अयोध्या विवाद : कुछ कमियों के बावजूद सही है सुप्रीम कोर्ट का फैसला

कोई भी वह देश जो बढ़ रहे साम्प्रदायिक तनाव एवं बढ़ रही धार्मिक असहनशीलता तथा कमज़ोर हो रही राजनीति से लाभ लेने की कोशिश में हो, उसके लिए अयोध्या का फैसला एक राहत भरा कहा जा सकता है। अदालत के अनुसार यह एक ऐसा अद्भुत बहु-पक्षीय न्यायिक पक्ष है जोकि इतिहास, निर्माण कला एवं कानून की सीमाओं में से गुज़रता हो, उसके बारे में आम तौर पर भिन्न-भिन्न मत रखते हुए भी इसे एक सही फैसला माना जा सकता है। आलोचकों की ओर से यह फैसला कानून तोड़ने वालों का पक्ष लेता हुआ कहा गया है, परन्तु इसे संविधान के अनुसार समानता के अधिकार न देता हुआ आशाओं एवं समुचित मुआविज़े से कहीं कम बताया गया है। उनके अनुसार एक धर्म-निरपेक्ष एवं विभिन्नता वाले समाज में एक लम्बे एवं विभाजनकारी झगड़े का यह एक सामयिक हल माना जा सकता है, स्थायी हल नहीं कहा जा सकता। यह फैसला बहु-संख्यक भावनाओं वालों को एक प्रकार से न्याय की कीमत पर दी गई छूट के तौर पर कहा जा सकता है। 
आम तौर पर अदालती फैसलों पर समीक्षा नहीं की जाती तथा अयोध्या का फ़ैसला जोकि मानव इतिहास एवं कार्यों की पेचीदगियों से भरा हुआ है, कोई भिन्न नहीं है। फिर तथ्यों के महत्त्व पर आधारित यह फैसला यदि समूचे रूप में देखा जाए तो आलोचकों को झुठलाता है। दोनों पक्षों की ओर से न्याय की मांग के दृष्टिगत अदालत द्वारा दोनों हितों को संतुलित रखते हुए मुस्लिम पक्ष को मस्जिद (बाबरी) जिसका 1934 एवं 1939 के बीच अपमान किया गया था, उसे तथा 1992 में जिसे ध्वस्त कर दिया गया था, के बदले अयोध्या में पांच एकड़ ज़मीन देने एवं विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण के लिए देने का ़फैसला किया गया। अदालत की ओर से इस मामले में अंतिम निर्णय देने के लिए संविधान की धारा 142 के अन्तर्गत दिये गये सम्पूर्ण अधिकारों का इस्तेमाल किया गया। अदालत की ओर से विवादित स्थल को समूचे तौर पर लिया गया तथा यह पाया गया कि मुसलमान पक्ष 16वीं शताब्दी में इसके निर्माण से लेकर 1857 तक इस स्थान पर पूर्ण कब्ज़ा साबित करने में विफल रहे। इस फैसले को लेकर एक टिप्पणी यह भी है कि विगत कई दशकों से हल न ढूंढा जा सकने के दृष्टिगत अदालती काम-काज की कई सीमाओं के बावजूद इस समस्या का हल किया गया है। इसके लिए हमें स्वयं को यह प्रश्न करना चाहिए कि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य तथा जन-भावनाओं से जुड़े इस विवाद का हल करके क्या सर्वोच्च न्यायालय ने अंतिम न्यायिक संस्था होने का अपना कर्त्तव्य निभाया है। अपने फैसले को कानून, समानता एवं आत्मा के भीतर जकड़ते हुए इस फैसले के पक्ष में लम्बी-चौड़ी दलीलें दी गई हैं। मलकीयत के संबंध में फैसला करते हुए इसके द्वारा रियायतें दी गई हैं जोकि अदालत के अनुसार सामाजिक एकजुटता एवं धार्मिक सहनशीलता प्रदान करेंगी। इस फैसले का गहन विश्लेषण एवं अदालत की कड़ी मेहनत पर होने वाले प्रश्न-चिन्हों के दृष्टिगत इसकी ओर से यह कहा गया है ‘इन्साफ वह नींव है जोकि किसी भी कानूनी संस्था को उजागर करती है तथा जिसके ऊपर कानून का शासन कायम होता है।’ अपने फैसले को अभूतपूर्व नैतिकता एवं फलसफे में ढालते हुए इसने हमें यह स्मरण करवाया है कि ‘बहु-भाषायी एवं बहु-सांस्कृतिक आवाज़ों के शोर-शराबे में भारतीय नागिरक को एक मनुष्य के तौर पर एवं भारत को एक देश के तौर पर अपने भीतर शांतिपूर्ण सोच का निर्माण करना चाहिए। एक संतुलित समाज में सम्पूर्ण संतुलन तलाशे जाने से ही इसमें न्याय, समानता और अंतर-आत्मा को ढूंढा जा सकता है।’ (पैरा 674) अदालत के एक स्थायी एवं समानतापूर्ण हल ढूंढने के सौहार्दपूर्ण यत्न को दृष्टिगत रखते हुए उस आधार जिस पर कि न्याय प्रदान करने वाली अदालती इमारत खड़ी है, में त्रुटि ढूंढना कठिन है। अदालत ने एक ऐतिहासिक भूल को ठीक करने के लिए समानता का सिद्धांत अपनाया जोकि इसे वाजिब एवं सही प्रतीत हुआ तथा न्याय, भाईचारे, मानवीय छवि एवं धार्मिक समानता जैसे संवैधानिक नैतिक-मूल्यों को भी बरकरार रखा। फैसला इस पक्ष से भी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें बहुत कम मामलों में देखी जाने वाली निर्विरोध एकजुटता वाली सहमति भी दिखाई दी है। प्रत्यक्ष तौर पर यह ऐसा फैसला है जिसमें कानून एवं अदालती न्याय एक साथ खड़े हुए हैं, जिसने कि ‘उपलब्ध जानकारी की सीमाओं के दायरे के भीतर समुचित हल ढूंढने एवं निश्चितता तथा अनुभव, स्थिरता एवं परिवर्तन तथा तर्क एवं भावना में सही संतुलन’ बिठाने के अदालती कार्य को सही साबित कर दिया। (अहारण बराक-द जज इन डैमोक्रेसी, पृष्ठ नं. 106) एक राष्ट्रीय चुनौतीपूर्ण समस्या के हल के लिए अपनी इच्छा एवं समझदारी के साथ अपना विश्वास देश की सर्वोच्च संस्था में व्यक्त करके हमने अदालती सूझबूझ में विश्वास जताया है जो बेशक पूर्ण रूप में सही न भी हो परन्तु अनुभव, कानून एवं तर्क के पक्ष से बढ़िया है। हमें यह मानना पड़ेगा कि हमारी भांति जज भी इतिहास अथवा समाज से भिन्न नहीं हैं तथा न ही उन आन्दोलनों से अनभिज्ञ हैं जोकि समय-समय पर सत्य एवं न्याय के अर्थ बयान करते हैं। न्याय की आम मानी जाती धारणाओं को सुनिश्चित बनाने के लिए जज कानून को अतीत, वर्तमान एवं भविष्य के साथ जोड़ कर जीवित रखते हैं। सही संतुलन सुनिश्चित बनाने के लिए वे सामाजिक सूक्ष्मता एवं आम सोच को अपने कामकाज का हिस्सा मानते हैं जो उन्हें लोकतांत्रिक सिद्धांत के अनुसार अपनी सोच का सृजन करने में सहायक होते हैं। जज कारदोज़ो ने लिखा है कि ‘जज होते हुए मेरा कर्त्तव्य निजी इच्छाओं, धारणाओं एवं फलसफे के अनुसार न होकर समय के लोगों की इच्छाओं, धारणाओं एवं फलसफे के अनुसार कानून की इच्छा अनुसार फैसला  लेना होगा।’ (बी. कारदोज़ो, ‘द नेचर ऑफ दी ज्यूडीशियल प्रोसैस’ पृष्ठ 173)। सामाजिक सद्भावना एवं शांति बनाये रखने की आवश्यकता के दृष्टिगत फैसला लेने के लिए अदालत की ओर से एक सर्वोच्च समस्या को हल किया गया है जिससे कि पूरा देश चिंतित था। फैसले को पूर्ण रूप में देखने के उपरांत कोई व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि यह कोई ‘सामयिक भावुकता’ की उपज नहीं, अपितु सामाजिक जीवन में तालमेल बरकरार रखे जाने की प्राथमिक आवश्यकता के अनुसार है तथा अदालतों के अधिकार क्षेत्र के दायरे के भीतर हल ढूंढे जाने की प्रक्रिया द्वारा प्रेरित है। चाहे सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को निष्कर्ष तौर पर सही अथवा गलत होने का कोई प्रमाण नहीं है, परन्तु कानून के अनुसार इसे न माना जाना केवल संवैधानिक अराजकता के तुल्य ही होगा। एक सही फैसले जिसने कि अदालतों को देश की गौरवमयी ज़मीर की रक्षा न रह जाने के धुंधले बिम्ब को कुछ हद तक साफ किया है, को पुन: विश्लेषण करने का व्यर्थ यत्न केवल उन दरारों को और बढ़ाना होगा जिन्होंने हमारे धर्म-निरपेक्ष लोकतंत्र को खराब किया है तथा बिना आवश्यकता के अदालतों के पहले से बढ़ रहे कामकाज को और बढ़ाया है।

-वरिष्ठ एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
(पूर्व केन्द्रीय कानून एवं न्याय मंत्री) 
ये विचार लेखक के निजी हैं।