क्या अकाली दल मजबूती से पुन: उभर सकेगा ?

अकाली राजनीति के मंच पर राजनीतिक गतिविधियां एक बार फिर तेज़ हो गई हैं। अकाली दल (बादल) द्वारा गत लम्बे समय से सदस्यता की भर्ती के लिए मुहिम चलाई गई थी। सदस्यता के लिए सहयोगी पार्टी भाजपा के साथ मुकाबला होने के कारण अकाली नेताओं ने विशेष तौर पर भर्ती की ओर अधिक ध्यान दिया था। अब इस सदस्यता के आधार पर ही अलग-अलग ज़िलों में डैलीगेट चुने जा रहे हैं, जोकि 14 दिसम्बर को अमृतसर में तेजा सिंह समुद्री हाल में अकाली दल के होने वाले डेलीगेट इज़लास में हिस्सा लेंगे और नए अध्यक्ष का चुनाव करेंगे। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 14 दिसम्बर, 1920 को अकाली दल की स्थापना हुई थी और इस ऐतिहासिक दिन को मुख्य रखकर ही अमृतसर में अकाली दल ने अपना स्थापना दिवस मनाने और इसी दिन अपना नया अध्यक्ष चुनने का फैसला किया है।
दूसरी तरफ 2017 के विधानसभा चुनावों और उसके बाद 2019 में हुए लोकसभा चुनावों में अकाली दल की कारगुज़ारी खराब रहने के कारण और अकाली दल द्वारा श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी के मामले से सही ढंग से न निपट सकने तथा डेरा सिरसा प्रमुख को सिंह साहिबान द्वारा क्लीन चिट दिलाने आदि के मामलों को लेकर अकाली दल के स्थापित नेतृत्व के विरुद्ध रोष प्रकट करते हुए पार्टी के बहुत सारे वरिष्ठ नेताओं ने अकाली दल को अलविदा कह दिया था। इन नेताओं में रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा, डा. रत्न सिंह अजनाला और सेवा सिंह सेखवां आदि नेता शामिल थे। बाद में इन नेताओं द्वारा अकाली दल टकसाली की स्थापना की गई थी। इसके द्वारा अन्य कुछ हम-ख्याल मिलकर लोकसभा की आनंदपुर साहिब की सीट से चुनाव भी लड़ा गया था, परन्तु इस नये बने अकाली दल को लोगों का कोई अधिक समर्थन नहीं मिला था। लोकसभा के चुनावों के बाद काफी समय असक्रिय रहने के बाद अब एक बार फिर  अकाली दल टकसाली ने सक्रियता पकड़ी है और इस दल के द्वारा सुखदेव सिंह ढींडसा, वरिष्ठ अकाली नेता को इस बात के लिए सहमत किया गया है कि वह अकाली दल टकसाली की ओर से अमृतसर में रखी गई कन्वैंशन में शामिल हों। यह भी समाचार प्रकाशित हुए हैं कि लोक इन्साफ पार्टी के नेताओं सिमरजीत सिंह बैंस और बलविन्द्र सिंह बैंस को भी दल ने अमृतसर की प्रस्तावित कन्वैंशन में शामिल होने के लिए निमंत्रण दिया है। अकाली दल टकसाली के नेताओं को यह भी उम्मीद है कि सुखदेव सिंह ढींडसा के अलावा  अकाली दल (बादल) के अन्य भी अनेक नेता उपरोक्त कन्वैंशन में शामिल होने के लिए आ सकते हैं। 
 अकाली दल (टकसाली) के नेताओं का आरोप है कि  अकाली दल बादल में इस समय आन्तरिक लोकतंत्र की बहुत ज्यादा कमी है। पार्टी के वरिष्ठ नेतृत्व द्वारा सभी अहम फैसले स्वयं लिए जाते हैं और निचले स्तर पर कार्यकर्ताओं के साथ पर्याप्त विचार-विमर्श भी नहीं किया जाता। इनका यह भी आरोप है कि समूची पार्टी बादल परिवार के आसपास ही घूमती है। पार्टी के भीतर संगठनात्मक चुनाव भी लोकतांत्रिक ढंग से नहीं होते। इस कारण दशकों तक मेहनत करने वाले कार्यकर्ताओं और नेताओं को आगे आने के पर्याप्त अवसर नहीं मिलते। इन नेताओं का विचार है कि अकाली दल के भीतर लोकतंत्र की बहाली इस समय सबसे बड़ी ज़रूरत है, परन्तु क्योंकि अकाली दल बादल का नेतृत्व इसके लिए तैयार नहीं है। इस कारण उनको अकाली दल बादल छोड़कर अलग अकाली दल बनाना पड़ा था। अब उनका दावा है कि वह 1920 में बने अकाली दल और उसकी विचारधारा को पुन: सजीव करके सिख पंथ के सामने  अकाली दल बादल का एक विकल्प पेश करेंगे।
यदि अकाली दल (टकसाली) के नेताओं के दावे के अनुसार 14 दिसम्बर को अमृतसर में होने वाली उनकी कन्वैंशन को अकाली कार्यकर्ताओं तथा नेताओं का अच्छा समर्थन मिलता है और उसमें सुखदेव सिंह ढींडसा सहित अकाली दल बादल के कुछ अन्य नेता भी शामिल हो जाते हैं तो नि:संदेह अकाली दल बादल के लिए भी एक बड़ा झटका होगा। अकाली दल (बादल) के लिए इससे धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्र में मुश्किलें बढ़ेंगी। जहां तक अकाली दल (बादल) की आन्तरिक स्थिति है, उसमें सुखबीर सिंह बादल के नेतृत्व को फिलहाल कोई बड़ी चुनौती दरपेश नहीं है। उनके सर्वसम्मति से एक बार पुन: अकाली दल के अध्यक्ष बनने की सम्भावनाएं मजबूत हैं, परन्तु जहां तक पंजाब की राजनीतिक स्थिति का संबंध है, उनके समक्ष अनेक चुनौतियां मौजूद हैं। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि  अकाली दल (बादल) भाजपा के साथ अपने संबंधों का संतुलन बनाने में बुरी तरह असफल हो रहा है। भाजपा गत लम्बे समय से अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए लोगों का साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण कर रही है। इस कारण देश के अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना पाई जा रही है। अल्पसंख्यकों से संबंधित लोगों पर अलग-अलग राज्यों में कातिलाना हमले भी हुए हैं। गौ-रक्षा के नाम पर उत्तेजित भीड़ द्वारा अल्पसंख्यकों से संबंधित लोगों को पीट-पीट कर मारा गया है। भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को हटाने के साथ-साथ उस राज्य को दो केन्द्र शासित क्षेत्रों में भी बांट दिया है। भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार का यह कदम भी राज्यों के अधिकारों को नुक्सान पहुंचाने वाला है। दूसरी तरफ  अकाली दल ने हमेशा राज्यों को अधिक अधिकार देने की बात पर जोर दिया है। परन्तु इसके बावजूद अकाली दल (बादल) ने जम्मू-कश्मीर राज्य का दर्जा खत्म करने और वहां से धारा 370 हटाने के बिल का लोकसभा में समर्थन किया था। टकसाली नेता और अकाली दल के अन्य समर्थक इसको सिद्धांतों से समझौता करने वाली बात करार दे रहे हैं। 
नागरिकता संशोधन बिल के मामले में भी चाहे अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने लोकसभा में इस बिल में अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा बंगलादेश से आने वाले शरणार्थी सिखों, हिन्दुओं, इसाइयों और बौद्धियों के साथ-साथ मुसलमानों को भी शामिल करके नागरिकता देने की बात की है। परन्तु भाजपा को क्योंकि अपने तौर पर बहुमत प्राप्त है, उसकी अकाली दल की इस बात की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया। इसको भी अकाली गलियारों में अकाली दल की विचारधारा के लिए एक झटका समझा जा रहा है। क्योंकि अकाली दल गुरु साहिबान की विचारधारा का स्वयं को वारिस मानता हुआ ‘मानस की जात सभै एको पहचानबो’ में विश्वास रखने का दावा करता है। दूसरी तरफ अकाली दल (टकसाली) के नेताओं और  अकाली दल (बादल) के स्थापित नेतृत्व के अन्य विरोधियों की इस बात में दम अवश्य है कि गत लम्बे समय से अकाली दल (बादल) पर एक तरह से बादल परिवार का ही कब्ज़ा चला आ रहा है और पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक ढंग से फैसले नहीं लिए जाते और न ही लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव होते हैं। इसी कारण अनेक बार पार्टी गलत फैसले ले लेती है और जिस कारण उसकी छवि को भारी ठेस पहुंचती रही है। यदि  अकाली दल (बादल) के विरुद्ध लगातार इस तरह का प्रभाव बना रहता है और वह बड़े स्तर पर सिख समुदाय का विश्वास पुन: जीतने में सफल नहीं होता तो  गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के आगामी चुनावों में बड़ी परीक्षा में से गुजरना पड़ सकता है। 
दूसरी तरफ अकाली गलियारों में पैदा हो रही इस तरह की बेचैनी का लाभ  अकाली दल (टकसाली) या अन्य विरोधी पार्टियों को अवश्य मिलेगा। चाहे हाल के समय  अकाली दल (टकसाली) तथा अन्य गैर-कांग्रेसी पार्टियां धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्र में अकाली दल  (बादल) के लिए कोई बड़ी चुनौती पैदा करती नज़र नहीं आ रही परन्तु आगामी समय में यदि  अकाली दल (बादल) अपने घर में सुधार नहीं करता खासतौर पर पार्टी के भीतर लोकतंत्र को मजबूत नहीं किया जाता और भाजपा की साम्प्रदायिक नीतियों के विरुद्ध स्टैंड नहीं लिया जाता तो आगामी समय में स्थितियां बदल भी सकती हैं। राजनीतिक क्षेत्र के भीतर चाहे इस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाली राज्य सरकार से भी लोगों का असंतोष बढ़ रहा है और राज्य की अन्य राजनीतिक पार्टियां भी फिलहाल किसी बेहतर स्थिति में नज़र नहीं आ रहीं परन्तु यदि अगले वर्ष के शुरू में होने वाले दिल्ली विधानसभा के चुनावों में केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी अच्छी कारगुज़ारी दिखाने में सफल हो जाती है तो उसका असर पंजाब की राजनीति पर भी पड़ सकता है। इस समय भी आम आदमी पार्टी चाहे काफी कमज़ोर हो चुकी है, परन्तु मालवा क्षेत्र के 40 से अधिक क्षेत्रों में अभी भी आम आदमी पार्टी के पांच से लेकर 7 हज़ार तक मतदाता मौजूद हैं। यदि दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद पंजाब की आम आदमी पार्टी में एक बार फिर से उभार आता है तो इसका भी  अकाली दल (बादल) की भविष्य की सम्भावनाओं पर असर पड़ेगा।
इस समय अकाली दल (बादल) के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि वह अकाली गलियारों में पैदा हुई बेचैनी को दूर करने के लिए पार्टी के आन्तरिक कामकाज में लोकतंत्र को मजबूत करे, जहां तक पार्टी के संगठनात्मक चुनावों का संबंध है, उनके संदर्भ में यह नियम अवश्य बनाया जाना चाहिए कि कोई भी पार्टी अध्यक्ष लगातार दो कार्यकाल से अधिक अध्यक्ष न रहे। इस संबंध में  अकाली (बादल) को अपनी सहयोगी पार्टी भाजपा से भी सबक सीखना चाहिए, जोकि राष्ट्रीय स्तर पर अपने अध्यक्ष को दो कार्यकालों के बाद निरन्तर तीसरी बार अध्यक्ष बनने की अनुमति नहीं देती। चाहे कुछ वर्षों का अन्तर डालकर संबंधित नेता को पुन: अध्यक्ष बनने का अवसर अवश्य दे दिया जाता है। इससे  अकाली दल (बादल) पर लगा परिवारवाद का धब्बा दूर हो सकता है और पार्टी में लोकतंत्र लौट सकता है तथा इस कारण अकाली गलियारों में पैदा हो रहा असंतोष भी खत्म हो सकता है। अब यह देखना अकाली दल (बादल) के स्थापित नेतृत्व का कार्य है कि वह इस संबंध में क्या रुख अपनाता है।