एक सम्पूर्ण जन-नायक हैं श्री कृष्णा

‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’...या ‘यदा-यदा हि धर्मस्य...’ पढ़ते-सुनते ही हम बरबस कृष्णासक्त हो जाते हैं। समष्टि और विराट की स्थापना-प्रतीक श्याम-देह। इस अवतारी पुरुष का स्मरण हमारे रोम-रोम को शांति प्रदान करता है, चिंतन में बहुविध आयामों की सृष्टि करता है। माधुर्य और सौंदर्य के रस-रास के बोधक श्री कृष्ण का व्यक्तित्व अपराजेय शौर्य की महागाथा है। मथुरा से द्वारिका तक फैली उनकी भौगोलिक कर्म-लीलाएं पौराणिक पन्नों की फड़फड़ाहट के साथ भक्तजनों को कृष्णमय होने का संदेश देती हैं। इस अर्थ में कृष्ण का सम्पूर्ण व्यक्तित्व प्रकाश की महाविधा सिद्ध होता है। साथ ही प्राणीमात्र के जीवन का कोई भी आरम्भ-बिन्दु कृष्ण के प्रभामण्डल से रीता नहीं है। भारतीय पौराणिक पृष्ठभूमि के निर्विवाद समीक्षक श्री कृष्ण के अनुशासित लोकजीवन की प्रशंसा में उन्हें मानवीय स्वरूप वाले आराध्य पुरुष के रूप में देखते हैं, तो विश्वभर में फैली करोड़-करोड़ की आबादी मधुसूदन को सर्वोच्च आध्यात्मिक सत्ता के रूप में चिंतन कर नतमस्तक होती है, किंतु जिसे अजन्मा और अविनाशी कहा गया हो, उसका जन्म दिन मनाया जाना अचरज उत्पन्न करता है। ‘श्रीमद् भगवत् गीता’ उद्घाटित करती है कि श्री कृष्ण स्वयं बीस भावों के जनक हैं- बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दु:ख, भव, अभव, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश और अपयश। जिनके प्रकट होने को न देवता जानते हैं और न महर्षि, क्योंकि वह सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों के आदि हैं। श्री कृष्ण के मन से उत्पन्न हुए हैं सात महर्षि (मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ) और उनसे भी पूर्व में होने वाले चार सनकादि (सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार) तथा चौदह मनु (स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसावर्णि और इंद्रसावर्णि)। श्रीकृष्ण रहस्योद्घाटित करते हैं : मैं संसार मात्र का प्रभव और मूल कारण हूं। मेरे से ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है। इतना ही नहीं, सम्पूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य तथा अन्त में श्री कृष्ण हैं यानी श्री कृष्ण प्राणियों के अन्त:करण में आत्म रूप से स्थित हैं। श्री कृष्ण ही अदिति के पुत्रों में विष्णु (वामन) और प्रकाशमान वस्तुओं में किरणों वाला सूर्य हैं, मारुतों का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हैं। वही वेदों में सामवेद, देवताओं में इंद्र, इन्द्रियों में मन और प्राणियों में चेतना हैं। श्री कृष्ण रुद्रों में शंकर और यक्ष-राक्षसों में कुबेर हैं। वसुओं में अग्नि और शिखर-पर्वतों में मेरु हैं। वह स्वयं पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति हैं, सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र हैं। मधुसूदन को ही महर्षियों में भृगु और वाणियों में प्रणव कहा गया है। उन्हें ही यज्ञों में जप-यज्ञ व स्थिर रहने वालों में हिमाचल कहते हैं। वही सम्पूर्ण वृक्ष-जगत में पीपल हैं, देवर्षियों में नारद हैं तथा गन्धर्वों में चित्ररथ व सिद्धों में कपिल मुनि हैं। इसके साथ ही श्री कृष्ण आयुधों में ब्रज, धेनुओं में कामधेनु, सर्पों में वासुकि, नागों में शेषनाग, जल-जन्तुओं में वरुण, पितरों में अर्यमा, शासकों में यमराज, दैत्यों में प्रह्लाद, गणना करने वालों में काल, पशुओं में सिंह, पक्षियों में गरुड़, पवित्र करने वालों में वायु, शस्त्रधारियों में राम, जल-जंतुओं में मगर, बहने वाले स्रोतों में गंगा जी, सम्पूर्ण सर्गों का आदि, मध्य तथा अन्त, विद्याओं में अध्यात्म, शास्त्रार्थ करने वालों का वाद, अक्षरों में प्रथम: समासों में द्वंद्व समास, काल का भी महाकाल, सब ओर मुख वाला धाता, उत्पन्न होने वालों का उद्भव, स्त्री जाति में कीर्ति, श्रीवाक्, स्मृति, मेधा, धृति, समा, श्रुतियों में बृहत्साम, वैदिक छन्दों में गायत्री छंद, बारह महीनों में मार्गशीर्ष, छह ऋतुओं में बसंत, तेजस्वियों में तेज, जीतने वालों में विजय, निश्चय,  मनुष्यों का सात्विक भाव, कृष्णवंशियों में वासुदेव, पाण्डवों में धनंजय, मुनियों में वेद व्यास, कवियों में शुक्राचार्य, दण्ड नीति, मौन, ज्ञान, बीज, चर-अचर। श्री कृष्ण ने अपने उक्त नाम रूपों का एक अंश ही प्रकट किया है। कहना न होगा कि सृष्टि में प्रथम पुरुष कृष्ण हैं जो लोकजगत के विज्ञानी और सच्चे जननायक हैं। उनके इस नायकत्व रूप को द्वापर युग के लोकजगत में व्यापक स्वीकृति मिली है।

— कमलेश त्रिपाठी