वापसी

अपना अधिकार जमाना चाहती है। उस दिन भी मेरे बालों में उंगलियां फेरते हुए कैसा शानदार मूड खराब किया था इसने। पूछती थी, ‘आपको यह आदत लगी कहां से?’ अब इसे एक्सप्लेनेशन दूं। जवाबदेह जो हूं, इसके सामने। आदतें कहीं सोच-समझकर डाली जाती हैं। कवि-सम्मेलनों में जाता था। मुफ्त की मिलती थी। सब लोग पीते थे, कवि भी, संयोजक भी। पहले दो-तीन कवि सम्मेलनों पर तो छूकर भी नहीं देखी। सब लोग हैरान थे कि कवि होकर शराब नहीं पीता हूं। फिर एक बार सोचा, इसे चखकर तो देखूं। फिर जहां-जहां हराम की मिलने लगी, वहां-वहां पीने लगा। दो-एक मित्र थे, मेरे प्रशंसक, वे पिलाने लगे। मैंने मैत्री का क्षेत्र बढ़ा लिया। अब अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई है। न कोई कवि-सम्मेलन में बुलाता है, न मित्र ही सीधे मुंह से बात करते हैं। सुना है, उनको शिकायत है कि पीकर बहक जाता हूं। भई, पीकर मौनव्रत तो धारण किया नहीं जा सकता। कुछ न कुछ तो बोलना ही पड़ता है। अब अगर किसी को बुरा लगता है तो मेरे पास इसका क्या इलाज है। शराब पियेंगे तो चढ़ेगी ही। न चढ़े तो पीने का लाभ ही क्या। छाती को कब से दोनों हाथों से दबाए हुए हूं। परन्तु दर्द बन्द नहीं हो पा रहा है। मन चाहता है, उठकर माचिस की तीली घिसाऊं और सारा घर जला दूं। नहीं तो जूता उठाकर रेखा को ही कैप्सूल बाहर फैंकने का मज़ा चखा दूं।
दरवाज़ा खुल रहा है। शायद छाया आई होगी। रेखा ने भेजा होगा कि जाकर डैडी से पूछ ले, खाना खायेंगे कि नहीं। खाना जाए भाड़ में। मैं तो इसके बनाए खाने पर थूकता भी नहीं। अपने आप को समझती क्या है। बैठी होगी मुंह फुलाए, चूल्हे के पास। थाली में रोटी रखकर मेरे सामने पटक देगी और मेरी ओर देखेगी भी नहीं। खाना खाने जाती है मेरी जूती। मैं निकलता ही कहा हूं लिहाफ से। बिजली का स्विच ऑन किया गया है। छाया का हाथ इतनी ऊंची दीवार पर नहीं पहुंचता। रेखा ही होगी। आई होगी किसी काम से, मुझे क्या। चप्पलों का खड़ाक् मेरी चारपाई के निकट आ गया है। रेखा ने मेरे सिर से लिहाफ खींच लिया है। उसकी हथेली पर वही दो कैप्सूल रखे हुए हैं। एक हाथ में पानी का गिलास है। मुझसे कुछ नहीं कह रही है। उसकी आंखें भी अब भरी हुई नहीं हैं। उसके चेहरे पर अब कोई भाव नहीं है, न हर्ष, न विषाद। अद्भुत निर्लिप्त भाव से मेरे पास खड़ी है। मैं लिहाफ में से निकलकर बैठ गया हूं। कैप्सूल मेरी आंखों के सामने है। जानता हूं, ये कैप्सूल छाती का दर्द बंद करेंगे।  इनसे शराब जैसा नशा हो जाता है। मुस्कुराकर दोनों कैप्सूल रेखा के हाथ से ले लाता हूं। वह पानी का गिलास मेरी ओर बढ़ा रही है। मैं भी कुछ नहीं बोल रहा हूं। उठकर गली में खुलने वाली खिड़की खोलता हूं। दोनों कैप्सूल नीचे की नाली में फेंक देता हूं। रेखा अब भी निर्लिप्त भाव से मेरी ओर देख रही है। मेरा मन चाहता है, रेखा को बांहों में भरकर चूम लूं। परन्तु मैं ऐसा नहीं कर रहा हूं। दीवार के पास पड़ी चप्पल पहनकर कहता हूं, ‘चलो, खाना-वाना बना हो तो खिलाओ।’ 

-169, सैक्टर-17, पंचकूला-134109