राजनीति में बढ़ता अपराधीकरण

राजनीति में आगे बढ़ने व सत्ता हथियाने के लिए अपराध का प्रयोग ही राजनीति को अपराध प्रधान बना देता है। जब राजनीति महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपराध का सहारा लेना राजनीति का अंग बन जाता है, तो इस स्थिति को ही राजनीतिक अपराधीकरण की संज्ञा दी जाती है। किसी न किसी तरह सत्ता तक पहंचने की आकांक्षा ही अपराध प्रधान साधनों के प्रयोग के लिए प्रेरित करती है। राजनीति में जब मात्र साध्य ही महत्वपूर्ण बन जाता है और साधनों की पवित्रता महत्वहीन समझी जाने लगती है, तब ऐसी स्थिति को राजनीतिक अपराधीकरण कहकर सम्बोधित किया जा सकता है। राजनीति में अपराध का मूल उद्देश्य धन प्राप्त करना न होकर सत्ता प्राप्त करना ही अधिक होता है। मान्यता यह है कि भय और आतंक का सहारा लेकर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचना आसान है। उस स्थिति का ही नाम है ‘राजनीतिक अपराधीकरण’। भारत में राजनीतिक अपराधीकरण का इतिहास पुराना है। अंग्रेज़ों ने सत्ता में रहने व आतंक फैलाने के लिए अपराधिक तत्वों का प्रयोग किया ताकि ‘फूट डालो राज करो’ की उनकी जो नीति थी, वह कायम रहे। बदकिस्मती से आज़ादी के बाद भी सिद्धांत व मूल्य गौण ही बने रहे और अहंकार व स्वार्थ महत्वपूर्ण होता चला गया। यह कटु सत्य है कि राजनीति में हर प्रकार की बुराई का दाखिला महात्मा गांधी के वक्त में ही हो चुका था। गांधी ने उसे भांपा और शायद इसलिए उन्होंने कांग्रेस को भंग कर डालने की सलाह दी थी। उन्होंने अनेक बार साधनों की पवित्रता की बात की थी, पर उनका चिन्तन उनके साथियों से समर्थन न पा सका और राजनीति धीरे-धीरे अपराधीकरण को अपनाने लगी, परन्तु शुरू में संकोच था, इसलिए पहले आम चुनाव में अपराध जगत से जुड़े हुए लोग खुद राजनीति में आगे न आ सके, लेकिन दूसरे आम चुनावों में अपराध जगत से जुड़े व्यक्तियों की भागीदारी शुरू हो गई और संसद ने उसे रोकने की चेष्टा नहीं की। अपराध जगत की यह शुरूआत जातिवाद व सामंतवाद के प्रवेश के साथ हुई और ताकतवर होने के बाद भी कांग्रेस ने अपने दल के उम्मीदवारों के चुनाव में जातिवाद व साम्प्रदायिकता को ही प्रधानता देने में संकोच नहीं किया जैसा कि वर्तमान में भारत भर में आगजनी और पब्लिक प्रापर्टी को भारी क्षति पहुंचाई जा रही है।