राजनीतिक फंडिंग को पारदर्शी बनाए जाने की ज़रूरत 

भारत में राजनीतिक फंडिंग को पारदर्शी बनाने की सख्त आवश्यकता है। समय आ गया है कि राजनीतिक फंडिंग का जो इस समय तरीका है यानी कैश दान के स्रोत को गुप्त रखना, उसमें संशोधन किया जाना चाहिए। दूसरे सुधारों के बीच पोलिटिकल फाइनेंस सुधार को वरीयता दी जानी चाहिए जिस तरह चुनावी बांड योजना को पहले लाया गया और फिर उसे लागू किया गया, उससे अनेक गंभीर प्रश्न खड़े हो गए हैं, मसलन सवाल है कि क्या वह अपने वर्तमान रूप में अधिक पारदर्शी व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त कर सकती है? शायद इस बात को देश का सर्वोच्च बैंक पहले ही अंदेशा लगा रहा था तभी तो साल 2017 में तत्कालीन आर.बी.आई. गवर्नर ने तत्कालीन वित्त मंत्री को लिखा था कि ‘बेयरर बांड्स नगद पैसे की तरह होते हैं, उन्हें केन्द्रीय बैंक के अतरिक्त किसी अन्य संस्था को जारी करने की अनुमति देना काफी खतरे से भरा है, चुनाव  आयोग ने भी सावधान किया था कि इससे राजनीतिक पार्टियों को अवैध विदेशी फंड्स मिलने लगेंगे। लेकिन इन आपत्तियों को अनदेखा कर दिया गया या ठुकरा दिया गया और इस योजना को लोकसभा में वित्त विधेयक (बजट) के रूप में पारित कर दिया गया ताकि उसे राज्यसभा से न गुज़रना पड़े, जहां उस समय सरकार के पास बहुमत नहीं था। गौरतलब है कि संसार में भारत के अलावा कोई दूसरा देश नहीं है जहां ऐसी योजना लागू हो।
योजना का उद्देश्य यह बताया गया था कि इससे राजनीतिक फंडिंग  ‘क्लीन-अप’ हो जायेगी। लेकिन सोचने वाली बात है कि दानकर्ता का नाम गुप्त रखने से यह भला कैसे संभव है? इस योजना से तो राजनीतिक दलों को असीमित कॉर्पोरेट फंड मिलने लगा, जिनमें विदेशी व शैल कम्पनियों से हासिल फंड भी शामिल हैं। लेकिन जिस व्यवस्था से राजनीतिक चंदा स्वच्छ होना था, उस योजना से तो यह भी पता नहीं चला कि फंड्स आये तो किधर से ? इस योजना के समर्थन में एक तर्क यह दिया गया कि गोपनीयता दानकर्ता को भविष्य की आशंकित परेशानी से सुरक्षित रखती है, लेकिन लोकतंत्र का तो सारा वजूद ही पारदर्शिता पर आधारित है। मतदाताओं को यह मालूम होना उनका हक है कि राजनीतिक दलों को किन-किन जगहों से फंड्स मिल रहे हैं। दानकर्ता को गोपनीय रखने से किसी सार्वजनिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। इसके अतरिक्त आरबीआई की जगह सरकारी एसबीआई को बांड्स जारी करने का अधिकार देने से यह शंका उत्पन्न होती है कि इस अपारदर्शी व्यवस्था के कामकाज को सरकार प्रभावित कर सकती है। ध्यान रहे कि बैंक को दानकर्ता की जानकारी रखनी होती है। आग्रह किये जाने पर यह जानकारी एन्फोर्समेंट एजेंसीज को देनी होती है। जिससे यह आरोप संभावित हो जाता है कि सरकार इस जानकारी को हासिल करके अपने फायदे के लिए प्रयोग कर सकती है। जिस मनमज़र्ी अंदाज़ में इस योजना के नियमों से छेड़छाड़ की गई कि इन बांड्स को खरीदने व जमा करने की समय-अवधि बदल दी गई, उससे इस नैरेटिव को ही बल मिलता है कि इस व्यवस्था से सत्तारूढ़ दल को ज़बरदस्त व अनुचित लाभ मिल जाता है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा एकत्र किये गये डाटा से मालूम होता है कि पहली खेप में जो 222 करोड़ रुपये मूल्य के बांड्स जारी किये गये थे, उसमें से 95 प्रतिशत भाजपा के खाते में गये। इस योजना का चिंताजनक होना इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि जिन पहले 11 चरणों में 5896 करोड़ रुपये मूल्य के बांड्स बेचे गये, उनमें से 91 प्रतिशत से अधिक एक करोड़ रूपये वाले थे।  राजनीतिक फंडिंग के तरीके में सुधार लाने के लिए पारदर्शिता व जवाबदेही पहली शर्त है। इस मामले में, ज़ाहिर है, इस बुनियादी बात का पालन नहीं किया गया। ध्यान रहे कि राजनीतिक दल सूचना के अधिकार कानून के तहत भी नहीं आते हैं। इससे लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है। राजनीतिक फंडिंग का पूर्णत: पारदर्शी होना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि 21 वीं शताब्दी में चुनावों में पैसे की भूमिका निरंतर बढ़ती जा रही है। ऐसा लगभग 50 वर्ष पहले नहीं था। आज भारत चुनावों पर अमरीका से अधिक खर्च करता है, जबकि उसकी प्रति व्यक्ति जीडीपी अमरीका की तुलना में मात्र 3 प्रतिशत है। यह सही है कि पैसा चुनाव में सफलता की गारंटी नहीं है, लेकिन इसका दूसरा रुख यह है कि पैसा न होना पराजय की गारंटी अवश्य है। कुछ पार्टियां एकाध चुनाव बहुत कम पैसा खर्च करके जीत सकती हैं, लेकिन जीत को अनेक चुनावों तक बरकरार रखने के लिए फंड्स की ज़रूरत होती है। मतदाताओं तक पहुंचने के लिए प्रत्याशियों व पार्टियों को होर्डिंग और प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया में विज्ञापनों पर खर्चा करना होता है। उन्हें ट्रेवल करना होता है और पार्टी वर्कर्स को पैसा देना होता है। रैलियां आयोजित करनी होती हैं। भारत में गिफ्ट्स, पैसा, शराब आदि भी चुनावी खर्च का हिस्सा है। अब चूंकि पैसे की आवश्यकता होती है, इसलिए मुख्य मुद्दा यह हो जाता है कि जीतने वाला प्रत्याशी जनता की सेवा करेगा या उसके लिए काम करेगा जिसने उसका फण्ड किया है। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक फंडिंग के नियम व रिफॉर्म्स में निरंतर विकास किया जा रहा है। इसमें फोकस पब्लिक फंडिंग, खर्च की सीमा, फंडिंग में पारदर्शिता, नियमों का पालन न करने पर सज़ा आदि पर है। अपने देश में जो चुनावी बांड योजना है, उसमें लगभग सारा फंड सत्तारूढ़ दल को मिल जाता है उसे और एन्फोर्समेंट एजेंसीज को ही मालूम होता है कि किसने किसको कितना पैसा दिया है। इसलिए दानकर्ता को अगर किसी उत्पीड़न का सामना करना पड़ेगा तो यह काम सत्तारूढ़ दल एन्फोर्समेंट एजेंसीज के ज़रिये ही करा सकता है। बहरहाल, जनता के पास यह जानकारी नहीं होती है। ऐसी गोपनीयता से भला अच्छा लोकतंत्र कैसे संभव है? 
 लेकिन असल खतरा दीर्घकाल में है। अगर अपारदर्शिता के साथ मोटा पैसा ही चुनावों को पूर्णत: फंड करेगा तो जिस लोकतंत्र को हम जानते हैं, उसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा। गोपनीय फंड्स के नाम पर एनजीओ के तो पंजीकरण रद्द कर दिए जाते हैं, लेकिन राजनीतिक दलों के नहीं, भला ऐसा क्यों? चुनाव आयोग सहित विभिन्न आयोगों ने राजनीतिक फंड्स में सुधार लाने के सुझाव दिए हैं। लेकिन आज तक किसी सरकार ने उन्हें अपनाया नहीं है। सभी प्रकार की फंडिंग में पारदर्शिता हो। राजनीतिक दल आर.टी.आई. के अधीन आयें। चुनाव खर्च व दान पर सीमा निर्धारित हो, नियमों का उल्लंघन करने पर कठोर दंड हो और चुनावी बांड योजना तुरंत रद्द कर दी जाये। सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर एक याचिका विचाराधीन है। उम्मीद की जाये कि बिना संकट के लोकतंत्र बचा रहेगा।

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