नागरिकता संशोधन बिल पर केन्द्र सरकार की मुश्किलें बढ़ीं

केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने नागरिकता संशोधन बिल तो बहुत जद्दोजहद के बाद पास करवा लिया, परन्तु यह उसके गले की फांस बनता नज़र आ रहा है। एक तरफ तो सरकार की इस बात से आलोचना हो रही है कि उसने संशोधन बिल से मुसलमान शरणार्थियों को बाहर कर दिया है, तो दूसरी तरफ उत्तर पूर्वी राज्यों में इसलिए इसका विरोध हो रहा है कि वहां बड़ी संख्या में आए बंगलादेशी शरणार्थियों के हावी होने का खतरा है, जिसमें असम वासियों को लगता है कि इससे उनकी भाषा और सांस्कृतिक पहचान पर बड़ा असर पड़ेगा। वर्ष 1979 से 1985 तक लगभग 6 वर्ष तक असम में बंगलादेश से आए शरणार्थियों को लेकर बड़ा आन्दोलन चला था। अंत में आन्दोलनकारियों का केन्द्र की कांग्रेस सरकार से समझौता हुआ था, जिसके अनुसार इन शरणार्थियों की पहचान के लिए एक राष्ट्रीय रजिस्टर तैयार करना था और इस तरह विदेशियों की पहचान की जानी थी। जहां तक असम का सवाल है इसमें 13 प्रतिशत के लगभग बंगलादेशी शरणार्थी गत लम्बे समय से यहां आकर बसे हुए हैं। परन्तु इसके अलावा इसके पड़ोसी छोटे-से राज्य त्रिपुरा की हालत तो बेहद गम्भीर बनी हुई है, जहां इसके मूल वासी 30 प्रतिशत तक ही सीमित होकर रह गए हैं। 70 प्रतिशत शरणार्थी यहां आकर बसे हुए हैं। नि:संदेह भाजपा के लिए यह मामला बहुत बड़ी चुनौती बन चुका है। असम में यह मामला धर्म के आधार पर नहीं, अपितु भाषा और जाति के आधार पर पेचीदा बन चुका है। अब यदि इस राज्य में धर्म के आधार पर शरणार्थियों को नागरिकता दी जानी है तो असमियों को यह डर सता रहा है कि यहां बड़ी संख्या में बंगलादेशी मूल के हिन्दू नागरिक नागरिकता हासिल करने में सफल हो जाएंगे। नि:संदेह यह समस्या देश के विभाजन से जुड़ी हुई है, जिसको आज तक भी हल नहीं किया जा सका। तीन देशों अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश से आए अल्प-संख्यकों से संबंधित शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए यह जो कानून बनाया गया उसको कुछ मुस्लिम संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी है कि पाकिस्तान और बंगलादेश में भी कुछ ऐसे अल्प-संख्यक समुदाय हैं जो अक्सर वहां अत्याचार की शिकायत करते हैं और जो भारत में आकर बस चुके हैं। इनमें अहमदिया, शिया तथा हज़ारा जाति के लोग हैं। इसलिए धर्म के आधार पर आए शरणार्थियों को नागरिकता देने से इन्कार नहीं किया जा सकता। चाहे प्रधानमंत्री ने उत्तर पूर्वी राज्यों के लोगों को यह विश्वास अवश्य दिलाया है कि उनकी भाषायी और जाति विभिन्नताओं का ख्याल अवश्य रखा जाएगा। परन्तु इन राज्यों के नागरिकों को प्रधानमंत्री की इस बात पर विश्वास करना मुश्किल लगता है, क्योंकि केन्द्र सरकार द्वारा इस समस्या का और संतोषजनक हल नहीं सुझाया जा सका, न ही उसके लिए अब इस कानून को वापिस लेने की सम्भावना नज़र आती है।  इसीलिए असम के साथ-साथ त्रिपुरा, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में बड़े स्तर पर हिंसा और आगजनी की घटनाएं हो रही हैं। वहां के लोग इतने गुस्से में हैं कि वह लोग कर्फ्यू की परवाह किए बिना सड़कों, बाज़ारों में उतर आए हैं, जिसमें कुछ लोगों की मौत भी हो गई है। डी.एम.के., तृणमूल कांग्रेस तथा अन्य वामपंथी पार्टियां भी इस कानून का विरोध कर रही हैं। यह बात अब सुनिश्चित बनती नज़र आ रही है कि यदि केन्द्र सरकार इसका कोई संतोषजनक हल निकालने में असमर्थ होती है, तो इस समस्या के और पेचीदा होने की सम्भावना बन गई है, जो एक बार फिर देश को दोराहे पर लाकर खड़ा कर सकती है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द