धारा 370 हटाने के 100 दिन बाद क्या सोचते हैं कश्मीर घाटी के लोग ?

‘आपको मालूम है, अफसोस-मिठाई क्या होती है?’ मुझे मालूम ना था लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि मैं अफसोस-मिठाई को किसी और नाम से जानता हूं। बचपन में हम लोग इस मिठाई को ‘बुढ़िया मां के बाल’ कहते थे। यह तो खैर बहुत बाद में पता चला कि अंग्रेजी में इसे कैंडी फ्लॉस कहा जाता है। ‘हम कश्मीरियों के लिए धारा 370 अफसोस-मिठाई की तरह थी - देखने में खूब बड़ी और सुंदर लेकिन आखिर को पता चलता था कि इसमें मिठाई तो बस कहने भर को है। फिर, अफसोस होता था।’ मैं करीम (बदला हुआ नाम) से मुखातिब था। तीस की उम्र पार कर चुके इस युवक की तेज नजर मानो मेरी चमड़ी को वेध रही थी।
मैं तीन दिनों तक कश्मीर में था। मकसद यह था कि सेब की फसल उगाने वाले किसानों का हाल-चाल लिया जाये, पता किया जाये कि उनकी फसल को कितना नुकसान पहुंचा है। लेकिन कश्मीरियों की बातचीत अब सिर्फ सेब की फसल को हुए नुकसान तक सीमित नहीं रहती। इस साल के 5 अगस्त के बाद से तो कत्तई नहीं। कश्मीरी लोग राजनीति के बड़े जानकार होते हैं, राजनीति की बातों को लेकर उनके बीच खूब मत-विमत मिलते हैं और राजनीति की बात करते हुए उनकी भाषा मुहावरेदार हो उठती है। बीते सौ दिन का अनुभव एकदम से उनकी जुबान पर है और जैसे ही कोई ऐसा व्यक्ति मिलता है जिस पर उन्हें अपना विश्वास जमता-सा लगे तो ये अनुभव एकबारगी भर-भराकर उनकी जुबान से निकल पड़ता है। मैं बड़े मनोयोग से उनकी बातें सुन रहा था।
करीम ने धारा 370 की तुलना अफसोस-मिठाई से की लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि आम कश्मीरी को धारा 370 के हटाये जाने का मलाल नहीं है या फिर धारा 370 के हटाये जाने की बाद शेष भारत से जुड़ाव को लेकर उनके मन में मोहब्बत उमड़ रही है। इसके ठीक उलट, मुझे एक भी व्यक्ति ना मिला जो केंद्र सरकार के इस कदम की हिमायत करे। मैंने आखिर को कश्मीरी दोस्तों के एक जमावड़े में पूछ ही लिया कि क्या घाटी में कोई ऐसा व्यक्ति भी है जो नई नीति की हिमायत करता हो? एकदम छूटते ही जवाब मिला कि ‘कोई गधा भी सपोर्ट नहीं करेगा’। एकमात्र अपवाद घाटी में रह गये चंद कश्मीरी पंडित हो सकते हैं लेकिन मैं इन कश्मीरी पंडितों की राय नहीं जान पाया। 
मुझे घाटी में एक आदमी भी ऐसा नहीं मिला जो इस सरकारी तर्क को गले उतार पाया हो कि धारा 370 का हटाया जाना जम्मू-कश्मीर में विकास का नया विहान साबित होगा। इस बात को जांचने-परखने के लिए हम कश्मीर चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अधिकारियों से मिले। एक निहायत ही शिष्ट-शालीन और नौजवान व्यवसायी फहीम ने अधिकारियों से चली हमारी लगभग घंटे भर की बातचीत के निचोड़ के तौर पर कहा ‘हमें नहीं पता कि किसके विकास की बातें हो रही हैं। हां, चारों तरफ बंदी जरूर है। हमें इंटरनेट हासिल नहीं। कोई कारोबार भी नहीं हो रहा। हम लोग अपने कर्मचारियों को वेतन दे रहे हैं, बैंकों को सूद चुका रहे हैं। कर्ज-वसूली जारी है, लेकिन जिस निवेश का वादा किया गया था वो कहां है? अर्थव्यवस्था को लेकर चलने वाली किसी भी बातचीत में हमें हिस्सेदार नहीं बनाया गया। मुझे नहीं लगता कि अगले 20 सालों तक हमारी अर्थव्यवस्था में कोई इजाफा भी होगा।’ घाटी (ये बात जम्मू या लद्दाख के बारे में नहीं) में शुरूआती सौ दिन के अनुभव का संकेत है कि जम्मू-कश्मीर को लेकर जो बड़ा कदम उठाया गया, उसका हासिल घोषित मकसद के एकदम उलटा रहा है। नजदीकी तो नहीं कायम हो पायी लेकिन भावनाओं के धरातल पर एक गहरी और ना पाटी जा सकने वाली खाई जरूर पैदा हो गयी है। कश्मीर घाटी में जनमत की संकेतक सूई अब भारत से पाकिस्तान की ओर, मेल-मिलाप के भाव से अलगाव की हिमायत की तरफ और कश्मीरियत की पहचान से एक मजबूत इस्लामी अस्मिता की तरफ मुड़ चली है और ये सब हुआ है राष्ट्रीय एकता-अखंडता के दावे के बीच तो, ऐसे दावे का कोई क्या करे भला!
पहले के वक्त में कश्मीर घाटी में जनमत का कांटा नरमपंथ की हिमायत और अलगाववाद की भावना के बीच डोला करता था। मुख्यधारा की राजनीति में अब्दुल्ला परिवार और महबूबा मुफ्ती के धड़े का जोर था। अब्दुल्ला परिवार नरमपंथ के सिरे से राजनीति करता था तो महबूबा मुफ्ती का धड़ा अपने मिजाज में दक्षिणपंथी था। यह धड़ा समय-समय पर भारतीय राजसत्ता को लेकर अपने रोष की अभिव्यक्ति किया करता था लेकिन इस रोष में अलगाववाद की भावना न हुआ करती थी। इनके बरक्स हुर्रियत की राजनीति धुर दक्षिणपंथी तेवर की थी और हुर्रियत कश्मीर की आजादी तथा पाकिस्तान की तरफदारी की मुहावरे में राजनीति किया करती थी।
कश्मीर घाटी में 5 अगस्त के बाद जनमत में एक बदलाव बड़ा साफ दिखता है-अब्दुल्ला परिवार तथा महबूबा मुफ्ती के धड़े की राजनीति वहां से एकदम ही गायब हो चली है। राष्ट्रीय टेलीविजन के पर्दे पर फारूक अब्दुल्ला ने फूट पड़ने को उतारू अपनी रुलाई को बमुश्किल रोकते हुए अपने अफसोस का इजहार किया था लेकिन उनकी इस छवि का अब कोई खरीदार नहीं दिखता।  घाटी में लोग मोहभंग की दशा से गुजर रहे हैं और अपनी इस दशा को छिपाने की हरचंद कोशिश करते दिखे-‘प्रोफेसर साहेब, मैं आपके लेख पढ़ा करता था और अपने छात्रों को भारत की अवधारणा के बारे में बताया करता था लेकिन अब मैं उन्हें क्या बताऊंगा?’ ये बात एक कस्बे के शिक्षक ने मुझसे कही और मुझे उस शिक्षक को कोई उत्तर देते न बना। मेरे पुराने मित्र प्रोफेसर धर एक फीकी-सी मुस्कुराहट के साथ बोले —‘हम कश्मीरी आपस में मजाक किया करते थे कि ये हिन्दुस्तानी उन खान और पठानों से कहीं बेहतर हैं लेकिन अब...।’ एक छोटी-सी चुप्पी के बाद उन्होंने मुझसे परे देखते हुए कहा, ‘मैं बीसियों बार दिल्ली गया हूं लेकिन इस बार दिल्ली पहुंचा तो लगा किसी परदेस में आया हूं।’ 
मोहभंग ही नहीं, कश्मीरियों के मन में गुस्सा भी उबल रहा है। उन्हें लगता है कि उनकी अस्मिता पर चोट की गई है। सेब की फसल को पहुंचे नुकसान के बारे में हमारी एक बैठक बड़े जोश-ओ-खरोश से चल रही थी कि इसी बीच जमील नाम का एक नौजवान किसान खड़ा हुआ और बोला—‘हर बार भारत से हमें धोखा के सिवाय और क्या मिला है?’ सेब के एक व्यापारी के पास मुंशी का काम करने वाले इमरान ने पहले ये परखा कि मैं उसकी बात का बुरा तो नहीं मान जाऊंगा। आश्वस्त हो जाने के बाद उसने अपने हाथ जोड़ते हुए कहा—‘आप हमें तन्हा क्यों नहीं छोड़ देते?’ मैंने उससे ऐसा कहने का कारण जानना चाहा। मेरे बहुत जोर देने पर उसका दर्द आखिर को होठों से बाहर छलक आया। ‘मैं अपना सीना चीर कर कैसे दिखाऊं कि कितना दर्द है?’ इस दर्द ने पहली बार कश्मीरी मुसलमानों को शेष भारत के मुसलमानों से नजदीक किया है। पहले शेष भारत के मुसलमानों से कश्मीरी मुसलानों के रिश्ते में एक अजनबीपन हुआ करता था, दोनों के बीच अनदेखी और एक हद तक एक-दूसरे के प्रति हिकारत का भी भाव था। लेकिन अब कश्मीरी मुसलमानों को लगता है कि उन्हें सिर्फ कश्मीरी होने मात्र के कारण नहीं बल्कि मुसलमान होने के कारण भी प्रताड़ित किया जा रहा है। कश्मीरी अब नरेन्द्र मोदी को लेकर ज्यादा नहीं बोलते। भारत की राजसत्ता का नया चेहरा अमित शाह हैं। कई कश्मीरियों के लिए समीकरण अब अमित शाह बनाम इमरान खान का बन चला है और आमने-सामने की इस टकराहट में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की लोकप्रियता बढ़ी है। कश्मीरी इस बात की निशानदेही करते हैं कि जम्मू-कश्मीर के राजभवन में कोई कश्मीरी मुस्लिम नहीं है और इसे लेकर आपस में बातें किया करते हैं। इसके बरक्स वे ये भी देखते हैं कि पाकिस्तानी सत्ता-तंत्र के ऊपरले मरहले में कश्मीर से नाता-रिश्ता रखने लोगों की तादाद अच्छी-खासी है। कॉलेज के एक छात्र ने भारत और पाकिस्तान में से किसी एक को चुनने की बात कुछ इस अंदाज में की मानो वो अपनी छुट्टियां बिताने के लिए किसी जगह को चुन रहा हो।
क्या घाटी में नजर आती ये बातें वहां के लोगों के उग्रवादियों की तरफ खींच जाने का संकेत कर रही हैं ? इस सवाल का कोई निर्णायक जवाब दे पाना मुश्किल है। बीते तीन दशक में कश्मीरियों ने इतनी हिंसा देखी है कि अब उसके बारे में कोई उनके लिए कोई रूमान पालना मुमकिन नहीं। मेरी जिस किसी से भी मुलाकात हुई, सबने शेष भारत से आये मजदूरों और ड्राइवरों की हाल में हुई हत्या की निन्दा की।  हमारे ड्राइवर अख्तर ने बड़े पते की बात कही कि हम कश्मीरी आखिर करें तो क्या? पूरी घाटी में जितने लोग हैं उससे ज्यादा लोग तो भारत के किसी एक जिले में होते हैं लेकिन अगर आप ये कहें कि उग्र्रवादियों या फिर पत्थरबाजों को पैसे देकर भड़काया जाता है तो फिर इस बात पर कड़ी प्रतिक्रिया सामने आती है। ‘ये सब फिजूल की बातें हैं। कोई अपने सीने पर गोली क्यों खाना चाहेगा, भले ही इसके लिए उसे कितनी ही रकम मिली हो?’ 
अफसोस-मिठाई सरीखे लफ्ज से मेरा परिचय करवाने वाले करीम ने मुझे तस्वीर का दूसरा पहलू दिखाया। करीम की जुबान उसके दिमाग की ही तरह तेज है। ‘अगस्त की 5 तारीख को यह मिथक टूट गया कि भारत एक उदारवादी लोकतंत्र है। आप सरीखे लोग भले ये मानते रहे हैं कि हमलोग सिर्फ भाजपा के शासन के विरोध में हैं लेकिन हकीकत ये है कि हमलोग भारत के ही खिलाफ हैं। अब यहां धारा 370 या 35ए के बारे में कोई नहीं सोचता। अब कथानक आजादी के जुमले से खिसककर पाकिस्तान पर चला आया है।’ फिर करीम ने अपनी नजर मेरी तरफ घुमायी और कहा — मैं आप जैसे उदारपंथी पर कैसे विश्वास करूं ? जब अमरीका में उदारवादियों ने वियतनाम के मसले पर विरोध किया था तो उन्होंने सेना में अनिवार्य भर्ती के चलन से इन्कार कर दिया था और उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी थी। पाकिस्तानी जेहादी, जिन्हें आप आतंकवादी कहते हैं, यहां आते हैं और हमारे लिए अपनी जान न्यौछावर करते हैं। आप जैसे कितने लोगों ने हमारे लिए किसी भी चीज की कोई कुर्बानी दी है? मेरे पास इसका जवाब ना था।
कश्मीर में एक परेशानी भरी शांति दिखती है। हर कोने और नुक्कड़ पर सुरक्षाबल तैनात हैं। हर 10 कश्मीरी पर 1 सुरक्षाकर्मी तैनात है और ऐसा होने से ये सुनिश्चत हो गया है कि विरोध की कोई आवाज बलंद न होगी। आस-पास कहीं कोई नेता नजर नहीं आता लेकिन जहां तक लोगों के मन-मानस का सवाल है, उसका मसला कुछ अलग है। कश्मीरियों के दिमाग में बड़ी तेजी से कुछ पक रहा है। इसका नतीजा क्या होगा, मैंने अपने एक और कश्मीरी दोस्त से पूछा। उसने कहा,  जब परिवार में किसी की मौत हो जाये और उसके नजदीकियों में से किसी के आंसू न निकलें तो समझिए कोई बड़ी परेशानी भरी बात है। 5 अगस्त के बाद से कश्मीर घाटी के हालात ऐसे ही हैं। अगर हम पुक्का फाड़कर रोयें, विरोध जतायें तो शायद चीजें एक हद तक अपने आम ढर्रे पर चल आयें, लेकिन घाटी में छाया गहरा सन्नाटा किसी भावी अनहोनी का संकेत है। सो, सर्दियों के खत्म होने का इंतजार कीजिए। अफसोस-मिठाई कब की खत्म हो चुकी थी। मेरे हाथ में सिर्फ उसकी डंडी बची हुई थी।