एनपीआर के बहाने- अवसरवाद की सियासत कर रहा है विपक्ष

नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) पर हुए देशव्यापी हिंसक आंदोलनों के चलते मोदी सरकार के बैक फुट पर जाने से अब नेशनल पापुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) का भी विरोध शुरू हो गया है। इसका नेतृत्व सीएए में आक्रामक ढंग से केंद्र के विरुद्ध मोर्चा लेने वाली ममता बनर्जी कर रही हैं। हकीकत यह भी है कि सीएए पर हुए देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों के पहले वह एनपीआर को मंजूरी दे चुकी थीं, लेकिन सीएए पर केंद्र के विरुद्ध हुए आंदोलनों से प्रोत्साहित ममता बनर्जी एनपीआर का जोरशोर से विरोध करके राज्य के 30 फीसदी अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपने पक्के वोट बैंक में तब्दील करना चाहती हैं। यही वजह है कि जिस योजना को उन्होंने अपने राज्य में पहले मंजूरी दे दी थी, और बुनियादी स्तर पर इस पर काम शुरू भी हो गया था, उस योजना पर 24 दिसंबर, 2019 को तब उन्होंने विराम लगा दिया, जब केंद्र से एनपीआर के लिए बजट आवंटित हुआ। 
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एनपीआर का विरोध करते हुए प्रदेश के सभी जिला आधिकारियों को निर्देश दिया कि वे इस काम को तुरंत रोक दें। उनके तेवर देखते हुए केरल और राजस्थान की सरकारें भी एनपीआर के विरोध पर उतर आईं। इस विरोध की आग में घी डालने का काम आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी ने यह कहते हुए किया कि एनपीआर एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) की तरफ बढ़ाया गया पहला कदम है। ओवैसी के मुताबिक सरकार नागरिकता अधिनियम 1955 के अनुसार एनपीआर कर रही है। ऐसे में क्या यह भी एनआरसी से जुड़ा नहीं है? एआईएमआईएम के अध्यक्ष और हैदराबाद के सांसद ओवैसी ने यह भी कहा कि गृहमंत्री देश को गुमराह कर रहे हैं। ओवैसी के इस बयान पर गृहमंत्री अमित शाह ने एक इंटरव्यू देते हुए न केवल देश को विस्तार से यह बताने की कोशिश की कि एनपीआर का एनआरसी से कोई संबंध नहीं है बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि ओवैसी मुसलमानों को भड़काने का काम कर रहे हैं।
लेकिन इस पूरे मसले पर सबसे आक्रामक विरोध ममता बनर्जी की तरफ से ही आया है। हाल में जिस तरह से नागरिकता अधिनियम के लिए देश में विरोधी राजनीति की भूमिका बनी है, उससे भी यही लगता है कि इस विरोध का नेतृत्व वही करने जा रही हैं। हालांकि यह विरोध इस नजरिये से हास्यास्पद भी है कि एनपीआर का डाटा पहली बार एकत्र नहीं हो रहा बल्कि यह 2010 में पहले ही एकत्र हो चुका है और 2015 में इसका संशोधन भी हो चुका है। पांच सालों बाद अब इस डाटा को सिर्फ  इसलिए संशोधित किया जा रहा है क्योंकि पांच सालों में हर डाटा काफी कुछ बदल जाता है। सवाल है आखिर एनपीआर सरकार क्यों करा रही है और ममता बनर्जी से लेकर कई दूसरे प्रदेशों के मुख्यमंत्री इसका विरोध क्यों कर रहे हैं?
क्या यह वास्तव में सिर्फ  विरोध के लिए विरोध है? क्या इस विरोध के पीछे राजनीतिक फायदा उठाने की मंशा भर है या वास्तव में इससे आम जनता को बड़ी समस्याएं पैदा होने जा रही हैं? वास्तव में एनपीआर देश के सामान्य नागरिकों की सूची है। साल 2010 में तत्कालीन संप्रग सरकार ने देश के नागरिकों की पहचान का एक डाटा बेस तैयार करने के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर की शुरुआत की थी। इसके तहत उन सामान्य नागरिकों की जानकारी एकत्र की जाती है, जो देश के किसी भी हिस्से में कम से कम छह महीने से रह रहे हों या अगले छह महीने तक उनके वहां रहने की संभावना हो। गृहमंत्री द्वारा न्यूज एजेंसी एएनआई की संपादक स्मिता प्रकाश को दिये गये अपने एक इंटरव्यू में बहुत स्पष्ट तरीके से कहा गया है कि इसका एनआरसी से दूर दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है। 
एनपीआर के तहत एकत्र किये गये डाटा के जरिये  केंद्र व राज्यों की विभिन्न कल्याण योजनाओं का खाका तैयार किया जाता है। गृहमंत्री के मुताबिक जो राज्य इसका विरोध कर रहे हैं, दरअसल वे राज्य अपने गरीबों व अल्पसंख्यकों का ही नुकसान कर रहे हैं, क्याेंकि अगर सरकार के पास जनसंख्या संबंधी ठोस डाटा ही नहीं होगा तो वह उनके लिए योजनाएं कैसे बनायेगी? सीएए पर स्वत:स्फू र्त्त ढंग से फू ट पड़े आंदोलन से सबक लेते हुए एनपीआर के विरोध पर न सिर्फ  गृहमंत्री बल्कि सरकार के कई दूसरे मंत्रियों ने भी मीडिया के सामने आकर देश को अलग अलग ढंग से स्पष्टीकरण देने की कोशिश की है ताकि इस मामले में किसी तरह की गलतफ हमी न फैले। 
मसलन केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि एनपीआर स्वैच्छिक तरीके से तैयार किया जाने वाला डाटा है, जिसमें नागरिक खुद अपने बारे में बताएंगे। इसके लिए किसी तरह कोई सबूत नहीं लिया जायेगा, लेकिन इसका विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि गृह मंत्रालय इसे अनिवार्य बना रहा है और  इसमें जुड़ी हर जानकारी सरकार के पास पहुंच जायेगी जिसका एनआरसी बनाने के लिए फायदा उठाया जा सकता है। कहा जा रहा है कि सरकार ड्राइविंग लाइसेंस, वोटर आईडी और पासपोर्ट को इससे जोड़ रही है, जो कि नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 14 ए के तहत वैध नागरिक बनने के लिए जरूरी प्रक्रिया का हिस्सा है। 
वैसे भी संघवादी प्रशासनिक ढांचे में केंद्र मजबूत होता है। अगर हम इसे भारत के संविधान की नजर से भी देखें तो अनुच्छेद 256 में यह स्पष्ट रूप से दर्ज है कि राज्य की कार्यपालिका संसद द्वारा पारित विधियों का पालन करेगी। इससे साफ  हो जाता है कि ममता बनर्जी और अन्य दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री सीएए की आड़ में एनपीआर का जो विरोध कर रहे हैं, वह कहीं न कहीं केंद्र-राज्य संबंधों को कमजोर कर रहा है। इससे देश का संविधान भी कमजोर हो रहा है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर