी होते हैं। यह रिश्ते वास्तव में स्वार्थ पर नहीं बल्कि विश्वास पर टिके होते हैं। इसमें इन्सान दूसरे का दुख-दर्द समझता है और उस दर्द का कारण जानकर उसका निवारण करता है। सबकी निजी ज़िंदगी में परेशानियां तो आती ही हैं, और ऐसे में अपनों की सहानुभूति और प्रेम का भावनात्मक सहारा इन परेशानियों से उबरने में मदद करता है। इसलिए रिश्तों को इतना मजबूत बनाना होगा जहां पर कुछ कहने से पहले ज्यादा सोचना न पड़े और खुलकर अपनी भावनाएं व्यक्त कर सके। रिश्तों को पैसों से नहीं, बल्कि भावनाओं से तौलना चाहिए। पैसा ही सब कुछ नहीं है। किसी ने सच कहा है

 
‘हर तरफ, हर जगह बेशुमार आदमी
 फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी’।