देश की बढ़ती आर्थिक बदहाली

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अगले कुछ वर्षों में ही भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का संकल्प किया है। 5 ट्रिलियन का मतलब है 50 खरब। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए भारत को 10 प्रतिशत सालाना की विकास दर से विकास करना होगा। इतनी ऊंची दर अभी तक के इतिहास में भारत ने कभी प्राप्त नहीं की है। लेकिन यदि उस लक्ष्य को हासिल करना है, तो विकास की इस दहाई अंक वाली दर को प्राप्त करना होगा। यह तो हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्वाकांक्षा हुई, लेकिन सच्चाई कुछ और है। सच्चाई यह है कि 2016 के 8 नवंबर को खुद प्रधानमंत्री द्वारा नोटबंदी की घोषणा किए जाने के बाद देश की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई है। 
उस बड़े फैसले के बाद इसका शुरू में लड़खड़ाना तो लाजिमी ही था, लेकिन उम्मीद की जा रही थी कि कुछ समय के बाद स्थिति न केवल सामान्य होगी, बल्कि अर्थव्यवस्था विकास के नये युग में पहुंच जाएगी और चौतरफा विकास देखने को मिलेगा। नोटबंदी के कुछ शुरुआती महीनों के बाद अर्थव्यवस्था की हालत थोड़ी सुधरती भी दिखाई पड़ी, लेकिन बहुत जल्द पता चल गया कि वह तो एक छलावा था और धीरे-धीरे नोटबंदी देश की अर्थव्यवस्था को दीर्घकाल के लिए अपने लपेटे में लेने लगी।
उसके बाद विकास की दर गति पकड़ नहीं पाई। उसमें गिरावट होने लगी। गिरावट के बावजूद दर पांच प्रतिशत से ऊपर ही चल रही थी। इसलिए इसके बावजूद हमारे नीति निर्माता यह मानने को तैयार नहीं हुए कि अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में प्रवेश कर गई है। शायद वह गलत भी नहीं थे, क्योंकि पांच प्रतिशत की दर से हो रहा विकास भी विकास ही है। उसको मंदी कैसे कह सकते हैं? भारत ने लंबे समय तक 2 से 3 फीसदी की विकास दर का जमाना देखा है। उस दर को हिकारत से हिन्दू विकास दर कहा जाता था। लेकिन नरसिम्हाराव सरकार द्वारा 1991 में शुरू की गई नई आर्थिक नीतियों ने कथित हिन्दू विकास दर को अतीत की चीज बना दिया और हमारा देश 5 फीसदी के ऊपर ही विकास करता रहा। दहाई अंक में तो विकास की दर कभी नहीं गई, लेकिन किसी किसी साल यह 8 फीसदी की दर को छू चुकी है।
2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार के गठन के बाद अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहतर हो रही थी। तेल की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में गिरी हुई थी। इससे तेल उपभोक्ताओं को तो राहत मिल ही रही थी, सरकार के तेल उत्पादों पर लगे टैक्सों से राजस्व का भारी लाभ हो रहा था। सरकार के स्तर पर नीतियों में जो ठहराव मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में देखा जा रहा था, वह समाप्त हो गया, क्योंकि मोदी की सरकार पूर्ण बहुमत के साथ एक स्थिर सरकार थी। औद्योगिक उत्पादन की स्थिति अच्छी थी और एकाध उत्पादों को छोड़कर कृषि की स्थिति भी अच्छी थी। दालों के मोर्चे पर कुछ समस्याएं आ रही थी। देश की अर्थव्यवस्था विकास की उच्चतर दर की ओर अग्रसर हो रही थी। इसी बीच नरेन्द्र मोदी ने हजार और 5 सौ के पुराने नोटों को रद्द कर देने का निर्णय किया। उन नोटों को तो रद्द कर दिया, लेकिन उनकी जगह लेने के लिए सरकार के पास पर्याप्त नये नोट नहीं थे। 
नोटबंदी के बाद जो स्थितियां पैदा होंगी, उसके बारे में केन्द्र सरकार ने कुछ सोच-विचार ही नहीं किया था। जाहिर है, किसी प्रकार की तैयारी भी नहीं की थी। उसका असर बहुत ही मारक हुआ। देश की अर्थव्यवस्था ठिठक गई। नोटों की कमी के कारण बाजार में मातम छा गया। लाखों लोग बेरोजगार हो गए। बैंकों के पास पैसे आने लगे तो उनपर जमा रकम के ब्याज का बोझ भी बढ़ने लगा। बाजार के तहत-नहस हो जाने के कारण और नोटों की कमी के कारण उद्यमी बैंकों से कर्ज लेने के लिए भी सामने नहीं आ रहे थे। बाहर तो चर्चा हो रही थी कि बाहर पड़ा धन बैंकों के पास आ रहा है, लेकिन वह धन बैंकों के लिए बोझ साबित हो रहा था। जाहिर है, पहले से ही अनेक समस्याओं से जूझ रहे बैंक नोटबंदी के उस दौर में नये किस्म की समस्याआें से ग्रस्त होने लगे।
भारी पैमाने पर असंगठित क्षेत्र में बेरोजगारी हुई। फिर संगठित क्षेत्र में भी छंटनी होने लगी। इसके कारण बेरोजगारों की फौज बढ़ती गई। जब बेरोजगार बढ़ेंगे, तो उनके पास क्रयशक्ति की कमी हो जाएगी। इसके कारण बाजार में वस्तुओं और सेवाआें की मांग कमजोर हो जाएगी। और यही भारत में हुआ है। मांग पक्ष बहुत ही कमजोर हो चुका है और कोई भी बाजार वस्तुआें की मांग से ही फ लता-फू लता है। मांग में आई यह कमी न तो क्षणिक है और न ही अस्थाई, बल्कि यह एक स्थाई फीचर बन गया है। और आज जो आर्थिक विकास दर में कमी आई है, उसका मूल कारण मांग पक्ष का कमजोर होना ही है। अब सरकार के सामने असली चुनौती यह है कि यह मांग पक्ष को कैसे मजबूत करे, लेकिन उसके सामने कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा है। वह सप्लाई पक्ष पर ज्यादा जोर दे रहा है। यानी उद्यमियों और उद्योगपतियों के लिए सुविधाएं देने पर उसका ज्यादा जोर है। उनके लिए कर रियायतें दी जा रही हैं। 
आवास निर्माण के लिए सरकारी धन से बड़ा कोष तैयार किया जा रहा है, लेकिन लोगों की आय कैसे बढ़े, इस पर सरकार सोच ही नहीं रही है। ऐसी बात नहीं है कि इस तरह की समस्या कभी पहले कहीं आई नहीं है। अनेक देशों में अनेक बार इस तरह की समस्याएं आती हैं और इन समस्याओं पर काबू भी पाया जाता रहा है, लेकिन भारत की सरकार ने जो आर्थिक मॉडल अब अपना रखा है, उसके तहत उन कार्यक्रमों को अपनाना संभव नहीं है और सरकार अपना आर्थिक मॉडल बदलने के लिए तैयार नहीं है। 
यह रोजगार सृजन के लिए अर्थव्यवस्था में सीधे हस्तक्षेप नहीं करना चाहती है। यह काम बाज़ार और निजी सेक्टर पर छोड़ रही है, लेकिन निजी सेक्टर के वश में वर्तमान आर्थिक बदहाली को दूर करना नहीं है। और अब सरकार को यह सूझ ही नहीं रहा है कि अर्थव्यवस्था के विकास को फिर पटरी पर लाने के लिए वह क्या करे। (संवाद)