एक और बदलाव की उम्मीद

हम तो उन लोगों के साथ खड़े रहे। उम्र भर, जो कतार के आखिरी आदमी थे, और उस वायदे के वफा होने का इंतज़ार कर रहे थे, कि वह सुबह कभी ती आयेगी जब हमारी भी सुनी जायेगी। खैर, आज़ादी की पौन सदी गुज़र गयी, वह सुबह कभी आयी नहीं। हां रात के निशाचरों ने अपने डैने फैलाकर हमें एक नई सुबह होने का भ्रम देने का अवश्य प्रयास किया। जब हमने रात के इस विस्तार को सुबह मानने से इन्कार कर दिया, तो गालियों से भरी हुई एक तश्तरी हमें भेंट कर दी गई। हमें चचा गालिब याद आ गये कि जिन्होंने कभी कहा था कि ‘कितने शीरी हैं तेरे लब के रकीच कि गालियां खा के बेमज़ा न हुआ।’
लेकिन जिन्हें गाली के जवाब में गाली सुनने की आदत हो, वे भला इन शे’अरों की शालीन शिकायत को सुनने की कुव्बत कहां से पैदा करें? आज तो बात यहां पर आकर ठिठक गयी है कि हमने आपके लिए शौर्य के नए पैमाने तय कर दिये। वे हैं, ऊंचे स्वर में अपनी प्रशंसा का गायन। अपनी उच्च संस्कृति, अपनी कथित महानता का बड़बोला उवाच। ऐसे में खेत में वर्ष भर खटते किसान के बेमतलब श्रम की पहचान कौन करे कि जिसकी खेतों की मेहनत मानसून का जुआ हो गया? हर वर्ष उसकी बदहाली फसल पर मंडी के ठेकेदारों का कुठाराघात और उसकी भूख, कज़र्दारी, बीमारी, बेकारी के उसके पूर्व जन्म के पापों का फल कह नकार देना।  इसे सह न पाने के कारण उसने अपने जीवन का अन्त कर दिया, तो उसे किसी असाध्य रोग का शिकार बना फिर नकार दो।
अजी असाध्य रोग के शिकार तो आप हो गये, जो अपने दिये को उसके श्रम के पसीने से रौशन करने की बजाय उसके नीचे छाये अंधेरे को देखने के लिए तैयार नहीं होते। वह किसान फसल मंडी के मोड़ पर फन्दा ले कर मर गया, और आपने उसे किसी असाध्य रोग का शिकार बताकर मरने वाला बता दिया। वर्षों के बेकार किसी ऊंची पानी की टंकी पर चढ़ कर दिनों चिल्लाने के बाद मिट्टी का तेल डालकर जल मरे, तो आपने उन्हें बाजीगरों का कोई नया खेल बता दिया। बहुत दिन तक इस युग के मसीहा आप को क्रांति के नाम पर यही समझाते रहे कि नये युग की यह लकीर वहां से ही शुरू होती है, जहां वे खड़े हैं। वे तो नई कतार बनाने के लिए खड़े हो गये, लेकिन जब उनके पीछे बन्दा तो क्या कोई परिन्दा भी लगता हुआ नज़र नहीं आया, तो ये मसीहा अपने आप में स्वयंभू सत्य हो गये। अब तो यह ही सत्य उनके लिए सनातन है कि यह कतार जहां वे खड़े हैं, वहीं से शुरू होती है। वहीं खत्म हो जाती है। 
आजकल वे सबसे पूछते फिर रहे हैं कि भाई जान, इस मुहाविरे का क्या अर्थ है, ‘आगे नाथ न पीछे पगहा।’ आपको पता है क्या? आज देश सेवा के दृष्टि बिन्दु में न देश सेवा रही है और न समाज सेवा रही। रही तो केवल अपनी, अपने परिवार और अपने वंश की सेवा, नये सूत्र वाक्य लालटेन बन गये हैं, अपने घर में रौशनी का इंतज़ाम कर लो, दुनिया भर का अंधेरा छंट जायेगा। अरे, आपके प्रासाद तो रौशन हो गये, लेकिन अंधेरी गूदड़ बस्तियों के अंधेरे और तारीक हो गये? बात राजनीति में, सामाजिक परिवर्तन में समन्वयवाद की चली थी। यह आया राम गया राम के दर्शन शास्त्र को भी शर्मिन्दा कर गयी।
बात ताजो— तख्त को उछालने के लिए खाक-नशीनों के गठजोड़ की चली थी, लेकिन लड़ाई शुरू होने से पहले ही दूसरे के सिर से टोपी छीन कर स्वयं पहनने की भेड़िया घसान में बदल गयी। होता है तमाशा दिन-रात मेरे आगे के अन्दाज़ में एक नये युग का आह्वान करने वाले अग्रदूत जब लोगों के दृष्टिभ्रम  दे मोरपंखी हो गये, तो एक बार भी नहीं सोचा कि जब कौआ मोर की चाल चला था तो अपनी चाल भी भूल गया था। लोकतंत्र ने आपको स्थापित गद्दियों को उछालने के लिए गोली की जगह वोट की ताकत तो दे दी। आपने कन्धे से कन्धा भिड़ा कर निरंकुश सत्ता के विरुद्ध मोर्चाबंदी तो कर ली, लेकिन जब परिणाम ने आपकी ओर रुख बदला, तो आपने सब विश्वास, साझी समझ और पथबंधु होने का प्रण ताक पर रख कर सब दिये बुझा कर केवल अपना दिया जलाने का प्रयास कर लिया।
यह कहानी केवल एक राज्य की नहीं, जहां गठजोड़ के साथ वोट विजय प्राप्त करने के बाद विजेता, स्वार्थ युद्ध में हार गये। अब वे उन्हीं के गले का हार बनने का प्रयास कर रहे हैं, जिन्हें कभी वे फूटी आंखें देखने के लिए तैयार नहीं थे। जमाना बदलता है, तो उसकी तासीर भी बदलती है। कभी यह सच आया राम गया राम का सच था, आज वह ‘आया गठजोड़ गया गठजोड़’ का सच हो गया । रोज़ इनका सच संशोधित होता है। और इनके आदर्श बदलते हैं। यह एक राज्य, एक वर्ग, एक व्यक्ति की कहानी नहीं। इस नंगी महत्वाकांक्षा का सच है जिसके तिरुपित चेहरे पर आम आदमी के भले के बनावटी चमकीले नकाब पहनाये जा रहे हैं।
रोज़ नकाब बदलने वाले भद्रजनों की इस नगरी में कतार में पौन सदी से खड़े आखिरी आदमी का रुदन आज कोई नहीं सुनता, क्योंकि जो समाज की कन्दील हैं, उनकी कतार तो उनके आभामंडल से शुरू होती है, और वहीं खत्म हो जाती है। लगता है इस कतार संस्कृति को अब बदलना ही पड़ेगा।