केन्द्र सरकार के लिए मुश्किल पैदा कर सकता है आर्थिक संकट

विशेषज्ञों की मान्यता है कि आर्थिक संकट के राजनीतिक फलितार्थ तुरंत नहीं दिखाई देते। वे जमा होते रहते हैं, और उन्हें पूरी तरह से सामने आने में दो-अढ़ाई साल का समय लगता है। नोटबंदी से जो नुकसान हुआ था, उसका राजनीतिक असर अब दिखाई दे रहा है। इसी तरह से जीएसटी की गड़बड़ियों से संकट में जो वृद्धि हुई, उसके परिणामों की स़िर्फ अभी झलक ही देखी जा सकती है। राज्यों के चुनावों पर इसकी जो छाप अभी देखी जा रही है, वह भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। लेकिन, अब यह संकट कम से कम तीन साल पुराना हो चुका है। सरकार इसका शमन नहीं कर पाई है। अब इसके राजनीतिक फलितार्थ निश्चित रूप से सामने आने शुरू होंगे। ऐसा लगता है कि 2020 आर्थिक स्तर पर राजनीतिक टकराव का वर्ष हो सकता है। नया साल आते ही मीडिया मंचों पर चर्चा यह होने लगी है कि 2020 में कौन-सा राजनीतिक मुद्दा बहसों के केंद्र में रहेगा? कुछ टिप्पणीकारों का कहना है कि भारतीय जनता पार्टी नागरिकता के प्रश्न को केन्द्र में रखना चाहेगी ताकि राष्ट्रवाद और हिंदू पहचान के इर्द-गिर्द सारी चर्चा होती रहे। पहली नज़र में यह अनुमान गलत नहीं दिखाई देता। गृहमंत्री अमित शाह से हाल ही में एक टीवी चैनल के एंकर ने पूछा कि आप लोग नागरिकता के सवाल पर तो बात करते हैं, लेकिन बेरोज़गारी के प्रश्न पर चर्चा से क्यों कतराते हैं? इस पर शाह ने चुनौती-सी देते हुए उत्तर दिया कि आप चाहें तो अपने चैनल पर नागरिकता के बजाय बेरोज़गारी पर कार्यक्रम करके देख लें। उनकी राय स़ाफ थी कि लोगों की दिलचस्पी नागरिकता के सवाल में ही होगी, इसलिए यह प्रश्न टीवी चैनलों की मजबूरी बन जाएगा। जो भी हो, टिप्पणीकारों का एक दूसरा हिस्सा भी है जो मानते हैं कि 2010 का केंद्रीय प्रश्न आर्थिक संकट बनने वाला है, न कि नागरिकता का सवाल। इन लोगों का विश्लेषण है कि सरकार की नागरिकता संबंधी योजनाओं (सीएए, एनआरसी और एनपीआर) से जो असंतोष फैलेगा, वह आर्थिक संकट के साथ जुड़ कर एक अनपेक्षित रूप ले सकता है। उस सूरत में ये दोनों असंतोष आपस में घुलमिल जाएंगे, और सरकार के लिए बहुत मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। शायद सरकार को भी इस तरह के अंदेशे हैं, इसलिए वह जल्दी से जल्दी यह साबित कर देना चाहती है कि नागरिकता के प्रश्न पर चल रहा प्रतिरोध आंदोलन विदेशी शक्तियों या संदिग्ध समर्थन के दम पर चलाया जा रहा है। इसी कारण से पीएफआई जैसे एक ऐसे संगठन का नाम उछाला जा रहा है जिस पर आज तक केवल यदाकदा ही चर्चा होती थी। भाजपा की राज्य सरकारें इस संगठन की गतिविधियों के बारे में केंद्र को पत्र लिख रही हैं जिससे सरकार का समर्थन करने वाले मीडिया को नयी प्रोपेगंडा मुहिम चलाने की लाइन मिल रही है। हाल ही में कुछ अर्थशास्त्रियों के बीच हुए एक संवाद से निकल कर आया कि आर्थिक संकट हल करने के लिए सरकार के पास राजकोषीय गुंजाइश बहुत कम रह गई है। राजकोषीय घाटा पहले ही नौ फीसदी के आस-पास था, और अभी 1.76 लाख करोड़ रुपए रिज़र्व बैंक ने लिए हैं। यह घाटा ग्यारह प्रतिशत के करीब पहुंच रहा है। यानी फिस्कल स्पेस बिल्कुल नहीं है सरकार के पास। सरकार को चाहिए था कि राजकोषीय गुंजाइश बढ़ानी थी, तो दो-अढ़ाई लाख करोड़ की रियायत कॉरपोरेट सेक्टर को न दे कर असंगठित क्षेत्र पर खर्च किये जाते ताकि बाज़ार में मांग पैदा होती। राजकोषीय घाटा तो बढ़ा दिया गया, पर मांग फिर भी नहीं बढ़ी। इन अर्थशास्त्रियों का मानना था कि सरकार का सारा ज़ोर औपचारिकीकरण और औपचारिक क्षेत्र पर है। असंगठित क्षेत्र को हाशिये पर डाला जा रहा है। जब तक यह हाशिये पर रहेगा तब तक समाधान नहीं होने वाला। सरकार की राजनीतिक समझ कुछ ऐसी ही है। पहले तो वह मान ही नहीं रही थी कि अर्थव्यवस्था संकट में है। जब दबाव पड़ने लगा, तो समझ में आया कि सरकार और सत्तारूढ़ दल जिसे वे दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था कह रहे थे, वह संकट में है। इस तरह सरकार ने दो साल संकट निवारण की कोई कोशिश ही नहीं की। सेंटर फॉर द मॉनिटरिंग ऑ़फ इंडियन इकॉनॉमी (सीएमआईइ) के आंकड़े बताते हैं कि निवेश का भट्टा बुरी तरह से बैठ चुका है, और उत्पादन भी बुरी तरह से गिर गया है। जो निवेश पांच लाख करोड़ का था, वह गिर कर 1.36 लाख करोड़ हो गया। यह अर्थव्यवस्था की सुस्ती न हो कर मंदी वाली स्थिति है। यानी, वृद्धि दर धीमी नहीं हुई है बल्कि पूरी तरह से ठप हो गई है। जो असंगठित क्षेत्र है उसके आंकड़े पांच साल में एक बार आते हैं। उसके बीच मान लिया जाता है कि असंगठित क्षेत्र उसी ऱफ्तार से बढ़ रहा है, जिस रफ्तार से संगठित क्षेत्र बढ़ रहा है। यह बात नोटबंदी के पहले ठीक थी, पर उसके बाद नहीं, क्योंकि संगठित क्षेत्र बढ़ रहा था और असंगठित क्षेत्र गिर रहा था। नोटबंदी के बाद हमारी वृद्धि दर नकारात्मक हो गई। उससे हम संभल भी नहीं पाए थे कि जीएसटी लागू हो गया। आम लोगों की आर्थिक खुशहाली के हुलिया का बयान करने वाले राष्ट्रीय सांख्यकीय कार्यालय (एनएसओ) के 68वें चक्र के आंकड़े आखिरी बार 2011-12 में जारी हुए थे। 2017-18 के आंकड़े जमा किये जा चुके हैं, पर सरकार उन्हें जारी नहीं होने दे रही है, क्योंकि उनके सामने आते ही आर्थिक गिरावट का प्रभाव बिगड़ती हुई राजनीतिक और सामाजिक स्थिति से सीधे जुड़ने के अंदेशे पैदा हो जाएंगे। अगर ऐसा हुआ तो ‘राजनीतिक’ को ‘आर्थिक’ से काट कर अलग रखने का सरकारी प्रबंधन धराशायी हो जाएगा।अगर एनएसओ की रिपोर्ट के लीक हुए अंशों के आधार पर किये जाने वाले विश्लेषणों पर गौर किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 31 फीसदी से बढ़ कर 35 हो गई है। इससे पहले माना यह जाने लगा था कि भूमंडलीकरण के कारण भारत में गरीबी में कुछ गिरावट आई है। पिछले पांच-छह साल में ग्रामीण भारत में रह रहे लोगों के उपभोग में 8.8 फीसदी की ज़बरदस्त गिरावट आई है। 2017-18 के श्रम-शक्ति सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि देश में बेरोज़गारी का स्तर पिछले 45 में सबसे ऊंचा है। ज़ाहिर है कि गरीबों के पास तो पैसे हैं ही नहीं, समाज के जिन हिस्सों की जेब में कुछ है भी, वे भी इस उदास, तनावग्रस्त, विभिन्न प्रकार की हिंसाओं से आक्रांत और संभावनाहीन वर्तमान से त्रस्त हो कर कम से कम खर्च करने की मानसिकता में चले गए हैं। बाज़ार से ग्राहक गायब है, मांग है ही नहीं, और फैक्ट्रियां अपनी क्षमता से क़ाफी कम उत्पादन कर रही हैं। लाखों में आने वाली कारों से लेकर पांच रुपए में बिकने वाले बिस्कुट के पैकेट तक के लिए खरीदारों का टोटा हो चुका है। मिंट मैक्रो ट्रैकर  के अनुसार आर्थिक गतिविधियों की महीने-दर-महीने की गई ट्रैकिंग बताती है कि 16 प्रमुख सूचकांकों में से दस सूचकांक गिरावट दर्शा रहे हैं। चूंकि यह ट्रैकर पांच साल का औसत निकाल कर उसे मानक की तरह इस्तेमाल करता है, इसलिए दिख यह रहा है कि जिन सूचकांकों में प्रदर्शन पिछले साल से कुछ सुधरा है, वहां भी पांच साल के औसत के म़ुकाबले वह नीचे है। इसकेमुताब़िक पिछले साल के म़ुकाबले न कारें बिक रही हैं, न टै्रक्टर, और श्रम-प्रधान उत्पादों का निर्यात भी घट गया है। वित्त आयोग ने बताया है कि सरकार के ऊपर बाज़ार को 63,200 करोड़ रुपए का जीएसटी-वापसी का भुगतान करना है। रिज़र्व बैंक बार-बार अपील कर रहा है कि बैंक निजी क्षेत्र को बड़ी परियोजनाओं के लिए कज़र् देना शुरू करें, पर बैंक  ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हैं। सब्ज़ियों और खाद्यान्न की महंगाई ने आम आदमी की रसोई का संतुलन बिगाड़ दिया है, और अन्य कारणों से महंगाई का सूचकांक बढ़ौतरी के लिए अभिशप्त है।