विकास मार्ग पर आगे बढ़ने की बजाय पीछे हटता भारत

देश की बेहतरी का एक बड़ा प्रतिमान आर्थिक विकास दर होती है, जिस समय एक बार अटल बिहारी वाजपेयी के काल में देश दस प्रतिशत आर्थिक विकास दर को स्पर्श कर गया था, उस समय उसे ‘शाइनिंग इंडिया’ अथवा ‘उदित भारत’ के नाम से आभूषित कर दिया गया था। इसी आधार पर उस समय वाजपेयी सरकार ने चुनाव लड़ा लेकिन उसे पराजय मिली। क्योंकि जो प्रगति हुई थी, वह धनियों के भरोसे तक अटकी रही। आम जन और निम्न वर्ग की हालत में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ। गरीब और अमीर के बीच खाई और भी चौड़ी हो गई।
इसके बाद डा. मनमोहन सिंह के काल के दस बरस के शासन और मोदी सरकार की पहली पारी के पांच बरसों में विकास के दावों के बावजूद देश इस विकास दर को फिर कभी प्राप्त नहीं कर पाया। डा. मनमोहन सिंह के काल में यह विकास दर घटते हुए पांच प्रतिशत पहुंच गई थी। इसके बाद नरेन्द्र मोदी के शासन काल के पहले पांच बरसों में देश को स्वत:स्फूर्थ अर्थ-व्यवस्था बनाने के लिए सरकार ने देश की अर्थ-व्यवस्था की विकास दर का लक्ष्य आठ प्रतिशत रखा था। निश्चय ही अंतिम लक्ष्य तो दस प्रतिशत आर्थिक विकास दर की प्राप्ति थी, जिसे विकसित देशों का प्रतिमान माना जाता है। देश उस समय लगभग 6 प्रतिशत दर से अपनी आर्थिक विकास यात्रा पर था, सरकार उसे आठ प्रतिशत तक ले आना चाहती थी, लेकिन इस बीच भ्रष्टाचार से जूझने और काले धन के उन्मूलन के नाम पर आठ दिसम्बर, 1916 को बड़े नोटों की नोटबंदी कर दी गई। इससे देश की वितरण व्यवस्था को भारी धक्का पहुंचा। एक जुलाई, 2017 को ‘एक देश एक कर’ का सूत्र वाक्य दोहराते हुए जी.एस.टी. लागू कर दी गई। यह अपनी जटिलता और अस्पष्टता के कारण सर्व-स्वीकार्य नहीं हो सका। सरकार ने इसे व्यापार, उद्योग और लेन-देन में स्वीकार करवाने के लिए बार-बार इसकी टैक्स दर के कोष्ठकों से आने वाली वस्तुओं की सूची में परिवर्तन किया, लेकिन फिर भी इससे व्यापारी और उद्यमी बचने के मार्ग ही तलाश करते नज़र आये। नतीजा यह निकला कि जी.एस.टी. लागू होने के बाद व्यापारी-उद्यमी इससे आंख बचाते रहे। कर चोरी को बढ़ावा मिला। देश की विकास दर भी कम हो कर सात प्रतिशत से नीचे चली गई। पूरी कोशिश के बावजूद देश स्वत: स्फूर्त अर्थ व्यवस्था या आठ प्रतिशत का लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सका। किसान बदहाल, उद्योग-धंधों में मंदहाली का वातावरण नज़र आता रहा। देश के अर्थ-तन्त्र के भाग्य विधाता सात प्रतिशत आर्थिक विकास दर को ही गनीमत मानते रहे, क्योंकि उस समय विश्व के अधिकतर देशों में विश्व-व्यापी मंदी का प्रभाव था, और वहां चार प्रतिशत आर्थिक विकास दर भी गनीमत मानी जा रही रही थी। भारत एक अल्प-विकसित देश था, जिसे उसके योजनाबद्ध आर्थिक विकास के प्रयास के कारण विकासशील देश माना जाने लगा था। निश्चय ही उसका लक्ष्य विकसित राष्ट्र का दर्जा प्राप्त करना था। उसके बीच के रास्ते के मील पत्थर के रूप में देश को स्वत: स्फूर्त अर्थ-व्यवस्था बनाना था। इसके लिए आठ प्रतिशत विकास दर का लक्ष्य रखा गया। इसे पाने के लिए मोदी सरकार ने सार्वजनिक निजी क्षेत्र की भागीदारी का मार्ग अपनाया। इसका अर्थ यह बना कि यह चोर दरवाज़े से पूंजीवाद की वापसी थी। इसका सबसे बड़ा हथियार विनिवेश को अपनाया गया है।सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश होने लगा है। ऐसे उपक्रम जो ज़ाहिरा तौर पर लाभ दे रहे हैं, उनमें भी निजी निवेश की भागीदारी के रास्ते खोल दिये गये हैं। तर्क यही कि इससे इन क्षेत्रों में उत्पादकता बढ़ेगी और आधुनिकता और निपुणता का प्रसार होगा। इसका सबसे बड़ा उदाहरण एयर इंडिया और रेलवे हैं। इसके विभिन्न उपक्रमों में निजी भागीदारी शुरू हो चुकी है। रेलवे स्टेशनों के रख-रखाव से लेकर तेज गाड़ियों का परिचालन तक निजी हाथों में जा रहा है। सरकारी उपक्रमों में जन-कल्याण भावना सर्वोपरि रहती है। आम आदमी के हित का ध्यान रखते हुए दामों को भी बहुत अधिक बढ़ने नहीं दिया जाता। इसके लिए देश में मिश्रित अर्थ-व्यवस्था बनाने की कल्पना की गई थी, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र का सह-अस्तित्व रहता। धीरे-धीरे जन-कल्याण बढ़ाने के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार होता जाता। लेकिन देश में सन् 1991 से मनमोहन सिंह के वित्त काल में निजीकरण और उदारीकरण की नई आर्थिक नीति लागू हो गई। इसमें विनिवेश पर ज़ोर था, सार्वजनिक क्षेत्र का स्थान ‘सरकारी निजी भागीदारी ने ले लिया। देश की उत्पादन व्यवस्था पर निजी घरानों का वर्चस्व होने लगा। मोदी के प्रधानमंत्री काल में ‘मेक इन इंडिया’ के नाम से विदेशी निवेश को आमंत्रण मिला, और विनिवेश की सहायता से निजीकरण का बोलबाला हो गया। लेकिन इसके सुखद प्रभाव देश की अर्थ-व्यवस्था पर नहीं पड़े। प्रगति के नाम पर अमीर और अमीर हो गये, और गरीब और गरीबी का अंत नहीं रहा। बेरोज़गारी की दर बढ़ कर 6.1 प्रतिशत हो गई, जो पिछले चार दशकों में सबसे अधिक थी। महंगाई नियंत्रण की नीतियां असफल हो गईं। लोक मूल्य सूचकांक भी शून्य से बढ़ कर डेढ़ प्रतिशत से ऊपर हो गया। लेकिन उससे भी बड़ा संकट था खुदरा मूल्य सूचकांक, जो फिर पौने पांच प्रतिशत को छूने लगा है। लेकिन इससे भी अधिक बोझ है रोज़मर्रा की ज़रूरी वस्तुओं के आसमान छूने का। आज प्याज और टमाटर जैसी वस्तुओं का दाम सौ रुपये और साठ रुपये प्रति किलो हो कर आम आदमी की सामर्थ्य से बाहर हो गये हैं।  उधर विश्व की मूडीज़ इन्वेस्टर्स सर्विस ने देश की आर्थिक विकास दर का अनुमान 5.6 प्रतिशत कर दिया है, जबकि 2018 में यह 7.4 प्रतिशत था। इससे पहले अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार देश की अर्थ-व्यवस्था का दर्जा स्टेबल था, यह भी घटा कर ‘अनस्टेबल’ कर दिया। क्या यह सही समय नहीं कि देश अपनी आर्थिक प्राथमिकताओं पर पुन: विचार करे, कल्याण और लाभ के केन्द्र बिन्दू में गरीब और आम आदमी को पुन: लाये?