गिरावट की तरफ जा रही है महाराष्ट्र की राजनीति

सब कुछ जानते हुए भी अगर आप हैरत में पड़ जाएं, तो इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हालात कितने ़खराब हैं और पतन की नयी गहराइयों में गिरना अभी और ब़ाकी है। भारतीय लोकतंत्र का नैतिक हुलिया हमेशा से (लगभग पचास साल से) ही संदिग्ध था। साठ के दशक में गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर गठजोड़ राजनीति की शुरुआत हुई थी। इसमें दस राज्यों में विपक्षी दलों ने कांग्रेस से टूटे हुए तत्वों के साथ मिली-जुली सरकारें बनाई थीं, और जिनमें कम्युनिस्ट, जनसंघी, समाजवादी और स्वतंत्र पार्टी वालों ने साथ आ कर सेकुलर-कम्युनल, वामपंथी-दक्षिणपंथी और सामंती-जनवादी के भेदों को एक बारगी व्यर्थ कर दिया था। इस सिलसिले ने राजनीतिक विचारधारा को एक बड़ी हद तक अप्रासंगिक बनाने की शुरुआत कर दी थी। उसके बाद से होने यह लगा था कि राजनीतिक गोलबंदी तो विचारधारात्मक औज़ारों की मदद से होती थी, और चुनाव के बाद होने वाले सत्ता के गठजोड़ों के लिए विचारधारा को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता था। कभी-कभी जनता इससे भौचक्की रह जाती थी, पर धीरे-धीरे उसे भी इसकी आदत होती चली गई। शायद यह होना ही था, और इसकी बड़ी वज़ह थी भारत की सामाजिक विविधता और उसकी नुमाइंदगी करने वाली राजनीतिक विविधता (अतिशय पार्टी बहुलता, और छोटी-छोटी पार्टियों का अपना सामुदायिक चरित्र)। लेकिन, महाराष्ट्र में जो हुआ, उसका अंदाज़ा इस राजनीतिक इतिहास से नहीं लगाया जा सकता था। दरअसल, वह इससे परे था। उसका पूर्वानुमान लगाना मुश्किल था, क्योंकि वह गठजोड़ राजनीति की स्वाभाविक मौकापरस्ती और विचारधारा-हीनता की श्रेणियों में भी फिट होने से इन्कार कर रहा है। कारण यह कि गठजोड़ राजनीति अपने विभिन्न घटकों द्वारा परस्पर किये जाने वाले वायदों को कमोबेश निभाने के आधार पर संसाधित होती है। चूंकि वायदे अपने-अपने हितों को पूरा करने के आधार पर किये जाते हैं, इसलिए उन्हें निभाने में दिक्कत नहीं होती। महाराष्ट्र में ये सारी रीतियां और रिवाज उठा कर ताक पर रख दिये गये। आज यह देखना मुश्किल नहीं है कि इस प्रदेश में हर कोई किसी न किसी को धोखा दे रहा था। कहावत है कि राजनीति के हमाम में सब नंगे होते हैं। अगर इसे सबसे भौंडे रूप में धरती पर उतरते हुए देखना हो तो महाराष्ट्र में देखा जा सकता है। महाराष्ट्र के हमाम में भाजपा, कांग्रेस, शिव सेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस, निर्दलीय और अन्य छोटे दल अपने सभी राजनीतिक वस्त्र उतार कर खड़े हैं- और उनके साथ संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी इस नंगई में भागीदारी कर रहे हैं। ये सभी निर्लज्जता की नई सीमाओं को छूते हुए कह रहे हैं कि वे सबसे ज़्यादा नंगे हैं। यह हाल देख कर दक्षिण अमरीकी देश कोलम्बिया में नब्बे के दशक के हालात की याद आ जाती है, जब वहां नशे के तस्कर-गिरोह एक-दूसरे को धोखा देते हुए इज़्ज़त और कोलम्बियन मूल्यों की दावेदारियां कर रहे थे। इसका नज़ारा देखना हो तो नेटफलिक्स पर मिलने वाले वेब सीरियल ‘नारकोस’ की तीस किस्तों में देखा जा सकता है। फर्क केवल यह है कि महाराष्ट्र के राजनीतिक दल किसानों के हितों के बहाने से यह कर रहे थे। अब ज़रा देखिये, धोखे और छल का यह नज़ारा, जो कमोबेश स्पष्ट हो चुका है। भाजपा और शिवसेना ने मिल कर चुनाव लड़ा, लेकिन वे दोनों चुनाव के बाद एक-दूसरे को ठिकाने लगाने का मंसूबा बना चुके थे। भाजपा चाहती थी कि वह अकेले दम पर बहुमत के करीब पहुंच जाए, ताकि उसे हरदम गाली देते रहने वाली शिव सेना को हमेशा के लिए फिट कर सके। दूसरी तऱफ शिव सेना पहले से तय किये बैठी थी कि जैसे ही नतीजे आएं, वह फड़नवीस के नीचे से ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन लेगी। उसने यह भी सोच लिया था कि भाजपा उसकी मांग नहीं मानेगी और उस सूरत में उसे कांग्रेस या शिव सेना से सांठगांठ करना होगा। इसके लिए उद्धव ठाकरे ने एकदम शुरू से ही भाजपा के लिए अपने दरवाज़े पूरी तरह से बंद कर दिये। मिलना तो दूर, एक बार भी फड़नवीस का फोन तक नहीं उठाया। दरअसल, यह एक ऐसी चुनाव-पूर्व दोस्ती थी जिसमें दोनों पक्ष प्रारम्भ से ही एक-दूसरे को बरबाद करने के लिए पेशबंदी कर रहे थे। चुनावी नतीजों के बाद जब फड़नवीस ने सबसे बड़ी पार्टी होते हुए भी सरकार बनाने से इनकार कर दिया, तो शिव सेना को न्यौता मिला। उद्धव को उम्मीद थी कि राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता शरद पवार उसके लिए कांग्रेस और अपने समर्थन-पत्रों का जुगाड़ करेंगे। लेकिन हुआ क्या? पवार ने तितऱफा चाल चली। भीतरी सूत्रों के अनुसार (अब यह बात खुल कर टीवी पर कही जाने लगी है) उन्होंने ठाकरे को आश्वस्त किया, और साथ में सोनिया गांधी से यह भी कहा कि वे समर्थन-पत्र देने में जल्दबाज़ी न करें। इस तरह ठाकरे को सरकार बनाने लायक समर्थन तकनीकी रूप से नहीं मिला। परिणामस्वरूप राष्ट्रपति शासन की नौबत आई। तीसरी तऱफ पवार ने अजीब संदिग्ध तरीके से (तथाकथित रूप से किसानों के प्रश्न पर) प्रधानमंत्री से एक मुलाकात की जो पैंतालीस मिनट तक चली। इस चालबाज़ी का नतीजा यह निकला कि कांग्रेस सुस्ती के मूड में आ गई। वैसे भी आजकल फटाफट ज़माने में यह पार्टी अपनी राजनीति कुछ इस अंदाज़ में करती है जैसे कि कोई बुज़ुर्ग कम्पनी बाग में मंद गति से सैर करता है। ऊपर से उसे पवार पर शक भी हो गया कि कहीं वे अंदरखाने भाजपा से बात तो नहीं चला रहे हैं। शिव सेना वाले भी सोचने लगे कि अब उन्हें भी ठंडा करके खाना चाहिए। इसलिए उद्धव ने कहा कि अब तो उनके पास सरकार बनाने के लिए छह महीने का समय है।  इधर पवार शिव सेना को चरका दे रहे थे, उधर उनके अपने परिवार में उनके भतीजे ने उन्हें चरका देने का मंसूबा बनाया। अजीत पवार पीछे से भाजपा के साथ बात चलाने लगे। उन्होंने फड़नवीस एंड कम्पनी को पट्टी पढ़ाई कि राष्ट्रवादी कांग्रेस के ज़्यादातर विधायक उनके पास हैं, और प्रमाण के तौर पर विधायकों के दस्तखत वाला वह पत्र दिखा दिया जो दरअसल उद्धव की सरकार बनवाने के लिए तैयार किया गया था। अजीत पवार की इस गोली पर फड़नवीस और राज्यपाल कोशियारी ने भी यकीन कर लिया, क्योंकि वे यकीन करने का मौका तलाश रहे थे। राज्यपाल ही नहीं, उधर प्रधानमंत्री भी इस सम्भावित बंदोबस्त पर यकीन करने के लिए तैयार बैठे थे। उन्होंने बिना काबीना की बैठक बुलवाये अपने विशेष अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति शासन हटा दिया। इस तरह दिन के उजाले में चुनाव हुआ, लेकिन सरकार रात में बनी। मैं ‘नारकोस’ वेब सीरियल की तर्ज पर इसे लोकतंत्र के साथ घटी ‘कोलम्बियन दुर्घटना’ करार दूंगा। कामना यह है कि दोबारा ऐसी दुर्घटना न हो, नेता और पार्टियां कोकीन के तस्करों जैसा आचरण न करें, और प्रधानमंत्री और राज्यपाल जैसे पदों पर बैठे लोग फौरी लाभों के लिए व्यवस्था के दूरगामी हितों को नुकसान न पहुंचाएं।