न्याय को दकियानूसी ज़ंजीरों में जकड़ा नहीं जा सकता

भारत की न्यायपालिका अपने मान-सम्मान के प्रति आवश्यकता से अधिक संवेदनशील है और यदि उसके निर्णयों अथवा कार्य विधि की आलोचना की जाती है, तो वह उसे कम सहन कर पाती है। न्यायपालिका की अवमानना को लेकर जो कानून अंग्रेज़ों ने बनाया था, लगभग वही कानून आज भी लागू है, जबकि यह कानून संविधान की अद्देशिका व लोकतंत्र के आदर्शों से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता। अदालत की अवमानना को लेकर जो कानून सामंतवादी व उपनेशवादी सत्ता ने बनाया, उसका उद्देश्य न्यायिक निरंकुशता व बर्बरता के प्रति भारत की जनता का मुंह बंद रखना था। अच्छा यह होता कि स्वतंत्र भारत में न्यायिक अवमानना संबंधी कानून को विश्व के अन्य प्रमुख लोकतांत्रिक देशों के स्तर का बनाया जाता व इस कानून में अधिनायकवाद और निरंकुशता की जो बदबू है, उससे उसे मुक्ति दिलाई जाती, पर ऐसा किया नहीं गया और फिर भी उम्मीद यह की जाती है कि सामंतवाद, अधिनायकवादी व उपनिवेशवादी शक्ल को जिंदा रखते हुए अथवा उससे प्रभावित होने के बाद भी न्याय व्यवस्था से लोकतंत्र को पोषण प्रदान हो जायेगा। पिछले लगभग पचास वर्षों से ज्यादा सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों से जजों के पदों पर बैठे व्यक्तियों के बदलने के साथ-साथ जिस तरह न्याय व उसकी परिभाषा बदली है तथा जिस तेज़ी से बदली है, वैसी हालत दुनिया में बहुत ही कम देखने को मिलती है। वैसे इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि न्याय एक जीवंत अवधारणा है तथा उसे दकियानूसी की जंजीरों में जकड़ा नहीं जा सकता। परन्तु जीवंत अवधारणा का अर्थ यह नहीं हो सकता कि सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्तर पर न्याय देने की जो घोषणा है, उसे न्यायधीश को व्यक्तिगत मान्यताओं पर छोड़ दिया जाए। ‘सामाजिक न्याय’ की ही बात को यहां ले लिया जाए तो जिन दिनों सर्वोच्च न्यायालय में जस्टिस कृष्ण अय्यर की तूती बोलती थी, उन दिनों सामाजिक न्याय सिद्धांत का प्रयोग एक निरंकुश व घातक अस्त्र के रूप में इस भावना से प्रेरित होकर किया गया कि सम्पन्न वर्ग की सम्पन्नता उसके द्वारा किए गए सामाजिक शोषण का प्रतिफल है। यह मान्यता भी अनेक बार न्याय का आधार बनीं कि निर्बल व निर्धन व्यक्तियों के अपराधों को इसलिए अनदेखा कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे सदियों से शोषित और दुर्बल रहे हैं।

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