पूर्वोत्तर में भाजपा का वाटरलू साबित हो सकता है ' कैब '

जैसे ही केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सोमवार को लोकसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक (कैब) पेश किया, पूरे पूर्वोत्तर में गुस्सा, आक्रोश और विश्वासघात की भावना पैदा हो गई। विश्वासघात, क्योंकि 1985 के जिस असम समझौते में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने हस्ताक्षर किए थे, उसमें पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश के प्रवासियों को नागरिकता देने के लिए कट-ऑफ  तारीख के रूप में 24 मार्च, 1971 तय की गई थी। लेकिन इस विधेयक में यह तारीख 31 दिसंबर 2014 तय कर दी गई है। दूसरे शब्दों में पिछले 44 वर्षों के दौरान बांग्लादेश से असम और पूर्वोत्तर राज्यों में आकर प्रवास करने वाले सभी लोगों को नागरिकता दी जाएगी। इन राज्यों में डर यह है कि उनका जनसांख्यिकीय पैटर्न बदल जाएगा क्योंकि इनमें से अधिकांश प्रवासी इस क्षेत्र में रह रहे हैं। कैब के पास होने से वे नागरिक बन जाएंगे। यदि किसी सरकार द्वारा हस्ताक्षरित समझौते को बाद की सरकार द्वारा इस तरह से खारिज कर दिया जाता है, तो इस तरह के समझौतों की पवित्रता क्या बनी रहती है? वे पूछ रहे हैं। उन्हें लगता है कि यह विधेयक भी असंवैधानिक है क्योंकि यह उन हिंदुओं, ईसाइयों, सिखों, जैन, बौद्धों और पारसियों को नागरिकता प्रदान करने के लिए सहमत होने साथ-साथ मुसलमानों से भेदभाव करता है। बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले अन्य लोगों को तो भारत की नागरिकता मिल जाएगी, लेकिन वहां से आए हुए मुसलमानों को नागरिकता नहीं मिल पाएगी। यह भारत के धर्म-निरपेक्ष संविधान के खिलाफ है। असम गण परिषद (एजीपी) जो बिल का विरोध कर रही थी, अब अचानक बिल का समर्थन करने लगी है और ऐसा करते हुए गोलमोल जवाब दे रही है। एजीपी भाजपा की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार में भागीदार है और एजीपी अध्यक्ष अतुल बोरा भाजपा के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। विडंबना यह है कि सोनोवाल एक बार ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के अध्यक्ष थे, जिसने 1979 से 1985 तक असम में विदेशी-विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया। यह आंदोलन असम समझौते पर हस्ताक्षर के साथ समाप्त हुआ था। आज, सोनोवाल खुद को बैरिकेड के दूसरी तरफ  पाते हैं। वे उसी आसू की खुद 1992 से 1999 तक अगुवाई कर रहे थे। रविवार को गुस्साए छात्रों की भीड़ ने कैब को समर्थन देने के लिए असम गण परिषद यानी एजीपी के डिब्रूगढ़ कार्यालय में तोड़-फोड़ की। प्रदर्शनकारियों का सामना करने में असमर्थ, उस समय कार्यालय में मौजूद पार्टी के पदाधिकारी डर के मारे भाग गए। ‘असमिया प्रतिदिन’ नामक व्यापक रूप से प्रसारित असमी अखबार के संपादक नित्या बोरा ने कहा कि कैब की वजह से अगले चुनावों में भाजपा का असम से सफाया हो जाएगा। कैब भाजपा का असम में वाटरलू साबित होगा। उत्तर-पूर्वी राज्यों के आदिवासी इलाकों में गुस्से की जबर्दस्त लहर है। कैब ने बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873 के साथ-साथ असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा में संविधान की 6वीं अनुसूची में जनजातीय क्षेत्रों के तहत इसके दायरे से छूट दी है। विधेयक में कहा गया है कि ‘इस खंड में शामिल प्रावधान असम, मेघालय, मिजोरम या त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा। इसके बावजूद वहां हो रहे जबर्दस्त आंदोलन से जाहिर होता है कि इस प्रावधान से क्षेत्र के आदिवासी लोग आश्वस्त नहीं हैं। उनका डर अकारण भी नहीं है। उदाहरण के लिए, नागालैंड को ही लीजिए। कोई भी गैर-नागा इस राज्य में कोई व्यवसाय शुरू नहीं कर सकता है। लेकिन कानूनी अड़चन आसानी से दूर हो जाती है। एक गैर-नागा अपने व्यापार भागीदार के रूप में एक नागा लेता है और उसके नाम में एक व्यवसाय शुरू करता है। नागा लाइसेंसधारी को हर महीने एक राशि का भुगतान किया जाता है लेकिन व्यवसाय गैर-नागा व्यवसायी द्वारा नियंत्रित और चलाया जाता है। यह और अधिक आसान हो जाता है यदि कोई गैर-नागा नागा महिला से शादी कर ले। भले ही विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित हो जाय, फिर भी एक और संसद होगी जो लोकतंत्र में सबसे सर्वोच्च निकाय है  और वह है जनता की संसद। लोगों का सामना करना और उनसे विधेयक की मंजूरी लेना भाजपा के लिए अंतिम लिटमस टेस्ट होगा। भाजपा ने कैब के मुद्दे पर पूर्वोत्तर के लोगों को अलग-थलग कर दिया है, जबकि उसने असम के बंगाली भाषी हिंदुओं और मुसलमानों को राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) से अलग कर दिया है। और यह ऐसे समय में हो रहा है जब पूरे भारत में सामान्य लोग अधिक से अधिक आर्थिक मंदी की चपेट में आ रहे हैं और मोदीनॉमिक्स से उनका मोहभंग हो रहा है। इन दोनों का संयुक्त प्रभाव उत्तर-पूर्व में भाजपा के लिए अच्छा नहीं है, जिसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह अब अपना मजबूत गढ़ मानने लगे हैं। (संवाद)