आखिर क्यों नहीं बंद हो रहा मिलावट का कारोबार ?

शुद्ध खाओ, स्वस्थ रहो। ये पंक्तियां हम बचपन से सुनते आ रहे हैं। प्राचीनकाल से फल और सब्ज़ियां खाने पर जोर दिया जाता रहा है, क्योंकि हरी ताज़ी सब्ज़ियां स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभदायक होती हैं। परन्तु इन दिनों बाज़ार में मिलावट का खेल इतनी चालाकी और तेज़ी से खेला जा रहा है कि क्या खाएं और क्या न खाएं, क्या असली है, क्या नकली समझ नहीं आ रहा है। खाना हर कोई चाहता है परन्तु मिलावट का डर भी है। पहले महंगाई के कारण थालियों से खाना कम हो रहा था। अब बचा हुआ मिलावट के कारण ज़हरीला होता जा रहा है। बाज़ार में बिक रही हरी सब्ज़ियों और ताजे रसीले फलों की चमक प्राकृतिक न होकर बनावटी है। अधिकांश फलों व सब्ज़ियों को समय से पहले ही तोड़कर उन्हें इन्जेक्शन द्वारा रातों-रात कई गुणा बड़ा कर बाज़ार में बेच दिया जाता है। मिलावट का यह दृश्य 3-4 दशक पहले शायद ही किसी ने देखा-सुना हो। हां, दूध में पानी की मिलावट तो पहले भी सुनते थे, पर वो मिलावट इतनी खतरनाक नहीं थी, जिससे जीवन पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा हो। ये ज़हरीले फल, सब्ज़ियां धीरे-धीरे हमारे स्वास्थ्य पर हावी हो रहे हैं। इनसे हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम होती जा रही है। हमारे शरीर पर खतरनाक असर पड़ रहा है और कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियां बढ़ती जा रही हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मिलावट का गन्दा खेल अपने चरम पर है और यह भस्मासुर की तरह लगातार बढ़ता जा रहा है। सरसों के तेल में बिनौले के बीज की मिलावट, आइसक्रीम जिसे बच्चे गर्मियों में लगभग रोज़ ही खाते हैं, उसमें सैकरीन व वाशिंग पाउडर, शहद में चीनी का घोल, कॉफी में चिकोरी, चायपत्ती में इस्तेमाल की हुई पत्ती, लाल मिर्च को ईंट के पाउडर की मदद से गहरा रंग दिया जाता है। गुणकारी हल्दी जिसे सबसे अच्छा एंटी बायटिक माना जाता है, उसमें पीला रंग मिलाया जाता है। पपीते के बीज मिलाकर काली मिर्च बेची जा रही है। हींग में सोप स्टोन और मिट्टी मिलाकर उपभोक्ता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।सब्ज़ियों को रंग देने के लिए जो हरा रंग प्रयोग किया जा रहा है, वह पदार्थ लीवर और किडनी को प्रभावित कर रहा है और स्त्रियों में बांझपन और पुरुषों में नपुंसकता पैदा हो रही है। नौनिहाल हमारे जो सिर्फ दूध पीकर ही स्वस्थ रहते हैं, उन नवजात शिशुओं को रसायनयुक्त सिंथेटिक दूध मिलाकर पिलाने से बच्चों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता खत्म होती जा रही है।‘आक्सीटोसिन’ वही इंजेक्शन है, जो भैंस को लगाया जाता है, जिससे दूध अधिक मात्रा में निकलता है। इसे ही आजकल सब्ज़ियों में लगाकर रातों-रात सब्ज़ियों को कई गुणा बड़ा किया जा रहा है। इसके ज्यादा मात्रा में शरीर में जाने से कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियां हो रही हैं। मिलावट के इस गोरख-धंधे में खाद्य विभाग भी अनभिज्ञ नहीं है। परन्तु खाद्य विभाग इस पर पता नहीं क्यों ठोस कदम नहीं उठाता? यूं तो मिलावट के इस अपराध में शामिल होने पर कम से कम 6 महीने की कैद और 1000 रुपए का जुर्माना तय है और अगर मिलावटी खाने से उपभोक्ता की मृत्यु हो जाती है तो आरोपी को 3 वर्ष से आजीवन कारावास तक की सज़ा हो सकती है और 5 हज़ार रुपए का दण्ड भी। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में अपराध के लिए दण्ड का प्रावधान नहीं है। देश का दुर्भाग्य यह है कि इन पर अमल ठीक से नहीं होता। सब कुछ मालूम होते हुए भी इन मिलावटखोरों पर नकेल क्यों नहीं डाली जाती? सब कुछ जानकर भी आला अफसर (संबंधित विभाग के) मूक-दर्शक क्यों बने हैं? और जनता मजबूर होकर यह सब ज़हरीला खाना खाने को मजबूर हैं। खाने वाला हर निवाला ज़हरीला होता जा रहा है। इससे पहले कि खाने में मिलावट की जगह कृत्रिम रंगों, रसायनों में शुद्ध खाना नाममात्र का हो हमें सतर्क हो जाना चाहिए, वरना वो दिन दूर नहीं जब हमें यह पूछना पड़े कि क्या कोई चीज ऐसी भी है, जो शुद्ध हो। मिलावट से पार पाना इतना मुश्किल भी नहीं है। ज़रूरत सिर्फ इतनी है कि उपभोक्ता, किसान, विक्रेता और सरकारें सब अपना कर्त्तव्य व धर्म ईमानदारी से निभाएं ताकि शुद्ध खाकर स्वस्थ तन मिल सके।