" जम्मू-कश्मीर का घटनाक्रम " हालात सुधारने हेतु निरन्तर प्रयासों की ज़रूरत

गत दिनों नागरिकता संशोधन कानून तथा राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के मामले पर देश भर में छिड़े बड़े विवाद, इसके बारे में प्रत्येक स्तर पर हुई चर्चा और इन मामलों पर राजनीतिक पार्टियों द्वारा की गई गतिविधियों के कारण लोगों का अधिकतर ध्यान इन मामलों की ओर ही केन्द्रित रहा। इसके साथ ही जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्रों द्वारा फीसें बढ़ाने को लेकर गत दिनों से चल रही हड़ताल के अनेक रुख धारण कर जाने से भी यह बातें केन्द्र बिन्दु बनीं रही हैं। इस स्थिति में एक बार तो कश्मीर का मामला पीछे रह गया प्रतीत होता था। लगभग गत 30 वर्षों से कश्मीर का मामला राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ज्वलंत रहा है। आज भी पाकिस्तान भारत के साथ अपने संबंधों के संदर्भ में इसको पहला मामला बताता है। 1947 में देश की आज़ादी के समय से ही भारत से अलग हुए पाकिस्तान ने इसको मुख्य मुद्दा बनाये रखा। उस समय उसने अपनी सेनाओं के साथ-साथ कबाइलियों से हमला करवाकर कश्मीर के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था, जो आज तक उसके नियंत्रण में है। आज भी वह किसी न किसी तरह समूचे कश्मीर को हथियाना चाहता है। भारत के साथ किसी भी सीधी जंग में हुए और होने वाले नुक्सान की सम्भावना को देखते हुए उसने अलग-अलग आतंकवादी संगठनों को अपनी धरती पर शरण दी हुई है। इन संगठनों ने गत तीन दशकों से हिंसक ढंग तरीके अपनाकर कश्मीर की शेष धरती को हथियाने की कोशिशें की हैं। उनके द्वारा भारत में खून-खराबा करने की कार्रवाइयां की गईं। अपने इस मिशन में आतंकवादी सफल भी होते रहे, क्योंकि इनको प्रत्यक्ष रूप में पाकिस्तान से समर्थन मिल रहा था और वह इनका हर पक्ष से संरक्षण भी करता आ रहा था। अपने इन प्रयासों द्वारा वह कश्मीर के लोगों को भी अपनी तरफ करने के लिए तत्पर रहा और एक बड़ी सीमा तक इसमें सफल भी रहा। तत्कालीन सरकारों ने इसके हल के लिए अनेक प्रयास किए, परन्तु उनकी बात नहीं बनी और हालात और भी बिगड़ते चले गए। इस स्थिति को देखते हुए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने एक बड़ा कदम उठाया। धारा 370 और 35 ए को हटाकर जम्मू-कश्मीर को दो केन्द्रीय शासित राज्यों में बांट दिया और वहां अनेक तरह की पाबंदियां भी लगा दीं, जो गत पांच महीनों से बदस्तूर जारी हैं। इस समय के दौरान सरकार द्वारा किए बड़े प्रयासों के कारण अब आतंकवादियों का प्रभाव तो कुछ कम हुआ दिखाई देता है। पहले की तरह वहां अब आतंकवादियों से ज्यादा मुठभेड़ें नहीं हुईं, न ही आतंकवादियों के हाथों अधिकतर सुरक्षाबल और आम नागरिक हिंसा का शिकार हुए हैं, परन्तु इस समूचे समय के दौरान विपक्षी पार्टियों द्वारा और अलग-अलग संगठनों द्वारा इस क्षेत्र पर लगाई गई कड़ी पाबंदियां हटाने की मांग भी की जाती रही है। इस संबंध में बहुत सारी याचिकाएं भी सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई थीं। इस समय के दौरान सरकार कश्मीर में शान्ति व्यवस्था होने का दावा भी करती रही है। चाहे इसके द्वारा पार्टियों को तो वहां जाने की छूट नहीं दी गई परन्तु कुछ महीने पूर्व ही यूरोपीय संसद के कुछ सदस्यों को घाटी के निश्चित स्थानों पर ले जाया गया था। इसी कड़ी में ही अब अलग-अलग देशों के 15 राजनयिकों को वहां दो दिन की यात्रा करवाई गई है, जहां वह सरकारी अधिकारियों, कुछ नागरिक संगठनों तथा पीपल्ज़ डैमोक्रेटिक पार्टी के आठ सदस्यों से भी वह मिले हैं, ताकि उनके द्वारा अपने तौर पर स्थिति का जायज़ा लिया जा सके। इसके साथ ही अब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी यह फैसला सुनाया गया है कि राज्य में फोन तथा इंटरनेट सेवाओं की बहाली की जाए और सात दिनों में घाटी में लगाई गई पाबंदियों का सरकार द्वारा पुन: निरीक्षण किया जाए। सरकार द्वारा अभी भी स्थिति पर कड़ी नज़र रखी जा रही है और सुरक्षा के ठोस प्रबंध भी किए गए हैं। अब भी उसने यह दावा किया है कि यह पाबंदियां समय आने पर हटा ली जायेंगी। इस तरह से केन्द्र सरकार के लिए भी यह आवश्यक बन गया प्रतीत होता है कि वह लगाई गई इन पाबंदियों को शीघ्र अति शीघ्र हटाने का प्रयास करे और राज्य में राजनीतिक गतिविधियां शुरू करने के लिए भी पार्टियों से बातचीत शुरू करे। चाहे अभी भी स्थिति नाजुक बनी हुई है, परन्तु अब हालात को सामान्य बनाने के लिए निरन्तर प्रयासों में ही उसकी सफलता मानी जायेगी। 

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द