पितृ-सत्तात्मक सुरंग का विरोध है स्त्री-विमर्श

भारत देश लोकतांत्रिक व्यवस्था का देश है। लोकतांत्रिक व्यवस्था स्त्री-पुरुष सभी को बराबरी का अधिकार प्रदान करती है। यानि अधिकार का क्षेत्र स्त्री पुरुष सभी के लिए समान रहेगा। परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने दशकों बाद भी ज़मीन स्तर पर क्या हम स्त्री-पुरुष को बराबर की ज़मीन पर देख पा रहे हैं? क्या चुनाव के दिनों में मत पत्र का उपयोग करने की स्वतंत्रता को ही स्वतंत्रता समझते हैं। वह भी अक्सर पति के कथनानुसार ही कार्य सम्पज्ञता होती है। आम तौर पर स्त्री के प्रश्न उठाने को उसकी हद पार की भूल समझी जाती है। तुरंत सभ्य  स्वर में समझा दिया जाता है। बहुत बोलने लगी है? ज़रा तैश में हो तो सुनाया जाएगा ‘कैंची की तरह चलने लगी है तुम्हारी जुबान’ ऐसे में प्रश्न तो उठेगा ही कि क्या स्त्री को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक समानता प्राप्त है? जबकि साहित्य, कला, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर उनके लिए उतना ही दरवाज़ा खुलता है, जितना पुरुष वर्चस्व देना चाहता है। गरिमा श्रीवास्तव की एक किताब है ‘देह ही देश’ क्या इसके यह मानी नहीं स्त्री को देह के दंश तक ही रह जाना पड़ता है। कविताकार रघुवीर सहाय पहले ही कह चुके हैं कि स्त्री की देह उसका देश है। यानि पुरुष समाज के सामने स्त्री की बौद्धिकता प्रतिभा, मानसिक स्तर को देह के आगे स्वीकार करने में उन्हें संकोच है। उनकी नज़र उसके आगे नहीं देख पा रही। बाज़ारवाद के दौर में संवेदनशीलता को काफी धक्का पहुंचा है। लोग मशीन होते चले गये। ऐसे में स्त्री को भी उपयोग की सामग्री में बदलने की पूरी कोशिश की गई। कविताकार शांति सुमन ने ऐसे एक प्रश्न के उत्तर में कहा है बाज़ार ने पहले अपनी चमक-दमक और फैशन की चकाचौंध फैलाकर लोगों की भावनाओं को ही मारा। पति-पत्नी के संबंध तक में उपयोगिता की बात समा गई।  इस विस्तृत बाज़ारवाद ने जन-जीवन को आमूलचूल बदल दिया। अब तो घर में ही बाज़ार का प्रदेश हो गया है।  साहित्य की सभी विधाओं में स्त्री को एक कमाडिटी की जगह उसके मानवीय रूप, दमनकारी स्थितियों से मुक्ति की बात को गहराता गया। पहले चलता था कि उसे श्रद्धा का पात्र बना कर देवी रूप में चित्रित कर दिया जाये या निम्न स्तर पर उतार दिया जाये। परन्तु अब उसके यथार्थ रूप को अंकित की ज़रूरत महसूस की गई। वह अगर ‘कमायनी’ की श्रद्धा है तो ‘पशोदान’ की हानियां भी हैं। प्रेमचंद बेशक दलित नहीं थे, परन्तु अपनी यथार्थ दृष्टि से ‘कफन’, ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुआं’ जैसी रचनाओं की अनुभूति रखते थे। ‘सेवासदन’ जैसा उपन्यास हाशिए पर धकेले गये पात्रों की संघर्ष क्षमता को ज़ाहिर करता है। कात्यायनी की कविता ‘हॉकी खेलती लड़कियां’ रचे जाने के बाद तीन दशकों तक लोकप्रिय रही। क्योंकि समकालीन स्थितियों पर वह एक बड़ी कविता है। उन्होंने कहा- जिस चीज से मुझे सबसे अधिक ऩफरत है, वह है चरित्र का दोहरापन, कैरियरवाद, अवसरवाद और कायरता। महफिलों में उनकी कविताओं पर तिलमिलाहट ज़ाहिर की गई। उनकी कविताओं का व्यवस्था विरोध सभी जानते हैं। सदियों से बनी पितृसत्ता की सुरंग का विरोध है स्त्री विमर्श।