प्राचीर से प्रवचन


इस प्राचीर तक पहुंचने की इच्छा उनकी नहीं थी। इन प्रासादों के भीतर भी उनका प्रवेश निषेध रहा। लेकिन फिर भी उन्हें समझा दिया जाता कि यह प्राचीर तुमसे दूर नहीं। इस पर पीढ़ी दर पीढ़ी बैठे लोगों के जय जयकार के नारे लगाते रहोगे, तो जब वोट डालने का वक्त आयेगा, तो ये चार दिन की चांदनी का मंत्र-वाक्य सिद्ध करने के लिए तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दे देंगे। तुम उनसे न पूछना कि इन चन्द चांदनी रातों के बाद क्या फिर अंधेरी रात का उपहार है?
बरखुरदार भला इसके पूछने की क्या ज़रूरत है? यहां अंधेरी रातों के तोहफे नहीं बंटते, यह तो तुम्हारी नियति है। अब तक इसे झेल लेने की तो तुम्हें आदत हो जानी चाहिए थी। बहुत-सी बातों की आदत तो हो गई है, तुम्हें कि जैसे यह आदत कि चिन्ता न करो, अच्छे दिन आयेंगे। सब जन रोटी खायेंगे। बदन पर फटे चीथड़ों की जगह सज्जनों जैसे वस्त्र पायेंगे। उनके बिना दीवारों के घर अब उनसे रुख्सत ले लेंगे। उनके सिर पर छत का चन्दोबा बन जायेगा। जिसके फटे सीने से झांकता हुआ चांद उनके साथ हाथ मिलाने नहीं आयेगा।
यह सब नहीं मिला। हां, इसका इंतज़ार करने की आदत अब अवश्य पक्की हो गई है। सपनों का बायस्कोप दिखाने  वाला अपने ओजस्वी भाषण के साथ आज भी ज़रूरत पड़ने पर उनकी गलियों का चक्कर लगाने आ जाता है। उसके पास निकट भविष्य में उनका वक्त बदल जाने का सन्देश रहता है। लेकिन यह भविष्य कितना निकट है, शायद इसकी खबर उसे नहीं रहती। प्राचीर से चिल्लाओ तो आवाज़ को उनके पाताल तक पहुंचते देर लगती है। उनके प्रासादों के बाहर कभी फुटपाथ थे, उनका ठिकाना बन जाते थे, लेकिन स्वच्छ भारत अभियान में इन फुटपाथों पर मैले कुचैले लोगों का क्या काम? क्यों न इन्हें चन्द टूटी झुग्गियों में समेट दो। इन्हें पर्दाकशी करने के लिए इनके बाहर ऊंची दीवारों का परकोटा बना दो। हमारे सम्पन्न मसीहा यह उभरता-संवरता देश देखने आयेंगे। उनकी नज़र इन मैली-कुचैली बस्तियों पर नहीं पड़नी चाहिए। उनके सौंदर्य बोध पर आघात लगेगा।
उन्हें सिर्फ यही बताना कि वह दुनिया के उस सबसे बड़े लोकतंत्र में तशरीफ लाये हैं, जहां अति गरीब जनता की भीड़ हर बार चुनाव दुंदुभि बजने के बाद बड़ी ईमानदारी के साथ अपने गेटों की पुष्पांजलि से इन प्राचीरों और प्रासादों पर कब्ज़ा जमाये अति असामाजिक तत्वों को अपना नया खुदा चुनती है।
इन नये खुदाओं के दिल में उनका दर्द नौ दिन और अपने भाई-भतीजों का दर्द सौ दिन सवाया रहता है। इसी को वह इस देश में समाजवाद की स्थापना का नाम देते हैं, जहां टसुवे गरीब के लिए बहाये जाते हैं, और माऊंट एवरेस्ट अमीर का उठाया जाता है। यह अमीर संख्या में बहुत नहीं हैं। जनता के धूलि-धूसरित आटे  में नमक की तरह रहना पसन्द करते हैं। 
नमक अधिक हो जाये तो उनकी सेहत देश में बिगड़ने लगती है। सेहत बिगड़ती है तो वे बैंकों की सेहत बिगाड़ देते हैं। अपने प्रासादों और प्राचीरों की धौंस से उनका जो खजाना उठा कर अपनी तिजोरी में भरा होता है, उसे अपनी गठरी में समेट कर विदेशों की ओर प्रयाण कर जाते हैं। आजकल इन देशों की नागरिकता में बिकने लगी है। अपना चोला बदलते देर ही कितनी लगती है। बस गंगा गये तो गंगा राम और जमना गये तो जमना दास हो जाते हैं। पीछे जिन्हें छोड़ गये, वे प्रासाद के प्राचीर उनकी प्रतीक्षा करते हैं। जिन बैंकों के कोषागार खाली कर गये थे, उनके वजूद लड़खड़ाने लगते हैं। 
दूर बैठे उनकी चिन्ता की जा सकती है। चिन्ता करने में जाता कया है? बस कुछ गुपचुप चन्दे पीछे रह गये, कुर्सी धारियों तक पहुंचा दो, वह आपको पलायन के बारे में मौन धारण कर लेंगे, और अपने बैंकों की बिगड़ती सेहत देख कर उनकी शादी एक-दूसरे से करवा देंगे। प्राचीर पर बैठा आदमी देश की तरक्की देख कर खुश होता है। देश की आज़ादी को पौन सदी बीत गयी। देश उसी मन्थर गति से पुराने नारों को नये कलेवर देने के पथ पर चल रहा है। पहले कहते थे, अच्छे दिन आयेंगे, सब के लिए रोटी, कपड़ा और मकान लायेंगे। हर पेट को रोटी और हर हाथ को काम देंगे। फिर लगा कि ऐसे वायदे न करो कि जिनके पूरा होने की कोई सम्भावना न हो फिर जो लोग यह चिन्ता करने के लिए शासन की टोपियां आपस में बदल लेते हैं, वे यह चिन्ता भी करेंगे, तो उनके प्राचीर और उनके प्रसाद हिलने लगेंगे।
इसलिए आइए, क्यों न दिल को बहलाने को ़गालिब यह ख्याल अच्छा है को शिरोधार्य करते हुए उनके लिए ख्यालों की कोई नई दुनिया रच दें। इस दुनिया में उनके लिए अन्तरिक्ष की सैर के नये कालीन बिछा दिये जाएं और मंगल तथा चांद जैसे ग्रहों की धरती पर उनके रहने के लिए बस्तियां आरक्षित करवा दी जाएं। पहले उन्हें संदेश देते थे, ‘दीनो अरब हमारा, सारा जहां हमारा, रहने को घर नहीं है, हिन्दोस्तां हमारा।’
लेकिन अब लगता है ऐसे गीतों का श्रवण अमधुर न हो जाये, इसलिए उन्हें क्यों न ब्रह्मांड विजय का सपना दिखायें। अब दूर देश नहीं, किसी अजनबी ग्रह-उपग्रह पर जा बसने की बातें होती हैं। ऐसी बातें इन प्रासादों से किसी दिलासा की तरह निकलती हैं कि जिनके फुटपाथ भी स्वच्छता अभियान के तहत गरीब के बिस्तर नहीं रहे। वे आजकल या तो अतीत की गरिमा में जीते हैं, या भविष्य की कल्पना को अपने टूटे पंखों पर ढो लेने का साहस जुटाते हैं। बीच में भूख परेशान करे तो उसे उपवास की श्रद्धा में तबदील कर ‘मेरा भारत महान’ के अध्यातम द्वार के वन्दनवार बन जाते हैं। आमीन।