किसानों की उम्मीदों पर खरा उतरे बजट

देश में किसानों की खराब हालत का सबसे बड़ा कारण नेताओं की बदलती सोच है। जब पार्टी का नेता सत्ता में होता है, वह अलग सोचता है और जब विपक्ष में होता है तो अलग। विपक्ष में रहते नेता किसान का सबसे बड़ा हितचिंतक होता है। वह हर ऐसा काम करने की योजना बनाता है जिससे किसानों का भला हो। जब वही नेता सत्ता में आता है, तो उसकी सोच बदल जाती है। यह सही है कि एक के बाद एक सरकारों ने कृषि के विकास को अपनी प्राथमिकता सूची में शीर्ष पर रखा लेकिन तमाम योजनाएं भी इस क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ाने में सफल नहीं हो सकी हैं। कृषि की जो उपेक्षा हुई, उसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को खोखला कर डाला है। इसका एक दुष्परिणाम गांवों से शहरों में पलायन है।
सरकार कामधेनु, मिनी कामधेनु और माइक्रो कामधेनु योजनाएं चला रही है। इसके तहत गाय और भैंस दोनों की डेरियां चलाई जा सकती हैं। सरकार ने इसी योजना के तहत महज गायों की डेरी खोलने पर हौसला बढ़ाने की नई योजना लाने का ऐलान किया है। इस योजना के लिए सरकार बचतों के जरिए ही जरूरी पैसों का बंदोबस्त करेगी। किसान के लिहाज से उत्तर प्रदेश सरकार के ये ऐलान खासे लुभावने कहे जा सकते हैं पर कुल मिलाकर मसला तो किसानों की भलाई का ही है। वैसे भी विधानसभा चुनावों से पहले सरकार हर भला काम करना चाहेगी ताकि उसे दोबारा मौका मिल सके।
किसानों के लिए सरकार की कई योजनाएं अच्छी होती हैं पर इसकी कामयाबी के लिए सरकारी अफसरों को यह ध्यान देने की जरूरत है कि सरकारी योजनाओं और मदद का फायदा किसानों को समय पर मिले, तभी उनका फायदा किसानों को मिल सकेगा। ज्यादातर यही होता है कि सरकारी योजनाओं का फायदा किसानों को समय पर नहीं मिल पाता। किसान अफसरों और दफ्तरों के चक्कर काटता रह जाता है और खेती का समय खत्म हो जाता है। 
असल में भारत का किसान न तो अपने मुद्दों पर जागरूक है और न संगठित। ऐसे में जब दल विपक्ष में रहता है तो उसको लुभाने के लिए मीठी-मीठी बातें करता है। सत्ता पाते ही किसान को भूल जाता है। किसान की विडंबना यह है कि 70 फीसदी किसान आबादी होने के बाद भी वह जाति-धर्म में बंटा है। जिस दिन किसान संगठित हो गया, उसकी बात सत्ता के लोग भी सुनेंगे और विपक्ष के लोग भी।  जुलाई में पेश किए अपने पहले बजट में वित्त मंत्री सीतारमण ने दावा किया था कि बजट समेत उनकी सारी नीतियाें के केंद्र में ‘गांव, गरीब और किसान’ है। अन्नदाता को ऊर्जादाता बनाने, ग्रामीण इलाकों के पारंपरिक उद्योगों को बढ़ावा देने की स्फूर्ति योजना, अगले पांच सालों में 10,000 नए फार्मर प्रोड्यूसर संगठन(एफपीओ) बनाने और जीरो बजट फॉर्मिंग जैसी अच्छी बातें कहीं थीं। उम्मीद है कि फरवरी 2020 में पेश होने वाले नए बजट में वे इन घोषणाओं पर अमल की प्रगति का विवरण जरूर देंगे। देश में 86.2 फीसद लघु और सीमांत किसान हैं जिनके पास 5 एकड़ से कम जमीन है। इन किसानों के पास देश की 47.3 प्रतिशत ही फसली जमीन है। दिक्कत यह है कि सरकार तक बाकी 13.8 प्रतिशत अपेक्षाकृत बड़े किसानों की ही बात पहुंचती है। लघु और सीमांत किसानों की बुनियादी दिक्कतों को दूर करना बजट में प्राथमिकता पर लेना होगा। किसान को पता है कि सरकार अगर चाहे तो उसका मुकद्दर चमक सकता है।  2019 की दूसरी तिमाही में कृषि अर्थव्यवस्था 4335.47 अरब रुपए थी जो तीसरी तिमाही में गिरकर 3651.61 अरब रुपए पहुंच गई। 2011 से 2019 तक कृषि अर्थव्यवस्था का औसत 4126.42 अरब रुपए था। आज हम इस औसत से भी नीचे आ गए हैं जबकि 2018 की चौथी तिमाही में यह अब तक के सर्वोच्च स्तर 5869.41 अरब रुपए पर पहुंची थी। वहीं 2011 के तिमाही में यह अपने सबसे कम स्तर 2690.74 अरब रुपए पर पहुंच गई थी। 
देश में लघु व सीमांत किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है। दसवीं कृषि जनगणना 2015-16 के आंकड़ों के मुताबिक 2010-11 से 2015-16 के बीच इनकी संख्या तकरीबन 90 लाख बढ़ गई, जबकि कुल किसानों में इनका हिस्सा 84.9 प्रतिशत से बढ़कर 86.2 प्रतिशत हो गया। जानकारों का मानना है कि अगले दो दशकों तक भारत को इन किसानों से मुक्ति नहीं मिलेगी। देश के बड़े और समृद्ध किसानों की बात सरकार तक पहुंचती रहती है। अभी हाल ही में 17 दिसंबर को कृषि व कृषि प्रसंस्करण क्षेत्र के प्रतिनिधि आगामी बजट में अपनी मांगें शामिल करवाने के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से मिले हैं। इनमें उद्योग संगठन सीआईआई, राष्ट्रीय सहकारी संघ, ग्राहक पंचायत, गन्ना किसान संघ, खाद कंपनी इको, मसाला निर्यातक फोरम व कमोडिटी एक्सचेंज एनसीडीआईएक्स के प्रतिनिधियों के साथ ही बड़े किसानों के नुमाइंदे और तमाम कृषि विशेषज्ञ शामिल हुए। इन्होंने एग्रो मेडिसिनल फॉरेस्ट्री विकसित करने, विदेश में भारतीय कृषि उत्पादों के ब्रांड बनाने और कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ाने जैसे अनेक सुझाव दिए लेकिन देश के 86.2 प्रतिशत आम किसानों का भला कैसे होगा, इसका कोई ठोस सुझाव सामने नहीं आया। 
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए एक सक्षम परिस्थितिकी तंत्र की पहचान, उन्हें प्रोत्साहित और पोषित करने के साथ एक न्यूनतम लेकिन गारंटीयुक्त आय जरूरी है। निर्माण, आधारभूत संरचना, चमड़ा और हस्तकरघा जैसे सहायक उद्योग रोजगार का सृजन कर सकते हैं। किसानों की आमदनी भी इससे बढ़ेगी। एक ऐसे सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र की जरूरत है जो उपभोग, आमदनी और समान विकास को सही गति दे। ग्रामीण विकास गरीब को तीन गुना अधिक गति से कम करता है। वित्त मंत्री को चाहिए कि समग्र सुधारवादी और किसान केंद्रित नीतियों के निर्माण को बढ़ावा दें। बजट में किसान धन का प्रावधान करें। सरकार को समझना होगा कि गांवों और किसानों का मसला सड़क व घर बनवा देने और दान-दक्षिणा या सब्सिडी लुटाने तक सीमित नहीं है। बड़ी-बड़ी कंपनियों की सेहत गांवों में मांग घटने से गड़बड़ाने लगती है।
 प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि जैसी योजनाओं से किसानों का ही नहीं, सारी अर्थव्यवस्था का ठहराव दूर होता है। नकद वितरण योजनाओं ने कई मायने में गरीबी घटाई है। यकीन है कि इस व्यापक सोच के साथ वित्त मंत्री सीतारमण आगामी बजट में ‘गांव, गरीब और किसान’ के लिए ज़रूर कोई न कोई सार्थक व सकारात्मक पहल करेंगे। (अदिति)