महंगी हो रही बिजली

पंजाब में बिजली की दरों में हाल ही में हुई भारी वृद्धि से जन-साधारण के बीच चिन्ता और असहायता जैसी स्थिति बन गई है। चिन्ता इसलिए कि बिजली की कीमतों में वृद्धि से प्रदेश के आम आदमी पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा, जिससे उसका सम्पूर्ण घरेलू बजट भी लड़खड़ा जायेगा। चिन्ता यह भी है कि वर्ष 2017 में जब से सरकार बनी है, प्रदेश में बिजली की दरों में 18 बार वृद्धि की जा चुकी है। काउ-सैस के नाम पर लिया जाता शुल्क इसके अतिरिक्त है। बिजली दरों में वृद्धि का एक बड़ा कारण बिजली की चोरी आदि से पंजाब राज्य बिजली निगम को पड़ रहे घाटे को बताया गया है। बिजली की मांग-आपूर्ति हेतु निजी ताप बिजली घरों को हाल ही में की गई 1400 करोड़ रुपए की अदायगी भी इस दर-वृद्धि का कारण हो सकती है। बिजली निगम ने स्वयं स्वीकार किया है कि पंजाब सरकार द्वारा वसूल किया जाता भारी-भरकम शुल्क एवं सब्सिडी राशि की अदायगी न होना उसके सिर पर बोझ बढ़ते जाने का बड़ा कारण है। बिजली विभाग को पड़ रहे घाटे का इल्म तो प्राय: सभी को है, परन्तु न तो कभी इस घाटे के पीछे के वास्तविक कारणों को जानने की किसी ने कोई कोशिश की है, न ही इस स्थिति से पार पाने हेतु सरकार ने कभी दृढ़ इच्छा-शक्ति का ही प्रदर्शन किया है। लिहाज़ा नौबत एकदम से बिजली की दरों को बढ़ाने तक आ जाती है, और इसका प्रभाव प्रदेश के आम एवं गरीब वर्ग को लाज़िमी तौर पर भोगना पड़ता है। इससे जन-साधारण पर वैयक्तिक प्रभाव पड़ने के अतिरिक्त सामूहिक रूप से महंगाई में वृद्धि होने का खदशा भी बना रहता। इस प्रकार यह एक ऐसा चक्र बन जाता है, जो मूल रूप से गरीब एवं मध्यम वर्ग को प्रभावित करता है। इस वृद्धि से प्रदेश में असहायता की स्थिति इसलिए बनती है कि जन-साधारण के पास इस भार को चुपचाप सहन करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता। विगत कुछ दशकों से राजनीतिक धरातल पर स्थिति यह बनी है कि सरकारें जब चाहें, कोई भी फैसला चाहे वह आम लोगों के विरुद्ध ही क्यों न हो, कर भी लेती हैं, और उसे लागू भी कर देती हैं। विपक्षी दलों के पास भी अव्वल तो जन-साधारण से जुड़े मुद्दों के लिए समय ही नहीं होता, और यदि वे सक्रिय होते भी हैं, तो सरकारें उनकी सुनती ही नहीं। नतीजा यह होता है कि दोनों पक्ष आम आदमी की कीमत पर अपनी-अपनी राजनीति की रोटियां सेंकने लगते हैं। वर्तमान में भी यही कुछ हो रहा है। बिजली निगम ने अपने खर्च और उत्पादन-लागत में वृद्धि होने की आड़ लेकर बिजली की दरों में वृद्धि की घोषणा की है। इससे जन-साधारण के बजट पर तो अतिरिक्त बोझ पड़ेगा परन्तु सरकार के राजस्व पर भी उल्टी मार पड़ने की सम्भावना है। बहुत स्वाभाविक है कि इससे सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी राशि में भी भारी इज़ाफा होगा। इससे पूर्व सरकार को भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में और कृषि, उद्योग जैसे भिन्न-भिन्न वर्गों को दी जा रही मुफ्त एवं सस्ती बिजली के कारण 11,000 करोड़ से भी अधिक की सब्सिडी देनी होती है। अब इसमें 300 करोड़ रुपए वार्षिक का अतिरिक्त बोझ पड़ने की सम्भावना है। यह भी पता चला है कि बिजली विभाग के सिर अभी भी 1400 करोड़ रुपए की देनदारी है, और सम्भवत: इसकी भरपाई भी जन-साधारण से ही की जायेगी। इस प्रकार आम लोगों को देर या सवेर एक और बोझ सहन करने के लिए भी तैयार रहना होगा। बिजली निगम पर बढ़ने वाले संकट का एक कारण सरकार द्वारा बनती सब्सिडी की अदायगी न किया जाना भी बनता है। इससे एक ओर निगम का वित्तीय संकट तो गम्भीर होता जाता है, परन्तु सरकारी अदारों की मौज बनी रहती है। कृषि क्षेत्र की भांति वे भी अथाह बिजली का उपयोग करते रहते हैं। बिजली निगम को होने वाले घाटे का एक कारण यह भी है कि निजी बिजली घरों से उत्पादित बिजली की लागत सरकार नियंत्रित प्लांटों में उत्पादन की लागत अधिक होती है। निजी प्लांटों से हुए समझौते भी निगम के घाटे को बढ़ाते हैं, क्योंकि मौसम के अनुसार किये गये समझौतों के कारण बिना मौसम भी बिजली खरीद करनी ही पड़ती है हालांकि ऐसे अवसरों पर बिजली की मांग काफी हद तक कम हो जाती है। इस प्रकार राजनीतिक विसंगतियों और इच्छा-शक्ति के अभाव में यह एक ऐसा दुष्चक्र बन जाता है, जिसके बल निरन्तर बढ़ते जाते हैं। राजनीतिक ऩफा-नुक्सान की परवाह किये बिना पंजाब को सरप्लस बिजली प्रदेश बनाने के खोखले दावे भी बिजली निगम पर अतिरिक्त बोझ बनते हैं। इससे उत्पादन केन्द्रों पर बोझ बढ़ता है और बार-बार बाधाएं पड़ने से लागत भी बढ़ जाती है। सरकार की ओर से दी जाती सब्सिडी बिजली निगम पर पड़ते दबावों का बड़ा कारण होती है, परन्तु हर आने वाली सरकार के फैसले इन दबावों को और बढ़ाने का ही काम करते हैं। हम समझते हैं कि सरकारों को यदि सचमुच जन-हित की चिन्ता है तो सबसे पहले बिजली संबंधी नीतियों एवं फैसलों को युक्ति-संगत बनाना होगा। सब्सिडी को लेकर किसी भी फैसले पर कई तरह की मसलहतें हो सकती हैं, परन्तु यह तो किया ही जा सकता है कि यह सब्सिडी बिजली निगम के गले की नाग-फांस न बन जाए। ताप बिजली घरों पर निर्भरता कम करके भी इस संकट के ताप को कम किया  जा सकता है। निजी पावर प्लांटों के साथ हुए समझौतों का पुनर्निरीक्षण करना भी इसका एक सम्भावित निदान हो सकता है। सबसे बड़ी बात यह भी कि बिजली की चोरी को रोकने से आधी समस्या तो स्वत: हल हो जाती है। यह एक दुष्कर कार्य हो सकता है क्योंकि बिजली चोरी के बड़े मामलों में ‘बड़े लोग’ ही शामिल होते हैं। इसके लिए दृढ़ इच्छा-शक्ति की बड़ी ज़रूरत है। हम समझते हैं कि जिस दिन सरकार इस इच्छा-शक्ति को जागृत कर लेगी, बिजली की दरों को बढ़ाने की नौबत ही नहीं आएगी।