महिलाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित बनाया जाए

भले ही हम बीसवीं सदी में जी रहे हैं,भले ही हम तकनीकी में महारत हासिल कर रहे हों, परंतु महिलाओं को लेकर अपनी हीन मानसिकता और उन्हें सिर्फ और सिर्फ  भोग और विलास की वस्तु मानने की सोच में हम न जाने कौन से युग की ओर बढ़ रहे हैं। हर रोज न जाने कितनी निर्भया, कितनी ट्विंकल और कितनी ही मासूम बच्चियां हर घड़ी बीमार और घिनौनी मानसिकता का शिकार हो रही हैं। कोई गलती नहीं, कोई कसूर नहीं फिर भी हर दोष, हर अपराध के लिए समाज का एक बड़ा वर्ग सिर्फ  और सिर्फ  पीड़ित महिला को ही दोषी करार दे देता है। निर्भया कांड हुआ तो जो सैलाब सड़कों पर उतरा था, जिस संख्या में इस घृणित घटना के विरोध में लोग घरों से बाहर निकले थे तो लगा जैसे ये अंतिम घटना हो और आज के बाद अब देश के किसी भी कोने में कोई महिला दुष्कर्म की शिकार नहीं होगी, अब किसी की आबरू नहीं लूटी जाएगी । लेकिन वो बीते वक्त की घटना हो गयी है। फिर से वही सब सुनने को मिलता है कि छोटी बच्ची तो कहीं कोई युवती गैंगरेप का शिकार हुई । अब सिर्फ  दुष्कर्म तक नहीं रुक रहे हैं, ये दरिंदे बल्कि महिला का शरीर नोचने के बाद उसे पेट्रोल डालकर जिंदा ही जला रहे हैं। हैदराबाद की पशु-चिकित्सक के साथ जो हैवानियत का नंगा नाच किया गया, जो दरिंदगी बीमार मानसिकता वाले पुरुषों ने की उसके लिए कोई भी सजा हो कम ही होगी। एक महिला काम के बाद अपने घर लौट रही हो और उसका स्कूटर खराब हो जाये तो किसने अधिकार दिया इन दरिंदों को कि उसे नोच डालें, उसका जीवन समाप्त कर दें? जिस्म की इतनी लालसा, इतना बहशीपन कि कुछ पल के सुकून के लिए किसी की जिंदगी तबाह कर दें, किसी का घर उजाड़ दें।  हम सभ्य समाज में रहने का दावा कैसे कर सकते हैं? कैसे हम विश्व गुरु बन सकते हैं? कैसे हम दुनिया से नजरें मिलाएं?  दरअसल जब एक घटना होती है तो उसके लिए आवाज तो उठाते हैं पर वक्त के साथ वो आवाज कहीं दबकर रह जाती है और अगली घटना के इंतजार में मानो  चुप हो जाती है। ये चुप्पी अगली घटना से पहले की खामोशी होती है और ये खामोशी पहली घटना से भी जघन्य घटना के बाद टूटती है।  वर्तमान संसद में अब तक के इतिहास में सबसे अधिक महिला सांसद चुनकर आयी हैं। ये सांसद सिर्फ  और सिर्फ  राजनीतिक मुद्दों को ही तवज्जो क्यों देती हैं? क्यों नहीं सभी महिला सांसद सदन में सब कामकाज रोक कर सिर्फ  और सिर्फ  महिला अधिकारों पर ही बात करती हैं। इस माहौल में सबको डर लगना लाज़मी है, हर माँ को अपनी बच्ची के लिए खौफ  होना ही चाहिए । कन्या भ्रूण हत्या पर तो पाबंदी है पर एक माँ एक बेटी को पैदा करने से पहले क्यों न डरे, एक पिता अपनी बच्ची को इस दुनिया में लाने से पहले क्यों न घबराए? जब तमाम सरकारें इस तरह की घटनाएं रोकने में अक्षम सिद्ध हो रही हैं तो ऐसे में समाज को, महिला को, पुरुष को आगे आना पड़ेगा क्योंकि हम सारी संवेदनाओं को खत्म कर चुके हैं, बस शरीर से दुनिया में मौजूद हैं पर आत्मा तो जैसे मार ही दी है अपनी हमने। आज के दौर में जब मजहबी रंग हमारी आंखों पर चढ़ा हुआ है, दुष्कर्म जैसे घिनौने और जघन्य अपराध के पीछे भी हम धार्मिक तर्क देने लगते हैं, धर्म-मजहब की आड़ में मुजरिम को बचाने लगें तो यकीनन ये और भी भयावह है। दुष्कर्मी का कैसे कोई धर्म कोई मजहब हो सकता है? कौन-सा मजहब, कौन-सा धर्म महिला को उसकी मर्जी के बिना उसको नोचने की इजाजत देता है? कई बार हम परवरिश को भी कटघरे में खड़ा कर जाते हैं, लेकिन कोई भी माँ किसी महिला को कुचलने की शिक्षा क्यों देगी? उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, दिल्ली अर्थात हर राज्य से महिलाओं के दुष्कर्म की खबरें आना आम से हो गया है। 3 दिन में दुष्कर्मियों को फांसी तो नहीं परंतु 3 दिन में न जाने कितनी महिलाएं इन भेड़ियों का शिकार हो जाती हैं। खत्म होते इस समाज को बचाने की जरूरत है, सरकारों से उम्मीद करने से अच्छा है, खुद को और बेटियों को आत्मरक्षा सिखाने की जरूरत है । पाठ्यक्रम में भी प्राइमरी से ही जरूरी विषय के रूप में इसे पढ़ाया जाना चाहिए। बेटी पढ़ाओ से ज्यादा बेटी बचाओ जैसे अभियानों की जरूरत है। जानवरों की सुरक्षा की बात करते हैं लेकिन समाज में बेटियां सुरक्षित नहीं। सब दोहरे मापदंड हैं इसे जनता को समझना ही होगा और खुद के आसपास एक सुरक्षा घेरा बनाना ही होगा।