‘महाराजा’ भी खिसकने के लिए तैयार

दशकों से लगातार घाटे में जा रही सरकारी विमानन कम्पनी एयर इंडिया को केन्द्र सरकार ने दूसरी बार बेचने का ऐलान किया है। लगभग दो वर्ष पूर्व सरकार ने इसको बेचने के लिए विज्ञापन दिए थे, परन्तु उस समय कुछ ऐसी शर्तें लगा दी गई थीं, जिनके कारण एक भी खरीदार मैदान में नहीं उतरा था। अब इस बात में कोई संदेह नहीं रहा कि व्यापार से संबंधित अधिकतर सरकारी संस्थान बीमार दिखाई देते हैं, जिनमें से कुछ को समय पर बेच दिया गया उनमें से सरकार को कुछ मिल भी गया और उनसे होते घाटे से उसको छुटकारा भी मिल गया। जिनको नहीं बेचा जा सका था, वह धीरे-धीरे बीमार होते गए और अंतत: दम तोड़ गए। 
किसी भी तरह के औद्योगिक व्यापार करने सरकार के बस की बात नहीं लगती क्योंकि यह ‘सरकारी माल’ हो जाता है। सभी उसको इस दृष्टि से देखने लगते हैं। अधिकतर इसको चलाने में दिलचस्पी नहीं रखते। इनमें भ्रष्टाचारी रुचियों का चलन हो जाता है। अंतत: यह सरकार और समाज पर बोझ बन जाते हैं। सरकार को ही नहीं, अंत में लोगों को ही इसके घाटे को भुगतना पड़ता है। एयर इंडिया का बड़ा नाम है और इसकी बड़ी शान भी है। लगातार इसको बड़ा घाटा क्यों पड़ता रहा, इसके अनेक कारण हैं। परन्तु अब यह घाटा इस सीमा तक जा पहुंचा है कि सरकार के लिए भी यह बोझ बन गया है। 1932 में जे.आर.डी. टाटा द्वारा शुरू की गई इस विमानन कम्पनी का 1953 में राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था। बाद में जैसे अक्सर देखा गया है इसको सरकारी नीतियों और नौकरशाही का ग्रहण लग गया था। तत्कालीन राजनीतिज्ञों ने इसका अपने-अपने हितों के लिए इस्तेमाल किया। आज हालत यह है कि इस पर 60 हज़ार करोड़ रुपए का कज़र् चढ़ चुका है। 1500 करोड़ के लगभग कर्मचारियों की देनदारियां भी शेष हैं। कम से कम गत 25 वर्षों से पड़ता यह घाटा आज यहां तक पहुंच गया है कि सरकार भी इससे पीछा छुड़ाना चाहती है। अन्य निजी विमानन कम्पनियों के मुकाबले इसकी कारगुज़ारी हर पक्ष से बेहद धीमी दिखाई देती है। तत्कालीन सरकारों ने अधिकतर सरकारी व्यापारिक संस्थानों को अपने गले से उतारने की नीति लम्बे समय से धारण की हुई है, परन्तु एयर इंडिया से सरकार की शान जुड़ी दिखाई देती थी। परन्तु यह शान अंतत: खोखली साबित हुई। सरकार अपने गले में पड़ी जंजीर को उतारने की कवायद करती रही। इसीलिए इस बार उसने इसको बेचने के लिए शर्तों में बड़ी नरमी लाई है। पहली बार इसने इसका 76 प्रतिशत हिस्सा बेचने का ऐलान किया था परन्तु इस बार छलांग लगा कर इसको सौ प्रतिशत कर दिया है। इस बार बोली की राशि को 5,000 करोड़ से घटाकर 3500 करोड़ कर दिया गया है और इसलिए कई कम्पनियों द्वारा एकजुट होकर एक समूह बनाने की नीति को भी उदार कर दिया है। परन्तु इसके 16,000 कर्मचारियों का क्या बनेगा और इसको खरीदने वाली कम्पनी उनसे कैसे निपटेगी, इसके बारे में बात अभी स्पष्ट नहीं हो सकी। गत समय के दौरान जैट एयरवेज़ जैसी निजी विमानन कम्पनियां भी बंद हो गई हैं। किंगफिशर का मालिक विजय माल्या तो देश छोड़ कर भाग ही गया है। सरकार ने इस कम्पनी पर चढ़े बड़े ऋण का भी काफी हिस्सा अपने सिर ले लिया है। इस तरह अब खरीदार को 60,000 करोड़ में से 23,000 करोड़ ऋण ही देना पड़ेगा। इतनी गौरवशाली कम्पनी के बिकने का मलाल तो अधिकतर को होगा ही और इसी कारण ही कुछ राजनीतिक पार्टियों तथा अन्य लोगों द्वारा इस फैसले की आलोचना भी की जा रही है। परन्तु सरकार चिरकाल से सिर का दर्द बनी इस कम्पनी से पीछा छुड़ाना चाहती थी, क्योंकि इस पर लगातार चढ़ती ऋण की गठरी को सरकार हल्का करने में सफल नहीं हो सकी। 
इससे यह स्पष्ट हो गया है कि किसी भी तरह के व्यापारिक धंधे करना सरकार के बस की बात नहीं है। वह लोगों को हर तरह का प्रशासन प्रदान करे, छोटे-बड़े संस्थानों की सही ढंग से देख-रेख करे और उनको कठिनाइयों से निकाल कर उत्साहित करने का प्रयास करे, यही उसका लक्ष्य होना चाहिए। इसी तरह ही सरकार लघु उद्योग तथा छोटे व्यापार को अच्छे उत्साह देकर रोज़गार के बड़े साधन जुटाने में सहायक हो सकती है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द