धर्म-निरपेक्ष लोकतंत्र का हिन्दूवादी एजेंडा

नागरिकता संशोधन बिल पास करने की जल्दबाज़ी में देश के युवा वर्ग को ही नहीं जगाया, कपिल सिब्बल, रीबैरो तथा गुरबचन जगत जैसे राजनीतिज्ञों और सेवानिवृत्त अधिकारियों को भी भारत के संविधान पर पहरा देने के लिए मजबूर किया है। वास्तव में केन्द्र सरकार का एकमात्र उद्देश्य भारत के मुसलमानों को यह दर्शाता है कि वह देश में हिन्दुत्व के रहमोकरम पर हैं। भाजपा के इस कदम की जड़ अयोध्या के फैसले को सहज ढंग से स्वीकार करने में है। 
भाजपा समझती थी कि जो तब नहीं बोले, अब भी चुप रहेंगे। पार्टी भूल बैठी कि बुद्धिजीवी और युवा वर्ग भाजपा नेताओं जैसे नासमझ नहीं। वह धार्मिक मामलों को तो नज़रअंदाज़ कर सकते हैं, परन्तु जब आम लोगों की नींवों में तेल डालने की योजनाबंदी हो रही हो, तो उनकी मूक स्वीकृति ऐसे राजनीतिज्ञों के हौसले बढ़ा सकती है। वह किसी हालत में भी अपने देश को मुस्लिम पाकिस्तान या बंगलादेश तथा बौद्धि श्रीलंका या म्यांमार के रूप में नहीं देख सकते। वह यहां की धर्म-निरपेक्षता के लिए मर-मिट सकते हैं। कल को उनकी जागृति के क्या परिणाम निकलेंगे यह तो समय ने बताना है, परन्तु आज के दिन भाजपा के नेता घबराये प्रतीत होते हैं। गृह मंत्री का बार-बार यह कहना कि सरकार इन फैसलों पर पुन: विचार करने के लिए बिल्कुल ही तैयार नहीं, यही बताता और दर्शाता है। 
सरकार के साथ पंगा लेने वाले जानते हैं कि देश नागरिक शिष्टाचार के पक्ष से दस आंकड़े नीचे जा चुका है, आर्थिक स्थिति बद से बदतर हो रही है। जम्मू-कश्मीर, गोवा, उत्तर-पूर्वी राज्यों के पर्यटन स्थलों पर जाने वाले यात्री आधे भी नहीं रहे। बेरोज़गारी ने कार्य करने वाली आयु के निवासियों के पांवों के नीचे से ज़मीन खींच ली है। गौरवशाली शिक्षा संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों में छात्र भी रोष प्रकट कर रहे हैं और भारत का असली बिम्ब गिर चुका है। समूचे एशिया में ‘अनेका में एकता’ के लिए जाना जाता भारत गलत रास्ते पर डाला जा रहा है। देखते हैं क्या बनता है? आमीन!
उत्तराखंड सरकार का हास्यास्पद फैसला
जब उत्तराखंड 2010 में उत्तर प्रदेश से निकल कर अलग राज्य के तौर पर अस्तित्व में आया तो इसने उर्दू की बजाय संस्कृत को दूसरी सरकारी भाषा के तौर पर अपना लिया। परन्तु अब दस वर्ष गुजरने के बाद किसी सिरफिरे ने जोकि केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा का अनुयायी हो सकता है, राज्य सरकार को स्मरण करवाया कि उनके राज्य में पड़ते देहरादून, हरिद्वार, रुढ़की आदि रेलवे स्टेशनों पर फारसी लिपि में लिखे गए नाम संस्कृत में लिखे जाएं, क्योंकि संस्कृत भी देव नागरी में लिखी जाती है। सरकार ने इस प्रस्ताव पर अमल करने के आदेश भी जारी कर दिए हैं। वह भूल गई है कि ऐसा करने से देश भर के उन यात्रियों की सुविधा छिन जायेगी, जो फारसी लिपि से परिचित हैं और देव नागरी जानने वालों को बिल्कुल ही कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि संस्कृत भाषा भी देव नागरी में लिखी जाती है। वह देहरादून तथा हरिद्वार के बिल्कुल नीचे देहरादूनम और हरिद्वारम पढ़कर सरकार की खिल्ली नहीं उड़ायेंगे तो और क्या करेंगे। स्मरण रहे कि किसी भी शहर या वस्तु देव नागरी लिपि वाली हिन्दी की बजाय संस्कृत शब्द जोड़ों में लिखने के समय सिर्फ ‘म’ उच्चारण या ध्वनि लगाने की ज़रूरत है। कल को उत्तर प्रदेश की सरकार भी इस रास्ते चल पड़ी तो यह मजाक राष्ट्रीय स्तर से भी ऊपर चला जायेगा। 
जम्मू-कश्मीर की स्वतंत्रता और भारत
जम्मू-कश्मीर के संबंध में धारा 370 हटाये जाने के बाद उस राज्य के भारतीय संविधान से अलग संविधान वाला होने पर चर्चा चल पड़ी है। अमित शाह के दमगजे कितने भी ऊंचे हों, इसके परिणाम अत्यंत गम्भीर निकल सकते हैं। यह चर्चा अंतर्राष्ट्रीय तूल पकड़ सकती है, क्योंकि भारतीय संविधान उस राज्य के संविधान पर लागू नहीं होता। 
जम्मू-कश्मीर का संविधान इससे स्वतंत्र है। धारा 370 ही थी जिसने वहां के राज्य को भारत से जोड़ कर रखा था। वर्तमान सरकार ने इस नाते को तोड़ कर अपने पांवों पर स्वयं ही कुल्हाड़ी मार ली है, रब्ब खैर करे।
निर्भया हत्या दोषियों की वकालत
अंतत: निर्भया हत्या दोषियों को मौत की सज़ा पर मोहर लग गई है। मोहर लगाने वाली सभी अदालतें बधाई की हकदार हैं। ऐसे वहशी अपराधियों के सात वर्ष जीवित रहने पर चर्चा होती रहेगी और मौत की सज़ा का ऐसे अपराध करने वालों पर कितना असर होता है, इस पर भी।
अंतिक़ा
(साल मुबारक, रघवीर सिंह टेरकियाणा)
वीह सौ उन्नी ले गया कई कुझ अपणे नाल समेट
वक्त दीयां घटनावां पऊंदियां ज़ेहन मेरे ते वेट
कश्मीर दे विच अड़ाई जाके भाजपा वालेयां टंग
ते उत्थों दे लोकां दी वी शान्ति कीती भंग
बस इक भगवेकरण दा ही है बीजेपी नूं ख्याल
हिन्दुत्व दा मुल्क दे उत्ते सुट्टी जा रहे जाल
मैं नहीं चाहुंदा कि कोई करे इक दूजे नू हेट
वीह सौ वीह दी वदिया लंघे तुहाडी हर इक डेट।