मिड डे मील योजना की हकीकत

मिड डे मील किसी के लिए दिन का पहला खाना, किसी के लिए दिन का एकमात्र खाना। यही हकीकत है और यही जरूरी भी शायद, क्योंकि आज भी हमारे देश में अनेकों ऐसे परिवार हैं जो दो वक्त की रोटी भी जुटाने में असमर्थ हैं, जिस वजह से इन बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास पूरा नहीं हो पाता है। इसलिए सरकार सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले गरीब  बच्चों को मिड डे मील के जरिये पोषक भोजन मुहैया कराती है, जिससे कि बच्चों का उचित विकास हो सके। परंतु इन छोटे-छोटे बच्चों को मिड डे मील जो पोषक तत्व देने की एक योजना है, अपने गलत और भ्रष्ट कारणों से अक्सर सुर्खियों में रहती है। कहीं पर 1 लीटर दूध में बाल्टी भर पानी मिलने की खबर, कहीं हल्दी वाले पानी के साथ रोटी, कहीं नमक के साथ रोटी तो कहीं पके खाने में मरे हुए चूहे मिलने की खबर। यूं तो मिड डे मील योजना का उद्देश्य बच्चों को पोषण देना था परंतु व्यवस्था में भ्रष्टाचार के चलते ये अपने निहित उद्देश्यों से कोसों दूर है। 15 अगस्त 1995 को शुरू की गई इस योजना के तहत सभी गाइड लाइन्स तय कर दी गयी थी। बावजूद इनके सिस्टम के अनदेखी के चलते यह योजना कुछ लोगों के गलत तरीके से पैसा कमाने तक सीमित रह गयी। रसोइये से लेकर खाने की गुणवत्ता तक, सब्जी धोने से लेकर ब्रांडेड वस्तुओं तक सभी को इसमें चिन्हित किया गया था। यह भी कि रसोइए को साफ -सफाई का ध्यान भी रखना पड़ेगा। ये सब उसमें रेखांकित किया गया था। गाइड लाइन में यह सुनिश्चित किया गया है कि किस कक्षा तक के ग्रुप को कितनी कैलोरी दी जाएगी। ये स्पष्ट है कि खाने के नमूनों को समय-समय पर जांच के लिए भी भेजा जाएगा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा चलाई जाने वाली इस योजना का यदि ईमानदारी से पालन किया जाता तो आज कुपोषण की स्थिति इतनी भयावह नहीं होती। भारत इस पायदान तक नहीं आता जिस पर आज है। स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक कमेटी बनी हुई हैं और सबके अपने कार्य और जिम्मेदारी है।  इसका अंदेशा शायद नीति-निर्माताओं को था कि इसमें भ्रष्टाचार हो सकता है इसलिए प्रत्येक राज्य स्तर पर कमेटियां बनाई गई परंतु बावजूद इन नियमों के बेईमान लोगों की कोई कमी नहीं  देश में। एच.आर.डी. मिनिस्टर रमेश पोखरियाल ने एक सांसद के प्रश्न के जवाब में बताया कि मिड डे मील के भ्रष्टाचार के 52 मामलों में से उत्तर प्रदेश से ही अकेले 14 मामले आये, 11 मामलों के साथ बिहार दूसरे पायदान पर खड़ा है, जबकि पश्चिम बंगाल में 9 मामले सामने आए हैं। इनमें से अधिकांश मामलों की जांच चल रही है। ये आंकड़े ये बताने के लिए काफी हैं कि बेईमानी हमारे सिस्टम के खून में शामिल हो गई है। एक संस्कृति-सी बन गयी है। ईमानदारी तो कहीं बची ही नहीं। जिस व्यवस्था में छोटे-छोटे गरीब बच्चों के भोजन को भी बेच दिया जाता है, उस देश के भविष्य का अंदाजा स्वत: ही लग जाता है। हमारे देश में गरीबी की स्थिति वैसे भी खराब ही है। इन बेईमान कर्मचारियों को जबकि सरकार अच्छी तनख्वाह देती है फि र भी इनका लालच खत्म नहीं होता और ये नन्हे बच्चों के पेट तक चला जाता है और उनका निवाला छीन ये अपने बच्चों को खिलाते हैं। न शर्म आती है और न ही नैतिकता ही बची है, परंतु राज्य सरकारों को ये देखना होगा कि बच्चों का खाना सिर्फ  और सिर्फ  उन तक सही मात्रा में पहुंचे तभी देश का भविष्य भी तंदुरुस्त होगा।