भारतीय राजनीति के बड़बोले नेता

यह बात सब जानते हैं कि कुछ नेताओं की जुबानदराज़ी और बेलगाम ल़फफाज़ी हमेशा से विवादों को जन्म देती रही है और देती भी रहेगी, क्योंकि हमारा संविधान बोलने की इजाज़त देता है। परन्तु कब बोलना, कितना बोलना, कैसे बोलना और क्या बोलना है, लगता है यह हमारे देश के कुछ राजनेताओं को अभी तक समझ नहीं आया। प्रो. हेराल्ड लास्की ने कहा था, ‘भाषा फूहड़ और गलत तब लगती है जब हमारे विचार मूर्खों जैसे हों, लेकिन भाषा का फूहड़पन हमारे विचारों को भी मूर्खतापूर्ण बना देता है।’ किसी भी भाषा में अलंकार या रूपक का प्रयोग होता है, जिससे सुनने-पढ़ने वालों के दिमाग में उसकी एक तस्वीर खींचनी होती है जिसके बारे में अलंकार का प्रयोग होता है। आज की राजनीति की भाषा या तो बोलने वालों के अंदर एक-दूसरे के बारे में छिपी ऩफरत को उज़ागर करती है या फिर नेताओं के शब्दकोष से सलीके वाले शब्द गायब हो चुके हैं। असभ्यता से भरे बदकलामी के जंगल में भटकते कुछ राजनेता अपनी भाषा पर सीना फुलाना अपनी आदत बना चुके हैं। बात कहीं से भी शुरू करें कुछ लोगों का नाम न चाहते हुए भी जुबान पर आ जाता है। जैसे मणिशंकर अय्यर, दिग्विजय सिंह, शशि थरूर, गिरीराज, कन्हैया कुमार, साक्षी महाराज, असद्दुदीन ओवैसी, अकबरु द्दीन, आज़म खान व ममता बैनर्जी इत्यादि। इनके द्वारा खुल्लम खुल्ला व्यक्तिगत आक्षेपों के चलते राजनीति का स्तर गिरा है। क्या कभी इन नेताओं ने इसके बारे में संजीदगी से सोचा? यह लोग बड़े, पढ़े-लिखे और ऊंचे पदों पर रहने वाले रह चुके लोग हैं। फिर क्यों बाज़ारू होती जा रही है इनकी सियासी भाषा? यह एक विरोधाभास ही है कि हम अपने फलते-फूलते लोकतंत्र पर यह कह कर गौरवान्वित होते हैं कि यह दुनिया का सबसे बड़ा जन-तंत्र है जिसमें 90 करोड़ के लगभग मतदाता हैं, लेकिन ये धीरे-धीरे कुछ नेताओं की स्तरहीन भाषा और बेमतलब इलज़ामदराज़ी के लिए संसार में जगहंसाई का कारण बन जाता है। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा जब भारत में आये तो जाने से पूर्व एक आयोजन में शामिल हुए तो उन्होंने मंच से कह दिया कि भारत में जात-पात और कट्टरवादिता भी है। उनको यह सब क्यों कहना पड़ा? क्योंकि हमारे कुछ नेताओं की भाषा भारत के बारे में ओबामा के मन पर अच्छा भाव न दे सकी। हमारे देश में चुनाव तो होते ही रहते हैं और चुनाव रैलियों में कुछ नेता बोलते समय अपने शब्दों पर नियंत्रण नहीं रख सके। वर्ष 2019 के संसदीय चुनाव में राहुल गांधी, जो तत्कालीन कांग्रेस के अखिल भारतीय प्रधान थे, ने कई रैलियों में ऱाफेल सौदे के संबंध में प्रधानमंत्री को चोर तक कहा और कई विदेशी समाचार-पत्रों ने इस बात को उछाला भी। चुनाव का दौर भारतीय लोकतंत्र को परखने का एक माकूल मौका होता है जहां बहस होनी चाहिए, वहां गाली-गलोच होती है, जहां मुद्दे होने चाहिए, वहां निजी आक्षेप किए जाते हैं, कभी-कभी ऐसा लगता है कि भारत में चुनाव प्रचार वास्तव में तमाशा है—ओछेपन का समारोह है। नेताओं को तोल कर बोलना चाहिए था। परन्तु ऐसा हो नहीं रहा। हो सकता है इसके पीछे ़खबरों और चर्चा में रहना उनकी दिलचस्पी हो। बिहार में जब लालू यादव और नितीश कुमार ने मिलकर चुनाव लड़ा तो प्रधानमंत्री ने नितीश कुमार को कहा था कि आपका डी.एन.ए. ही ऐसा है। तब नितीश कुमार ने इसे बिहार का डी.एन.ए. कहना आरम्भ कर दिया और कई लोगों के बाल और नाखूनों को काटकर प्रधानमंत्री को भेजा गया कि लो डी.एन.ए. टैस्ट करवा लो। इसी तरह गुजरात के चुनाव में भी श्रीमती सोनिया गांधी ने एक बार तत्कालीन मुख्यमंत्री को ‘मौत का सौदागर’ कह दिया था। श्रीमती प्रियंका वाड्रा ने अमेठी के चुनाव में नीच शब्द का प्रयोग किया। ये सभी जुमले कांग्रेस के लिए बहुत महंगे पड़े। हैरानी तो इस बात की है कि आखिर किन शब्दों ने राजनीति का स्तर इतना नीचे गिरा दिया है कि अब लोग ऐसे नेताओं के भाषणों में उक्ताहट महसूस करने लगे हैं। ऐसा लगता है कि देश के कुछ लोगों के लिए राजनीति सैम्य नेताओं का मामला नहीं रही। कभी यही सौम्यता भारत की ताकत रही है। नेताओं को घटिया भाषा और बाज़ारू मुहावरों से अपनी विचारधारा को बचा कर रखना चाहिए था। क्योंकि लोग प्राय: चौपालों, पंचायतों में बैठे बड़े-बूढ़े भी यह कहते सुने गए कि यह प्रवृत्ति कोई नई नहीं है। हर एक चुनाव में ऐसी ज़ुबानदराज़ी सुनने को मिलती है। एक शायर ने कहा है—
‘जुबां बिगड़ी तो बिगड़ी, खबर लीजे दहिन बिगड़ा।’
इसका भाव यह है कि भाषा का बिगड़ना केवल जुबान तक ही नहीं, मानसिक तौर तक सब बिगाड़ चुका है। एक ज़माना था जब संसदीय और असंसदीय भाषा का बहुत ज़िक्र किया जाता था, झूठ शब्द असंसदीय माना जाता था। यदि इसी बात को झूठ कहना होता था तो कहा जाता यह सत्य नहीं है। परन्तु आजकल संसद में ऐसे-वैसे शब्दों का प्रयोग होने लगा है। जैसे कि विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा दिया कि ‘मेक इन इंडिया’ को अब ‘रेप इन इंडिया’ भी कहा जा सकता है। यह सभ्य समाज स्तरहीन मानता है। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जो भोपाल से लोकसभा की सदस्य निर्वाचित होकर विश्व की सबसे बड़ी पंचायत में आई है, वह भी शब्दों का चयन करने में असफल है। किसे देश भक्त कहना, किसे हत्यारा कहना नहीं जानती। यूं तो हमारे देश के कई नेता आज तक अपने बड़बोलेपन के कारण क्षमा-याचना करते देखे गये। होना तो यह चाहिए जो भी नेता चुनाव में उतरे उसे पहले भाषा की जानकारी और परीक्षा होनी चाहिए जैसे विदेशों में जाने वाले बच्चों को आई.ई.एल.टी. की परीक्षा देनी होती है। कहने को तो हमारा देश सबसे पुरानी सभ्यता वाला कहा जाता है परन्तु भाषा के मामले में क्यों पिछड़ जाता है?