बाल-विवाह की कुप्रथा को खत्म करना होगा

बाल-विवाह एक कुप्रथा है। भारत जैसा देश जो सबसे तेज़ी से विकास कर रहे देशों में से एक है, यहां अब भी बाल-विवाह एक वास्तविकता है। यूनिसेफ के आंकड़े इस संदर्भ में खतरनाक व डराने वाले हैं। विश्व भर के बाल-विवाह के कुल आंकड़ों का लगभग 40 फीसदी भारत में ही है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश 73 फीसदी, राजस्थान 68 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 64 फीसदी, आंध्र प्रदेश तथा बिहार में क्रमश: 71 और 67 फीसदी बाल-विवाह होते हैं। महाशक्ति के रूप में उभर रहे भारत देश के लिए यह रिपोर्ट बेहद डराने वाली है। क्योंकि विश्व पटल पर जब हम एक महाशक्ति के रूप में उभरेंगे तो यह कुप्रथा उस विकास की राह में, मंजिल में एक काले दाग-सा स्पष्ट दिखाई देगा।दरअसल बाल-विवाह एक कुरीति मात्र नहीं है, वरन् एक  अपराध भी है, जिसमें हम बच्चों-बच्चियों का अमूल्य बचपन खत्म कर उन्हें आर्थिक, शारीरिक व पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबा देते हैं। वैसे भी बाल-विवाह मानवाधिकारों का दुरुपयोग भी है।  बाल-विवाह का इतिहास यूं तो बहुत पुराना नहीं है। वैदिक काल में हमें स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि लड़की जब युवा होती थी, तो उसे अपना वर चुनने का अधिकार प्राप्त था। परन्तु इतिहास में वर्णन मिलता है कि बाल-विवाह का प्रचलन दिल्ली सल्तनत के समय शुरू हुआ। उस वक्त जब विदेशी आमक्रणकारियों ने लड़कियों को जबरन बंधक बनाकर लूटना शुरू किया। इस अपहरण और दुष्कर्म जैसी घटनाओं से बचने के लिए लोगों ने अपनी छोटी-छोटी बच्चियों का विवाह करना शुरू कर दिया। बाल-विवाह के लिए ज़िम्मेदार एक और प्रमुख कारण हमारे समाज में विद्यमान हैं, वो हैं, हमारे बुजर्गों की पोता-पोती देखने की चाहत, जिसके चलते छोटी-सी उम्र में विवाह कर दिया जाता है।छोटी उम्र में ही गृहस्थी की ज़िम्मेदारी आ जाने से बचपन कहीं गुम-सा जाता है, ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करते-करते मानसिक व शारीरिक रूप से कमज़ोर हो जाते हैं। क्योंकि मानसिक रूप से अबोध बालिकाएं बहू बन परिवार की ज़िम्मेदारी संभालने को तैयार नहीं होतीं और शारीरिक तौर पर मां बनने के लिए भी तैयार नहीं होतीं और धीरे-धीरे ये अलगाव और अवसाद की स्थिति की ओर भी ले जाता है, न केवल बच्चियां वरन् पुरुषों के लिए भी यह मुश्किल होता है। उन्हें समय से पहले परिवार की ज़िम्मेदारियों के लिए वित्तीय आवश्यकताओं का निर्वहन करना पड़ता है, जिसके चलते बाल-विवाह में बंधे दोनों पक्ष अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाते और उनका विकास अवरुद्ध हो जाता है। बचपन तो खोता ही है और इसका दूसरा खतरनाक पहलू यह है कि जल्दी या छोटी उम्र में शारीरिक संबंध बन जाने से या जानकारी के अभाव में एच.आई.वी. जैसी यौन संबंधी बीमारियों का भी खतरा बना रहता है। यही नहीं छोटी उम्र में मां बनने से कुपोषण जैसी समस्याएं भी होने की सम्भावना बनी रहती है और जानकारी के अभाव में प्रसव के समय मां की मौत भी अक्सर हो जाया करती है। इन बच्चियों में निर्णय लेने की क्षमता कम होती है। विवेक व परिपक्वता नहीं होती, जिससे वे घरेलू हिंसा व दबाव में आसानी से आ जाती हैं। अधिक शिक्षित होने के कारण आर्थिक रूप से भी कमज़ोर हो जाती हैं। इस कारण और भी सामाजिक समस्याएं आ जाती हैं।  देश में व्याप्त गरीबी, शिक्षा का निचला स्तर, जागरूकता का अभाव, लड़कियों को पराया धन व बोझ समझने की मानसिकता व कुछ सामाजिक प्रथाएं व परम्पराएं  भी वजह हैं इस कुरीति के लिए। इस कुप्रथा के उन्मूलन के लिए सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं की पहल पर कई कानूनों का निर्माण हुआ। इसके तहत शिक्षा को सुगम भी बनाया गया। 1929 में बाल विवाह निरोधक अधिनियम बनाया गया जिसे पूरे देश में समान रूप से लागू किया गया, जिसके तोड़ने पर कारावास व जुर्माना तय किया गया। 1940 में इसमें संशोधन कर इसकी खामियों को दूर करने का कार्य किया गया। इसके अन्तर्गत वयस्क होने के दो वर्ष के भीतर विवाह को अवैध घोषित कर सकते हैं। सिर्फ कानून बना देने से इस कुप्रथा का अंत नहीं हो सकता। इसके लिए तंत्र को मज़बूत व जनता को जागरूक बनाना  होगा। बच्चों के अधिकारों को लेकर सजग होना पड़ेगा, इसके लिए स्कूल, घर, सिनेमा, टी.वी. मीडिया समेत सभी संस्थाओं को अपना योगदान देने की ज़रूरत है।