प्याजनामा..

प्याज भारतीय नेताओं की तरह होते हैं। ऊपर से छीलते जाओ,छीलते जाओ,अंदर कुछ नहीं निकलता। विपत्ति यह कि बेचारे छीलने वाले की जलन के मारे आँखों से धारोधार आंसू निकलने लगते हैं। यह बन्दा प्याज जो है,निर्दलीय है। इसकी अपनी कोई पार्टी नहीं है। यह महाराष्ट्र के एन.सी.पी. की तरह है। मौका आने पर यह शिवसेना से साथ भी सरकार बना लेगी और कांग्रेस के साथ भी। कुर्सी के लिए और भी कोई दल हो तो भी चलेगा। प्याज आलू भी चलेगा,प्याज भिंडी भी चलेगी,प्याज करेला भी दौड़ेगा,प्याज गोभी भी चलेगी। बस सत्ता होनी चाहिए,बाकी आदर्श और सिद्धांत जाए भाड़ में। मजे की बात यह है कि प्याज महाराष्ट्र में ही सबसे ज्यादा होता है। आप इसे प्याजी राजनीति कह सकते हैं। प्याज जमीन के अंदर उगता है,नेता भी अपने को जमीन से जुड़े हुए बताते हैं। प्याज सब्जी को स्वादिष्ट बनाता है और नेता राजनीति को रोमांच से भर देता है। प्याज खा लो तो नेताओं के चरित्र की तरह मुंह से बदबू आने लगती है। नेता भी जनता को झूठे वादे कर रुलाते हैं,और प्याज भी एक किलो का सौ रूपये वाली अपनी कीमत से रुलाता है। वैसे कटते समय तो वह भूलकर भी रुलाने से बाज नहीं आता। 
कहते हैं पुराने समय में कहीं अकाल पड़ा। उस क्षेत्र के ऋषि-मुनि भोजन के अभाव में वह क्षेत्र छोड़कर चले गये। सिर्फ एक ऋषि रह गया।जब सब ऋषि लौटे तो उसे हृष्ट-पुष्ट देखकर उन्होंने उससे अकाल में भी इतने अच्छे स्वास्थ्य का कारण पूछा। तब उसने बताया कि जमीन में एक कंद होता है जिसे खाकर वह स्वस्थ-प्रसन्न हैं। वह कंद प्याज था। उस ऋषि ने स्वार्थवश अकेले उस प्याज का सेवन किया लेकिन किसी को बताया नहीं, इसलिए लौटे हुए ऋषियों ने प्याज को मांसाहार की श्रेणी में होने का शाप दे दिया और ब्राह्मणों के लिए निषिद्ध घोषित कर दिया। आज वही शापित प्याज संसार के सबसे रुचिकर आहार में से एक है। नेता भी ऐसे ही शापित,घृणित मांसाहार की श्रेणी में हैं पर क्या करें प्रजातंत्र में उनके बिना प्याज की तरह काम भी नहीं चलता। प्याज का छोटा भाई है अदरक। उसकी एक सुंदर छोटी बहन भी है, जिसको प्यार से सब लहसुन कहकर पुकारते हैं। शाप-अभिशाप के बाद भी आज सारा संसार उनके कुटुंब को अपार प्यार करता है और बिना उनके एक दिन भी रहना पसंद नहीं करता। भारतीय भोजन के तो ये प्राण ही हैं। इन तीनों को जमीन के अंदर ही रहना पसंद है। प्याज का सबसे करीबी दोस्त है आलू । वह भी जमीन के अंदर घर बनाकर रहता है। इसे मोदी-शाह जैसी जोड़ी समझिये। जहां-जहां प्याज है,वहाँ-वहां आलू है। ‘लागी नहीं छूटे रामा,चाहे जिया जाए।’ आदमी ही अपनी ऐंठ और दबंगई नहीं दिखाता। ये सब्जियां भी साल में एक बार अपनी अकड़ से आदमी की औकात दिखा देती हैं। प्यार-मोहब्बत में बीस-पच्चीस रूपये किलो मिल जाती  हैं तो ऐसा-वैसा समझते हो न ? लो बेटा,देख लो इनकी भी अब दबंगई। इस कंपकंपाती ठंड में एक सौ बीस रूपये किलो के भाव से खरीदो। निकल रहा है न इस ठंड में पसीना। छूट रही है न कंपकंपी। बारी-बारी से कभी टमाटर तो कभी आलू तो कभी प्याज, ये सब्जियां अभिमानी आदमियों को यों ही उनकी औकात दिखाती रहती हैं।पहले सस्ते के जमाने में यह गरीबों के भोजन में शामिल था। रात के बचे भात में पानी डालकर बनाये पेज,पसिया,बासी के साथ मुट्ठी से टूटे प्याज खाने का आनन्द ही निराला था। मजदूर,किसान तब सुबह-सुबह पेट भर इसका भोजन कर,दिन भर के लिए काम में निकल जाया करते थे। अब गरीबों के कटोरे के लिये लिए यह सोने जैसा अलभ्य हो गया है और नेताओं जैसा दल बदलकर अमीरों की थाली में कूद गया है। क्या कीजिएगा आज की राजनीति के साथ फल,फूल,सब्जियां भी प्रदूषित नस्ल की हो गई हैं।

(अदिति)