क्या गठजोड़ राजनीति संबंधी भी कुछ मापदंडों की ज़रूरत है ?

एक प्रतिष्ठित टिप्पणीकार ने याद दिलाया है कि 2014 में नरेंद्र मोदी ‘खाऊंगा, न खाने दूंगा’ का नारा देकर सत्ता में आए थे (हालांकि यह बात हमें हमेशा याद रहती है)। उनका यह भ्रष्टाचार विरोधी वायदा जनता को बहुत पसंद आया था। लेकिन, महाराष्ट्र में जब राज्यपाल ने देवेंद्र फड़नवीस और अजीत पवार को क्रमश: मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी, तो उसके बाद नरेंद्र मोदी की पार्टी (जिसे उसके समर्थक गर्व से दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कहते हैं) द्वारा बड़े पैमाने पर ‘खाना खिलाने’ का बंदोबस्त शुरू किया गया, ताकि विधायकों को महाराष्ट्र के ‘विकास’ और ‘किसानों का कल्याण’ करने के लिए ‘मनाया’ जा सके। ज़ाहिर था कि ‘खाना खाने’ के लिए उत्सुक विधायकों का पेट भरने के बाद भी मोदीजी की पार्टी के पास बहुत सारा ‘खाना’ बच जाने वाला था। टीवी के मंचों पर इस पार्टी का दिन-रात बचाव करने वाले टिप्पणीकारों का दावा था कि भले ही शरद पवार ने 162 विधायकों की एकता प्रदर्शित कर दी हो, लेकिन जितने विधायक तोड़ने ज़रूरी थे, उन्हें तो पहले ही ‘पेमेंट’ किया जा चुका है। वे कहीं भी रहें, कहीं भी हाथ उठाते रहें, शपथ लेते रहें, लेकिन उन्हें वोट तो भाजपा को ही देना है। ऐसा कहते समय इन टिप्पणीकारों के चेहरे पर गर्व और संतोष के भाव होते थे। यह अलग बात है कि परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि भर पेट ‘खाना खिलाने’ का प्रस्ताव विधायकों को पसंद नहीं आया, और फड़नवीस व पवार को विधानसभा में शक्ति-परीक्षण के पहले ही इस्तीफा दे देना पड़ा। ‘खाना खिलाने’ की कोशिश नाकाम हो गई। लेकिन यह कामयाब भी हो सकती थी। तब क्या होता? इस प्रश्न पर विचार करना ज़रूरी है।  आश्वस्ति भाव से कहा जा रहा है कि संविधान दिवस पर महाराष्ट्र में संविधान की जीत हुई है। बात सही है, लेकिन सोचना तो यह होगा कि महाराष्ट्र में संविधान खतरे में पड़ा ही क्यों था? सुप्रीम कोर्ट के आदेश में इस प्रश्न की ओर स़ाफ तौर पर इशारा दिखाई पड़ता है। लेकिन, यह भी मुख्य तौर पर राज्यपाल की भूमिका और शपथ दिलाने के तऱीके तक सीमित है। समस्या कहीं अधिक गहन और व्यापक होने के साथ-साथ धीरे-धीरे अपनी प्रकृति में लाइलाज हो चुकी है। समस्या यह है कि हमारे संविधान के पास गठजोड़ राजनीति के लिए मोटे तौर पर कोई आचार संहिता नहीं है। हर नया राज्यपाल अस्पष्ट बहुमत की स्थिति मेें अपने फैसलों से  नयी विकृतियां पैदा करता है। पार्टियों के नेता मनचाही रणनीतियों का इस्तेमाल करके विचित्र और बेमेल किस्म के गठजोड़ बनाते रहते हैं। चुनाव तो जनता के दरबार में होते हैं, लेकिन लक्ज़री रिज़ॉर्ट और पांच सितारा होटलों में होने वाला लोकतंत्र में सत्ता का खेल ‘हमाम में सब नंगे’ की स्थिति में पहुंच जाता है। ऐसा बार-बार होता है, फिर भी हम नहीं चेतते। हम चुनाव से ठीक पहले लागू होने वाली आचार-संहिता से भी नहीं सीखते। टी.एन. शेषन ने इसे बनाया और लागू किया था जिसके कारण हमारी चुनाव-प्रक्रिया की ़खासी स़फाई हो गई। इसी तरह अगर गठजोड़ राजनीति की भी कोई आचार-संहिता बन जाए तो कुछ न कुछ संयम और कोई न कोई नैतिक मानक राज्यपालों से लेकर पार्टियों तक लागू हो जाएगा। अब यह स्पष्ट हो गया है कि स़िर्फ बोम्मई केस का फैसला आचार- संहिता का विकल्प नहीं हो सकता। महाराष्ट्र में यह तक स्पष्ट नहीं था कि विधानसभा में वोटिंग होते समय राष्ट्रवादी कांग्रेस का च़ीफ व्हिप कौन होगा? क्या वह जो विधायक दल का नेता (यानी अजित पवार) है, और जिसने राज्यपाल के सामने भाजपा को समर्थन देने का दावा किया है? या वह जिसकी सूचना (जयंत पटेल) राष्ट्रवादी कांग्रेस ने विधानसभा के सचिवालय को भेजी है? तकनीकी रूप से यह तक स़ाफ नहीं है कि शक्ति-परीक्षण और विश्वासमत दो अलग-अलग श्रेणियां हैं, या दोनों एक ही बात हैं? क्या विश्वासमत के समय सबको भाषण देने का अधिकार होता है, और शक्ति-परीक्षण के समय वोट पड़ने के अलावा और कोई गतिविधि नहीं हो सकती? इस बात का भी कोई जवाब नहीं है कि अगर च़ीफ व्हिप के आदेश को दो-तिहाई या उससे ज़्यादा विधायक मानने से इंकार कर दें, तो क्या होगा? सवाल और भी हैं। जैसे, क्या विधायक दल का नेता कोई और, च़ीफ व्हिप कोई और हो सकता है? यह भी पूछने लायक है कि क्या प्रो-टेम स्पीकर को (जो राज्यपाल द्वारा नियुक्त किया जाता है) को मतविभाजन जैसी निर्णायक गतिविधि का संचालन करने का म़ौका दिया जाना चाहिए? दरअसल, महाराष्ट्र के घटनाक्रम ने इस मसले को और जटिल बना दिया है। पहले समझा जाता था कि गठजोड़ राजनीति में सरकार बनाने का सर्वाधिक नैतिक अधिकार चुनाव-पूर्व गठजोड़ को होता है। इसी लिहाज़ से मेरे जैसे लोग सलाह देते थे कि गठजोड़ात्मक सरकार बनाने का म़ौका चुनाव-उपरांत गठबंधन को मिलना ही नहीं चाहिए। लेकिन, महाराष्ट्र पूछ रहा है कि अगर चुनाव-पूर्व गठजोड़ बहुमत जीतने के बाद सत्ता के बंटवारे के सवाल पर टूट जाए तो क्या स्थिति बनेगी? इस सवाल का एक सम्भावित जवाब यह हो सकता है कि किसी भी तरह का गठजोड़ बनाने के भी कुछ ़कानूनी मानक होने चाहिए। उसी तरह जैसे पार्टी बनाने के होते हैं, जैसे पार्टी मान्यताओं के विभिन्न स्तर होते हैं और जैसे पार्टियों को एक निश्चित स्तर की संवैधानिक व़फादारियों की कसम खानी होती है। अगर चुनाव-पूर्व गठजोड़ चुनाव जीतने के बावजूद सरकार बनाने से पहले भंग हो जाता है, तो उनके ‘मेमोरेंडम ऑ़फ अंडरस्टेंडिंग’ सरीखे किसी दस्तावेज़ के आधार पर यह पता लगाया जा  सकेगा कि उनमें से किस पक्ष ने गड़बड़ी की।  अब यह तकरीबन स्पष्ट हो चुका है कि भाजपा और शिवसेना ने मिल कर चुनाव लड़ा, लेकिन वे दोनों एक-दूसरे को ठिकाने लगाने के मंसूबे के साथ काम कर रहे थे। भाजपा चाहती थी कि वह अकेले दम पर बहुमत के करीब पहुंच जाए, ताकि उसे हरदम गाली देते रहने वाली शिव सेना को हमेशा के लिए फिट किया जा सके। दूसरी तऱफ शिव सेना पहले से तय किये बैठी थी कि जैसे ही नतीजे आएंगे, वह फड़नवीस के नीचे से ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन लेगी। उसने यह भी सोच लिया था कि भाजपा उसकी मांग नहीं मानेगी और उस सूरत में उसे कांग्रेस या शिव सेना से साजबाज़ करना होगा। इसके लिए उद्धव ठाकरे ने एकदम शुरू से ही भाजपा के लिए अपने दरवाज़े पूरी तरह से बंद कर दिये। मिलना तो दूर, एक बार भी फड़नवीस का फोन तक नहीं उठाया। दरअसल, यह एक ऐसी चुनाव-पूर्व दोस्ती थी जिसमें दोनों पक्ष प्रारम्भ से ही एक-दूसरे को बरबाद करने के लिए पेशबंदी कर रहे थे। इन दोनों के बीच सत्ता के बंटवारे पर झगड़ा होने के अंदेशे पहले से थे। अब समय आ गया है कि संविधान-विशेषज्ञ, दूरंदेशी रखने वाले राजनेता और नागरिक जीवन की बड़ी हस्तियां एक साथ बैठ कर गठजोड़ राजनीति के व्यापक मानकों का सूत्रीकरण करें। यही महाराष्ट्र का संदेश है।