छल-कपट की राजनीति

पिछले 70 वर्षों में जिस तरह से भारत की राजनीति में छल-कपट और स्वार्थ को स्थान मिला है तथा उसके साथ ही राजनीतिक अपराधीकरण के दौर का आगाज़ हो चुका है, वे अब इस देश को बुरी तरह से आक्रांत करने लगे हैं। भारत के संविधान निर्माताओं ने कभी यह सोचा भी नहीं था कि सत्य और अहिंसा पर आस्था रखने वाला यह देश दुष्चरित्रता और भ्रष्टाचार से बुरी तरह जकड़ा जायेगा। आज देश के अनेक भागों से राष्ट्रद्रोही संगठन देश-भक्ति का मुखौटा लगाकर समाज को विभ्रमग्रस्त करने में सफल होते चले आ रहे हैं। 
अगर भारत का मुसलमान किसी इस्लामिक देश में जाए तो यह देश इनको नागरिकता नहीं देंगे, इनका दफन भारत में ही होगा। इनको यह जहन में याद रखना चाहिए। भारत की नागरिकता पाक में सताए हिन्दुओं, सिखों, इसाइयों इत्यादि को प्रदान की जायेगी। कट्टर पंथियों की मंशा भारत को इस्लामिक देश बनाना है। अलगाववादी सियासत चलाने के लिए खाड़ी देशों से पैसा मंगवाया जाता रहा था जो अभी इन अलगाववादियों को मिल रहा है और कहीं विदेशी मिशनरियों के पैसे से राष्ट्रीय एकता खंडित करने के प्रयास होते हैं। यहां तक कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. तक से पैसे लेकर अनेक संगठन राजनीति व मज़हब की आड़ में राष्ट्र की अस्मिता को प्रभावित कर रहे हैं, यह बहुत ही सोचनीय स्थिति हो चुकी है। स्वाधीन भारत के संविधान निर्माताओं ने इस राष्ट्र को लोकतंत्रा-त्मक गणराज्य के रूप में गठित करने की चेष्ठा की थी, लेकिन पिछले 70 सालों का इतिहास इस बात का साक्षी है कि ऐसी स्थिति बन नहीं पा रही। राष्ट्रीय एकता और अखंडता को अब कदम-कदम पर चुनौती मिल रही है तथा एक नहीं अनेक अलगाववादी आन्दोलनों का जन्म हो चुका है। असलियत यह है कि अब भारत की सारी राजनीति देश को टुकड़े-टुकड़े बनाये रखने पर जीवित है। राष्ट्रीय एकता परिषद या अन्तर्राज्यीय परिषद अथवा संसद कोई भी संस्था उस मानसिक विघटन का समाधान नहीं खोज पा रही है, जिसके बीज सियासतदानों ने अपने संकीर्ण स्वार्थों की हिफाज़त के लिए जानबूझ कर बीजे हैं। ये बीज धीरे-धीरे अब विष वृक्ष बनते जा रहे हैं। इसलिए केन्द्रीय राजनीति भी संकीर्णतावादी क्षेत्रीय राजनीतक दलों की गिरफ्त में फंसती चली जा रही है। 
इस शताब्दी का यह अंतिम दहाका इसी राजनीतिक विखंडन की कहानी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कूटनीति और गृह मंत्री अमित शाह के अथक प्रयासों से कश्मीर समस्या का समाधान किया गया। यह एक अग्नि-परीक्षा के समान खड़ी थी। यह स्थिति आखिरकार क्यों बनीं? क्यों, कोई न कोई कमज़ोरी तो रही ही है। यह कमजोरी संविधान के स्तर पर या राजनीतिक दर्शन के स्तर पर, पिछले 70 सालों से विचार से वंचित रही है।
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